Saturday, July 27, 2024
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भेड़ों का मालवा-प्रवास

रेगिस्तानी भेड़ों का मालवा-प्रवास के लिए प्रस्थान एक युग-युगीन घटना है। रेगिस्तान में पानी एवं घास की कमी होने के कारण प्रतिवर्ष लाखों भेड़ें तथा ऊँटों के टोले मध्य प्रदेश के मालवा पठार पर घास एवं पानी की आशा में जाते हैं।

तीन लाख भेड़ें मालवा प्रवास पर जाती हैं झालावाड़ से!

राजस्थान एवं मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित राजस्थान का झालावाड़ जिला राजस्थान के प्रवासी भेड़पालकों को उनकी तीन लाख भेड़ों के साथ प्रतिवर्ष अक्टूबर माह में मालवा क्षेत्र के लिए विदाई देता है। जिला प्रशासन उन्हें झालावाड़ जिले से निष्क्रमण करने के लिये प्रायः 31 अक्टूबर की तिथि देता है।

भेड़ रेगिस्तानी पशु है किंतु रेगिस्तान में जल एवं वनस्पति की न्यूनता होने के कारण भेड़ें साल भर वहां नहीं रह पातीं। इसलिये शीतकाल आरम्भ होते ही मारवाड़ के भेड़पालक अपने कंधों पर लम्बी लाठियां और पानी की सुराहियां लेकर मालवा के कठिन पथ के लिये निकल पड़ते हैं। उनके साथ जाने वाली भेड़ों की संख्या हर साल घटती-बढ़ती रहती है किंतु यह प्रायः तीन लाख के आसपास होती है।

विगत सैंकड़ों साल से भेड़ें अपने चरवाहों के संकेतों का अनुगमन करती हुई उनके साथ सैंकड़ों मील की यात्रा करती हैं। मरुस्थल के चरवाहों की सुर्ख लाल पगड़ियां दूर से ही उनके रेबारी होने का उद्घोष करती हैं। सर्दिया आरम्भ होते ही ये लोग अपनी भेड़ों को लेकर मालवा की तरफ जाते हैं ताकि उनकी भेड़ों को खुले मैदानों में चराया जा सके।

जून-जुलाई माह में वर्षा आरम्भ होने तक ये लोग अपनी भेड़ों और परिवारों के साथ मालवा में ही रहते हैं। हरी घास से सजा मालवा का पठार हर वर्ष अपने इन अतिथियों की प्रतीक्षा में आंखें बिछाये तैयार रहता है। सर्दी और गर्मी के लगभग 8 माह वहां रहने के पश्चात् वर्षा आरम्भ होते ही ये फिर अपनी भूमियों की ओर लौटते हैं। पूरा वर्षा काल अर्थात् लगभग चार माह का समय वे राजस्थान में व्यतीत करते हैं।

झालावाड़ जिले में बारापाटी, बाघेर, हरिगढ़ तथा पनवाड़ के जंगल उनके निवास करने के लिये प्रिय स्थल हैं। गागरोन से देवारी घाटा के बीच एवं कोकंदा-धनवाद के जंगलों में भी बड़ी संख्या में इनके डेरे होते हैं। सर्दियां आरम्भ होते ही ये पुनः मालवा को प्रस्थान कर जाते हैं। सैंकड़ों वर्ष से यही क्रम चला आ रहा है।

झालावाड़ जिले से इनके निक्रमण के चार मार्ग हैं- डग-दूधलिया होकर, भालता होकर, रायपुर-इंदौर होकर तथा रावतभाटा-भैंसरोड़गढ़ होते हुए।

रेबारी शब्द चरवाहे से ही बना है। जब आर्यों ने सभ्यता की ओर कदम बढ़ाये तो पशु-चारण को प्रथम व्यवसाय के रूप में अपनाया। आज के रेबारी स्वयं को उन्हीं प्राचीन यायावर आर्यों के वंशज मानते हैं। आर्य स्वयं को देवताओं के वंशज मानते थे। इसलिये ये लोग भी स्वयं को देवासी कहते हैं जो देवांशी का ही अपभ्रंश है।

इन लोगों में उच्च आर्य परम्पराएं हैं। ये श्वेत अंगरखी और श्वेत धोती पहनते हैं। सिर पर गहरे लाल रंग की भारी भरकम पगड़ी बांधते हैं। त्यौहार आदि विशेष अवसरों पर इनकी पगड़ियां सुनहरी जरी एवं गोटे-पट्टी से सज जाती हैं।

रेबारी महिलायें रंगीन कपड़े पहनती हैं। उनके घाघरे अपेक्षाकृत गहरे रंग के, बड़े घेर वाले और वजन में काफी भारी होते हैं। उनके पैरों में चांदी के भारी कड़े, सिर से पांव तक चांदी के छोटे बड़े ढेर से आभूषण, आँखों में काजल, माथे पर चौड़ी बिंदिया और सिर से लेकर पैरों तक गोदने गुदे हुए होते हैं।

रेबारियों की देह पर स्वर्ण आभूषण भी अनिवार्य रूप से होते हैं। ये घी-दूध का भोजन करते हैं। विवाह जैसी उच्च संस्था भी इनमें अनिवार्य रूप से है। जीवन भर चलते रहने के कारण समाज और धर्म की उच्च मर्यादाओं का पालन करना कम कठिन साधना नहीं है परन्तु रेबारी समाज इसे सहज रूप से साध लेता है।

