राजस्थान में बौद्ध स्मारक तथा मूर्तियाँ उतनी बड़ी संख्या में प्राप्त नहीं की जा सकी हैं जितनी बड़ी संख्या में उनके मिलने की संभावना थी। इसका कारण संभवतः यह रहा कि राजस्थान लम्बे समय तक हूण-आक्रमणों की चपेट में रहा जिन्होंने बौद्ध स्मारकों एवं मूर्तियों को नष्ट कर दिया।
भारत में धर्म नामक संस्था के प्रथम गठन का श्रेय वैदिक आर्यों को जाता है जिन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद को धार्मिक एवं आध्यात्मिक चिंतन की अद्भुत ऊंचाइयों से परिपूर्ण किया। वैदिक धर्म के उन्नयन से न केवल भारत का अपितु सम्पूर्ण दक्षिण एशिया का आकाश यज्ञ के सुवासित धुंए और सामवेद के सुरीले गायन से भर गया।
पुरोहित इस काल का आध्यात्मिक गुरु था तथा राजा और श्रेष्ठि उसके सर्वप्रिय जजमान। कालांतर में जब समाज में किसान, पशुपालक, चरवाहे, कुम्भकार, बुनकर आदि की संख्या बढ़ गई तब अथर्ववेद की रचना हुई जिसमें खेती तथा पशुओं को नष्ट होने से बचाने के लिये, बच्चों के स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना के लिये, घर और सम्पत्ति की सुरक्षा के लिये धार्मिक क्रिया-कलापों के साथ-साथ तंत्र-मंत्र, जादू-टोने, भूत-प्रेत जैसे विश्वासों को स्थान मिला।
इन धार्मिक विश्वासों ने पुरोहितों को और मजबूती दी। उन्होंने वैदिक धर्म को जटिल यज्ञों, बलियों एवं खर्चीले अनुष्ठानों से जकड़ दिया। अथर्ववेद के बाद के युग में विभिन्न प्रकार के यज्ञ ही मोक्ष के साधन समझे जाने लगे किंतु साधारण जन इन खर्चीले एवं जटिल यज्ञों को नहीं करवा सकते थे।
व्यापक जन-क्रांति के स्वर
छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में उत्तरी भारत में सोलह महाजनपद विद्यमान थे जो निरंतर युद्धरत रहकर रक्तपात किया करते थे। समाज में ब्राह्मणों की सर्वत्र प्रधानता थी। श्रेष्ठि वर्ग भी चैन की बांसुरी बजाता था जबकि समाज का बहुत बड़ा भाग ऐसा था जो चौथे वर्ण में था। जो हर प्रकार से निम्न एवं तिरस्कार योग्य माना जाता था। सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था ऊँच-नीच तथा छुआ-छूत के बंधनों से जकड़ी हुई थी। सांस्कृतिक क्षेत्र में भी व्यापक असंतोष व्याप्त था। इस काल में संस्कृत ही धार्मिक एवं साहित्यिक भाषा थी। उसी में ग्रन्थों की रचना होती थी और उसी में धार्मिक उपदेश दिये जाते थे। इस भाषा को प्रायः ब्राह्मण ही ठीक से समझ सकते थे।
जन सामान्य पालि, प्राकृत तथा पैशाचिक आदि देशज भाषाओं में व्यवहार करता था। जनता को ऐसे धर्म शासन की आवश्यकता थी जो देशज भाषाओं में उपदेश दे। स्वाभाविक था कि पुरोहितों और ब्राह्मणों के विरुद्ध साधारण जनता में असंतोष उत्पन्न हो। इस प्रकार पूरा दक्षिण एशिया जीवन के हर क्षेत्र में एक व्यापक क्रांति के लिये तड़पने लगा। एक ऐसी क्रांति जो आम आदमी के जीवन को सरलता, समानता, सुख और स्वातंत्र्य भाव से भर दे। इस युग की जनता सब प्रकार के बंधनों को शिथिल करने के लिये छटपटा रही थी।
व्यापक जन क्रांति
जनता के असंतोष ने छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में दक्षिण एशिया में व्यापक क्रांति को जन्म दिया जिसका नेतृत्व भारत ने किया। इस क्रांति का भौगोलिक क्षेत्र तो अत्यंत व्यापक था ही, इसका प्रभाव क्षेत्र भी जीवन के हर अंग पर था। इस कारण इस काल में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में क्रांति हुई।
आश्चर्य की बात थी कि जिन ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपने बाद सबसे उच्च स्थान दिलवाया, उन्हीं क्षत्रियों ने इस काल में ब्राह्मणों की प्रधानता के विरुद्ध धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्रांति का नेतृत्व किया। क्रांति के पहले चरण में महाजनपदों को एक छत्रछाया के अधीन लाकर मगध साम्राज्य का निर्माण किया गया। इसे उस काल की राजनीतिक क्रांति कहा जा सकता है।
नास्तिक धार्मिक क्रांतियां
क्रांति का दूसरा चरण धार्मिक क्रांतियों के रूप में प्रकट हुआ। क्षत्रिय राजकुमारों- बुद्ध तथा महावीर ने ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई समस्त व्यवस्थाओं को खुली चुनौती दी और ब्राह्मण धर्म के समानांतर दो नास्तिक धर्म- बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म खड़े किये। वेदों में विश्वास नहीं रखने के कारण ये दोनों धर्म नास्तिक कहलाये। बौद्ध धर्म वेदों में अविश्वास करने के साथ-साथ आत्मा और परमात्मा के विषय में पूरी तरह मौन रहता था।
यह धर्म ऊँच-नीच और छुआछूत को नकार कर एक ही संघ में, एक ही विहार में और एक ही व्यवस्था में जीवन जीने की राह दिखाता था। बौद्ध धर्म ने लोक भाषा पालि को अपने सिद्धांतों के प्रचार का माध्यम बनाया। बौद्ध भिक्षुओं ने बड़ी संख्या में राजस्थान में बौद्ध स्मारक तथा मूर्तियाँ बनाईं।
इसी के अनुकरण में जैन धर्म ने प्राकृत भाषा को पकड़ा। इस कारण इस बौद्धिक एवं धार्मिक क्रांति के समय पालि तथा प्राकृत भाषा में विपुल साहित्य की रचना हुई जो सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य था। कला के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। वैदिक काल में केवल मंडपों, यज्ञशालाओं तथा स्वयंवर वेदियों आदि का निर्माण किया जाता था परन्तु इस काल में विहारों, गृहों, चैत्यों, स्तूपों और मूर्तियों का निर्माण बड़े स्तर पर आरम्भ हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता