Saturday, July 27, 2024
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मराठा राजनीति में मेवाड़ (2)

मराठों के विरुद्ध विशाल अभियान

नवम्बर 1734 में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला द्वारा वजीर कमरूद्दीन के नेतृत्व में एक विशाल सेना मालवा भेजी गई। दूसरी शाही सेना मीरबख्शी खानेदौरां के नेतृत्व में राजपूताने की ओर भेजी गई ताकि मराठों को वहाँ से भगाया जा सके। मार्ग में जयसिंह भी अपनी सेना लेकर मीरबख्शी से आ मिला। जोधपुर का राजा अभयसिंह तथा कोटा का राजा दुर्जनसाल भी इस सेना से आ मिले।

इस कारण मुगल सेना अत्यंत विशाल दिखाई देने लगी। इस सेना में अगणित सैनिकों के साथ गोला-बारूद की असंख्य गाड़ियां थीं। जब यह लश्कर मुकुंद दर्रा पार करके रामपुरा क्षेत्र में पहुंचा तो फरवरी 1735 के आरम्भ में उसका सामना होल्कर और सिंधिया की सेनाओं से हुआ। शाही सेना पूरी तरह असंगठित थी। खानेदौरां अनुभवहीन, कायर और अयोग्य सेनापति था।

मल्हारराव होल्कर तथा राणोजी सिंधिया के छापामार घुड़सवारों ने खानेदौरां को घेर लिया। आठ दिन तक खानेदौरां मराठों की घेराबंदी में रहा। इस बीच मराठों द्वारा मुगलों की रसद पंक्ति लूट ली गई। मुगल सेना परास्त होकर भाग खड़ी हुई।

ई.1735 में मुगलों की इस पराजय के उत्तर भारत की राजनीति में गहरे परिणाम निकले। मराठे, गुजरात के वास्तविक शासक बन गये तथा गायकवाड़ ने बड़ौदा में मराठा राज्य स्थापित किया। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने मराठों को चौथ देना स्वीकार कर लिया  तो पेशवा बाजीराव राजपूताने के राज्यों से भी चौथ मांगने लगा क्योंकि राजपूताना के राज्य मुगल सल्तनत के अधीन थे।

बाजीराव पेशवा तथा महाराणा जगतसिंह (द्वितीय)

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आंबेर नरेश जयसिंह ने पेशवा बाजीराव को मराठों और मुगलों के बीच स्थायी शांति की स्थापना के लिये जयपुर बुलाया तथा लिखा कि पेशवा 5000 सवारों के साथ आये तथा मार्ग में किसी तरह की लूटमार न करे। इस यात्रा के लिये महाराजा जयसिंह, पेशवा बाजीराव को 50 हजार रुपये प्रति दिन का भुगतान करेगा। पेशवा को सुरक्षित लौटा लाने की जिम्मेदारी पर बादशाह से मिलवाने भी ले जाया जायेगा।

पेशवा, जयसिंह का निमंत्रण स्वीकार कर 9 अक्टूबर 1735 को सेना सहित पूना से रवाना होकर 15 जनवरी 1736 को डूंगरपुर तथा फरवरी 1736 में उदयपुर आया। उसकी इच्छा महाराणा से डेढ़ लाख रुपये सालाना 10 वर्ष तक तथा बनेड़ा परगना लेने की थी। उसने महाराणा से कहा कि आप मुझे अपने प्रथम श्रेणी के सरदारों के बराबर समझें। महाराणा ने उसकी दोनों मांगें मान ली।

महाराणा ने पेशवा को डेढ़ लाख रुपये सालाना चौथ देने का वचन दिया तथा बनेड़ा का परगना अपने पास ठेके पर रखकर उसकी आय, पेशवा को देना स्वीकार किया। दूसरे दिन पेशवा को जगमंदिर दिखाने की बात हुई। किसी ने पेशवा से कहा कि राजपूत आपको जगमंदिर में ले जाकर मारना चाहते हैं। इस पर पेशवा बहुत क्रुद्ध हुआ तथा महाराणा से सात लाख रुपये लेकर चला गया। 