कहीं कोई दुविधा और चिंता नहीं। चिंता है तो केवल अपनी भेड़ों की। वे भूखी न रह जायें। वे बीमार न पड़ जायें। वे रेवड़ से बिछुड़कर कहीं चली न जायें। उन्हें जंगली जानवर उठाकर न ले जायें।

जब रेबारी अपनी भेड़ों को चराते हुए जंगलों से गुजर रहे होते हैं तब इनकी औरतें घर-गृहस्थी का सामान ऊंटों पर लादकर सड़क मार्ग से इनके समानांतर चलती रहती हैं। इन्हें डेरा कहा जाता है। इन डेरों में चारपाई से लेकर रसोई तथा पहनने के कपड़ों से लेकर जंगल में मचान बनाने तक की सामग्री होती है। छोटे बच्चे इन्हीं ऊंटों पर मजे से सवार रहते हैं।

भेड़ें तथा मादा ऊंट जीवन भर रेबरी परिवारों की दूध तथा घी सम्बन्धी आवश्यकताएं पूरी करती हैं। इसी दूध और घी के बल पर ये जीवन भर स्वस्थ और ह्रष्ट-पुष्ट रहते हैं तथा जीवन के कठोर संघर्ष का सामना करते हैं। बहुत से रेबारी इन भेड़ों के स्वामी नहीं हैं। इनमें से बहुत से ऐसे हैं जो दूसरों की भेड़ें चराते हैं।

इन भेड़ों के मालिक कोई और हैं जो मारवाड़ के पाली, जालोर, नागौर तथा चूरू आदि जिलों में रहते हैं। वे लम्बरदार कहलाते हैं। साल में दो बार भेड़ों से ऊन उतारी जाती है। तब ये लम्बरदार आकर भेड़ों की ऊन बिकने से प्राप्त हुई राशि इनसे लेते हैं।

डेंग कहलाता है भेड़ों का प्रवास!

जब कभी इन चरवाहों के परिवार में विवाह आदि के अवसर आते हैं, तब ये चरवाहे अपने घर जाते हैं। जीवन में ऐसे अवसर कम ही आते हैं। इनका अधिकांश जीवन पशुओं को चराने के लिये ‘डेंग’ पर ही निकल जाता है। इनमें सम्पन्नता की कोई कमी नहीं है। प्रत्येक रेबारी के कानों में सोने की मुरकियां, स्त्री और पुरुष दोनों के पैरों में चांदी के कड़े तथा रेबारी औरतों के गले में सोने की कंठियां सहज रूप से देखी जा सकती हैं।

भेड़ों के निष्क्रमण के समय मार्ग में पड़ने वाले खेतों को सबसे अधिक खतरा होता है। लाख ध्यान रखने पर भी भेड़ें कभी न कभी किसी न किसी खेत में घुस ही जाती हैं। तब आरम्भ होता है इनके जीवन का सबसे बुरा सपना अर्थात् किसानों और चरवाहों का संघर्ष। जो कभी-कभी रक्त-रंजित संघर्ष में भी बदल जाता है।

राजस्थान सरकार किसानों और चरवाहों दोनों की समस्याओं को समझते हुए भेड़ों के आगमन एवं निष्क्रमण के समय सुरक्षा के पूरे उपाय करती है। इनके परम्परागत मार्गों को चिह्नित करके सम्पूर्ण मार्ग पर विशेष व्यवस्थाएं की जाती हैं।

झालावाड़ जिले में भेड़ों के आवागमन मार्ग पर 20 चौकियां स्थापित की जाती हैं जिन पर राजस्व विभाग के कार्मिक, होमगार्ड्स, पुलिसकर्मी, पशु चिकित्सक नियुक्त किये जाते हैं तथा राशन सामग्री आदि की व्यवस्था की जाती है। जिस अवधि में भेड़ पालक जिले में रहते हैं, उनके बच्चों को पढ़ाने के लिये विशेष व्यवस्था की जाती है।

उनके लिये केरोसिन, दवाएं, चीनी, आटा, गेहूं, पेयजल आदि का प्रबंध किया जाता है। भेड़ निष्क्रमण की दृष्टि से झालावाड़ जिले में मिश्रौली एवं पिड़ावा अतिसंवेदनशील क्षेत्र हैं जहां कई बार संघर्ष की स्थिति बनी है। पुलिस एवं अन्य सरकारी विभागों की चुस्ती के कारण संघर्ष की सैंकड़ों घटनाएं टल जाती हैं।

हजारों भेड़ों के समूह को एक निश्चित पथ का अनुसरण करते हुए देखना कम रोमांचकारी नहीं है। मारवाड़ से मालवा तक के ये सैंकड़ों यायावर भारी भरकम लाल पगड़ियों के कारण किसी बावरे अहेरी से कम नहीं लगते।

हर साल वे गाते-गुनगुनाते चले जाते हैं किंतु वर्षा काल आरम्भ होते ही वे उन्हीं रास्तों पर फिर से आते हुए दिखाई देते हैं जिन रास्तों से वे गये थे, हर वर्ष की तरह, हर युग की तरह। यही क्रम नियति ने उनके लिये निश्चित किया है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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