जब वैदिक धर्म के विरोध में बौद्ध धर्म और जैन धर्म उठ खड़े हुए तो उपनिषदों ने आडम्बरयुक्त जटिल कर्मकाण्डों तथा यज्ञों का विरोध करके वैदिक धर्म को बचाने की चेष्टा की। उपनिषदों ने निरीश्वरवादी होने का साहस तो नहीं किया किंतु निर्गुण ब्रह्म, कर्मवाद, मोक्ष आदि सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। उपनिषदों का अगोचर निर्णुण ब्रह्म इतना गूढ़ और सूक्ष्म था कि केवल बुद्धिजीवी वर्ग ही उसका ज्ञान प्राप्त कर सकता था। सामान्य जनता के लिए उसे समझ पाना संभव नहीं था।
इससे साधारण मनुष्यों की धार्मिक आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो सकीं। उपनिषदों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्म से साक्षात्कार, मनन निदिध्यासन तथा समाधि के जो साधन बताये उनका पालन भी साधारण जनता के लिए सम्भव नहीं था।
सभी व्यक्तियों के लिए घर-बार छोड़कर परिव्राजक बनकर ब्रह्म प्राप्ति का प्रयत्न करना सम्भव नहीं था। इस प्रकार उपनिषद, यज्ञों का खण्डन करके भी कोई नई लोकप्रिय पद्धति जनता के समक्ष नहीं रख सके और लोग तेजी से बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की ओर खिंचने लगे।
आस्तिक धार्मिक क्रांति
जब उपनिषद अपने प्रयासों में विफल प्रायः हो गये और जन सामान्य बौद्ध धर्म की ओर खिंचने लगा तब वेदपाठियों एवं वेदांतियों ने हिन्दू धर्म को बचाने के लिये पौराणिक धर्म की परिकल्पना की। 600 ई.पू. से लेकर 300 ईस्वी तक का काल पौराणिक धर्म का शैशव काल माना जाता है। 900 वर्षों का यह काल भक्ति प्रधान सम्प्रदायों के बीजारोपण, अंकुरण और पल्लवित होने का युग था किन्तु इस सम्पूर्ण समय में बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की प्रबलता के कारण पौराणिक धर्म का पूर्ण विकास नहीं हो पाया।
300 ईस्वी की यह समय सीमा अभिलेखों के आधार पर निश्चित की गई है। इस काल के 1500 से भी अधिक अभिलेख मिले है, इनमें से 50 से भी कम अभिलेख शैव, वैष्णव अथवा हिन्दू धर्म के अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखते हैं जबकि शेष लगभग 1450 से अधिक अभिलेख, बौद्ध और जैन धर्मों का उल्लेख करते हैं। गुप्तों के उत्थान के साथ ही चौथी शताब्दी ईस्वी से भारत के धार्मिक इतिहास में एक नया युग आरम्भ होता है।
इस समय से पौराणिक धर्म का उत्कर्ष होने लगता है और बौद्ध तथा जैन धर्मों का अपकर्ष होने लगता है। यह प्रक्रिया मुसलमानों के आगमन तक चलती रहती है। यही कारण है कि पौराणिक धर्म का उत्कर्ष काल 300 ईस्वी से 1200 ईस्वी तक माना गया है। पौराणिक धर्म को आस्तिक धार्मिक क्रांति कहा जा सकता है। आगे चलकर इसे वैष्णव धर्म अथवा भागवत धर्म के नाम से प्रसिद्धि मिली।
इस आस्तिक धार्मिक क्रांति का सूत्रपात महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना से तथा भगवान वेदव्यास ने महाभारत की रचना से किया। दोनों ने उत्तर भारत के दो क्षत्रिय राजकुमारों दशरथ नंदन राम तथा यशोदा नंदन कृष्ण को वैदिक देवता विष्णु का अवतार घोषित करके इस धार्मिक क्रांति के लिये वैचारिक धरातल तैयार किया। इस क्रांति का वास्तविक नेतृत्व आगे चलकर दक्षिण भारत के आलवार संतों ने किया।
पल्लवों के शासन काल में शैव आचार्य नायनार तथा वैष्णव आचार्य आलवार ने बौद्ध एवं जैन विद्वानों से शास्त्रार्थ करके उन्हें परास्त किया। इससे दक्षिण में बौद्ध एवं जैन धर्म की जड़ें हिल गईं। नायनारों तथा आलवारों का भक्ति आंदोलन छठी शताब्दी से नौवीं शताब्दी ईस्वी तक चला।
रामानंद इस क्रांति को दक्षिण से उत्तर भारत में ले आये। धार्मिक क्रांति की यह धारा पूर्णतः आस्तिक थी जो वेदों की सर्वोच्चता में विश्वास रखती थी। इसी धारा में आगे चलकर शैव धर्म तथा शाक्त धर्म नामक दो और धाराएं प्रकट हुईं जो धीरे-धीरे वैदिक धर्म से काफी दूर चली गईं।
नास्तिक और आस्तिक धार्मिक क्रांतियों में समानता
धार्मिक क्रांति की इन सभी आस्तिक एवं नास्तिक धाराओं में कुछ जबरदस्त समानताएं थीं जो अपने-अपने धार्मिक क्रांति के नायक के प्रति अनन्य भक्ति तथा सदाचरण के रूप में प्रकट र्हुइं। भक्ति, सरल सत्कर्म तथा सदाचरण ऐसे मार्ग थे जो सर्व साधारण के लिए भी सहजता से अनुगमनीय थे।