इस प्रकार ई.1736 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) ने मराठों को कर देना स्वीकार कर लिया।  ई.1737 में कोटा राज्य, मराठों से परास्त हुआ और उसने मराठों को चौथ देना स्वीकार किया।  उसी वर्ष कोटा में मराठों का प्रतिनिधि नियुक्त हुआ जो कोटा और बूंदी से कर वसूलता था।

एकता का दूसरा असफल प्रयास

हुरड़ा सम्मेलन के रूप में, राजपूत राजाओं की एकता के प्रथम प्रयासों की विफलता सामने आने पर सलूम्बर के रावत कुबेरसिंह ने राजपूताने के राजाओं को फिर एकता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न करने के लिये महाराणा को एक पत्र लिखा।  महाराणा ने भी दूसरे राजाओं को बुलाने के लिये प्रयत्न किये परंतु इसका कोई परिणाम नहीं निकला। इस काल में मेवाड़ राज्य की भीतरी दशा बिगड़ी हुई थी।

चूण्डावत और शक्तावत आपस में लड़ते थे। चूण्डावतों में भी विवाद उत्पन्न हो गया था। चूण्डावतों की झालाओं एवं चौहानों से भी ठन गई थी। महाराणा का स्वयं का भी अपने कुंवर प्रतापसिंह से वैमनस्य हो गया तथा महाराणा ने प्रतापसिंह को बंदीगृह में डाल दिया।

नादिरशाह का भारत पर आक्रमण

ई.1739 में नादिरशाह का दिल्ली पर आक्रमण हुआ। नादिरशाह भारत से लगभग 70 करोड़ रुपये की सम्पदा लूटकर ले गया जिसमें कोहिनूर हीरा तथा शाहजहाँ का तख्ते-ताउस भी सम्मिलित था। नादिरशाह के आक्रमण से मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा और स्थायित्व को गहरा धक्का लगा। ई.1741 में मराठों ने वागड़ में होते हुए मेवाड़ रियासत में प्रवेश किया। महाराणा ने कानोड के रावत पृथ्वीसिंह आदि सरदारों को ससैन्य उनसे लड़ने के लिये भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर मराठों को हटा दिया।

महाराणा जगतसिंह द्वारा जयपुर की राजनीति में हस्तक्षेप

ई.1743 में आंबेर नरेश जयसिंह का निधन हो गया तथा उसका बड़ा पुत्र ईश्वरीसिंह जयपुर का राजा हुआ। महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) के समय निश्चित हुई शर्त के अनुसार जयसिंह की मेवाड़ी रानी के गर्भ से उत्पन्न माधवसिंह को जयपुर का नया राजा बनाया जाना था।

इसलिये महाराणा अपनी सेना तथा कोटा के महाराव दुर्जनसाल की सेना लेकर जयपुर राज्य पर आक्रमण करने के उद्देश्य से जहाजपुर परगने के जामोली गांव पहुंच गया। ईश्वरीसिंह भी अपनी सेना लेकर पास में ही पंडेर गांव आ कर ठहर गया। ईश्वरीसिंह ने माधवसिंह के लिये 5 लाख रुपये की आय का टोंक परगना देने की बात कहकर महाराणा से संधि कर ली। इस पर कोटा का महाराव दुर्जनसाल, महाराणा से नाराज होकर, उसे बिना बताये ही चला गया।

महाराणा ने ईश्वरीसिंह से संधि तो कर ली किंतु अगले ही वर्ष उसने फिर से माधवसिंह को जयपुर का राजा बनाने का उद्योग किया। उसने मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर से सहायता हेतु सम्पर्क किया। होल्कर ने माधवसिंह को जयपुर का राजा बनाने के बदले में एक करोड़ रुपये लेने की शर्त रखी। इस प्रकार महाराणा ने मराठों की सेना साथ लेकर जयपुर के विरुद्ध अभियान किया।

उस समय ईश्वरीसिंह दिल्ली में बादशाह से मिलने के लिये गया हुआ था। अतः जयपुर राज्य के सामंतों ने महाराणा से सम्पर्क करके कहा कि हम भी ईश्वरीसिंह के स्थान पर माधवसिंह को ही राजा बनाना चाहते हैं। अतः आप उसके आने तक रुकें हम स्वयं ही उसे गिरफ्तार करा देंगे। महाराणा उनके धोखे में आ गया। जयपुर के सरदारों ने ईश्वरीसिंह को शीघ्र ही जयपुर बुला लिया तथा मल्हारराव के अतिरिक्त समस्त मराठों को रुपये देकर अपनी ओर मिला लिया जिससे महाराणा बहुत असमंजस में पड़ा और मराठों को कुछ रुपये देकर उदयपुर लौट आया।

अक्टूबर 1747 में महाराणा ने कोटा के महाराव दुर्जनसाल तथा मराठों की सहायता प्राप्त कर पुनः जयपुर पर चढ़ाई की। मल्हारराव होल्कर ने 2 लाख रुपये लेकर अपने पुत्र खांडेराव को तोपखाने सहित भेजा। शाहपुरा का राजा उम्मेदसिंह भी सेना लेकर आ गया। ईश्वरीसिंह ने हरगोविन्द नाटाणी की अध्यक्षता में सेना भेजी। दोनों पक्षों के बीच बनास नदी पर राजमहल के निकट युद्ध हुआ जिसमें दोनों पक्षों को बड़ी हानि हुई।

अंत में ईश्वरीसिंह की सेना जीत गई।  अगले वर्ष महाराणा ने पुनः कोटा के राजा दुर्जनसाल तथा खांडेराव की सेना के साथ जयपुर राज्य पर आक्रमण किया। खारी नदी के किनारे दोनों पक्षों में लड़ाई हुई। ईश्वरीसिंह ने उम्मेदसिंह को बूंदी और माधवसिंह को टोड़ा देना स्वीकार करके महाराणा से संधि कर ली।  महाराणा के लौट जाने के बाद ईश्वरीसिंह ने टोंक पर अधिकार कर लिया।

माधवसिंह ने मल्हारराव होल्कर तथा बूंदी के महाराव उम्मेदसिंह की सेनाओं के साथ जयपुर पर चढ़ाई की। मल्हारराव ने महाराणा से भी सहायता मांगी किंतु महाराणा ने स्वयं युद्ध में न जाकर 4000 सैनिक भेज दिये। 1 अगस्त 1748 को बगरू के निकट दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें ईश्वरीसिंह पराजित हो गया। उसने मल्हारराव को कुछ रुपये देकर संधि कर ली। उम्मेदसिंह को बूंदी तथा माधवसिंह को टोंक के चार परगने भी दे दिये। 

जब होल्कर चला गया तब ईश्वरीसिंह ने अपने मंत्री केशवदास को जहर दे दिया जिसने यह संधि करवाई थी। जब केशवदास मरने लगा तब ईश्वरीसिंह ने उससे कहा कि अब तेरा होल्कर कहाँ है? जब यह बात होल्कर को ज्ञात हुई तो उसने 29 सितम्बर 1750 को पुनः जयपुर के लिये प्रस्थान किया। ईश्वरीसिंह का मंत्री हरगोविंद नाटाणी, महाराजा से नाराज चल रहा था तथा महाराजा से बदला लेना चाहता था इसलिये उसने कोई तैयारी नहीं की तथा होल्कर को जयपुर बुला लिया।

जब होल्कर जयपुर के निकट पहुंच गया तब महाराजा ईश्वरीसिंह को अपने मंत्री की कुटिलता का पता चला। जब मराठा सैनिक जयपुर की दीवारों पर दिखाई देने लगे तो अन्य कोई उपाय न देखकर ईश्वरीसिंह ने जहर खा लिया। दूसरे दिन होल्कर ने जयपुर नगर पर अधिकार कर लिया तथा माधवसिंह को जयपुर की गद्दी पर बैठा दिया।

इसके बदले में माधवसिंह ने होल्कर को बहुत सा धन तथा टोंक के चार परगने दिये। माधवसिंह ने महाराणा के उपकारों को भुलाकर रामपुरा का परगना भी होल्कर को दे दिया। यह परगना मेवाड़ की तरफ से ही माधवसिंह को मिला हुआ था। इस प्रकार रामपुरा का परगना सदा के लिये मेवाड़ से निकल गया।

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