जैसलमेर की रेगिस्तानी रियासत में मची अंतर्कलह से छुटकारा न मिलते देखकर जैसलमेर के महारावल मूलराज भाटी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संरक्षण प्राप्त करने पर विचार करने लगा।
कम्पनी के गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस ने ई.1805 में देशी राज्यों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई गई तथा उसने किसी भी देशी राज्य को कम्पनी का संरक्षण देना स्वीकार नहीं किया। इस कारण न केवल मध्य भारत और राजपूताना की रियासतें पिंडारियों और दूसरे लुटेरों की क्रीड़ास्थली बनीं बल्कि मराठों की शक्ति घटते जाने से पिंडारी बहुत शक्तिशाली बनते गए और वे अंग्रेजी इलाकों पर भी धावा मारने लगे। स्थान-स्थान पर पिण्डारियों के गिरोह खड़े हो गए।
पिण्डारी मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ लुटेरे सैनिक होता है। जब औरंगजेब के अत्याचार से नाराज होकर हिन्दू राजाओं ने मुगल बादशाह का साथ छोड़ना शुरु कर दिया तो अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुगल बादशाहों की सेनाएं बिखरनी आरम्भ हो गईं। हजारों की संख्या में मुगल सैनिक तथा उनके परिवार बेरोजगार होकर भटकने लगे। राजपूताना, मध्यभारत तथा महाराष्ट्र के हिन्दू राजाओं ने इन सैनिकों को अपनी सेनाओं में लेने से मना कर दिया। इस कारण ये सैनिक लुटेरे बन गए। इन लुटेरे सैनिकों को ही मराठी भाषा में पिण्डारी कहा जाने लगा।
लगभग सौ साल की अवधि में पिण्डारियों की संख्या इतनी अधिक बढ़ गई कि इनकी तुलना टिड्डी दलों से की जा सकती थी। पूरा मध्य भारत इनके अत्याचारों से थर्रा उठा।
उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में पिण्डारियों के दल टिड्डी दल की भांति अचानक गाँव में घुस आते और लूटमार मचाकर भाग जाते। मध्यभारत में कोई भी गाँव, कोई भी व्यक्ति, कोई भी जागीरदार तथा कोई भी राजा पिण्डारियों से सुरक्षित नहीं था। अतः प्रत्येक गाँव में ऊँचे मचान बनाए जाते तथा उन पर बैठकर पिण्डारियों की गतिविधियों पर दृष्टि रखी जाती थी।
आकाश में उठती धूल एवं घोड़ों की गर्द देखकर पिण्डारियों के आगमन का अनुमान लगाया जाता था तथा गांव वालों को पिण्डारियों के आगमन की सूचना ढोल या नक्कारे बजाकर दी जाती थी। पिण्डारियों के आने की सूचना मिलते ही लोग अपनी स्त्री, बच्चे, धन, जेवर तथा रुपये आदि लेकर इधर-उधर छिप जाया करते थे। जागीरी गाँवों की जनता, निकटवर्ती किलों में घुस जाती थी ताकि किसी तरह प्राणों की रक्षा हो सके।
पिण्डारी किसी भी गाँव में अधिक समय तक नहीं ठहरते थे। वे आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह निकल जाते थे। इस कारण उनके विरुद्ध किसी तरह की सैनिक कार्यवाही करना संभव नहीं हो पाता था। पिण्डारियों के कारण मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़ तथा हाड़ौती जैसे समृद्ध क्षेत्र उजड़ने लगे। भीलवाड़ा जैसे कई कस्बे तो पूरी तरह वीरान हो गए थे। पिण्डारियों ने कोटा राज्य को खूब रौंदा।
कोटा राज्य के दीवान झाला जालिमसिंह ने पिण्डारियों के विरुद्ध विशेष सैन्य दल गठित किए। इक्का-दुक्का आदमियों को मार्ग में पाकर ये पिण्डारी अपने रूमाल से उनका गला घोंट देते। उनके रूमाल में कांच की एक गोली होती थी जो श्वांस नली पर दबाव बनाकर शिकार का शीघ्र ही दम घोट देती थी। पिण्डारी अपने शिकार का सर्वस्व लूट लेते थे। इस समय पिण्डारियों के चार प्रमुख नेता थे- करीम खाँ, वसील मुहम्मद, चीतू खाँ और अमीर खाँ।
अमीर खाँ के नेतृत्व में लगभग 60 हजार पिण्डारी राजपूताना में लूटमार किया करते थे। अमीर खाँ का दादा तालेब खाँ, अफगान काली खाँ का पुत्र था। तालेब खाँ मुहम्मदशाह गाजी के काल में बोनेमर से भारत आया था। तालेब खाँ का लड़का हयात खाँ था जो मौलवी बन गया था।
हयात खाँ का लड़का अमीर खाँ ई.1768 में भारत में ही पैदा हुआ था जो 20 बरस का होने पर रोजी-रोटी की तलाश में घर से निकल गया। उन दिनों सिंधिया का फ्रांसिसी सेनापति डीबोग्ले अपनी सेना में वेतनभोगी सैनिकों की भर्ती कर रहा था।
अमीर खाँ ने भी इस सेना में भर्ती होना चाहा किंतु डीबोग्ले ने उस अनुशासन हीन लड़के को अपनी सेना में नहीं लिया। इस पर अमीर खाँ इधर-उधर आवारागर्दी करने के बाद जोधपुर आया और विजयसिंह की सेना में भर्ती हो गया। उसने बहुत से मुसलमान सिपाहियों को अपना दोस्त बना लिया। कुछ समय बाद वह अपने साथ तीन-चार सौ आदमियों को लेकर बड़ौदा चला गया और गायकवाड़ की सेना में भर्ती हो गया।
कुछ समय बाद बड़ौदा से भी निकाल दिए जाने पर अमीर खाँ और उसके सैनिक भोपाल नवाब की सेवा में चले गए। ई.1794 में अमीर खाँ और उसके सैनिकों ने भोपाल नवाब मुहम्मद यासीन (चट्टा खाँ) के मरने के बाद हुए उत्तराधिकार के युद्ध में भाग लिया और वहाँ से भागकर रायोगढ़ में आ गया।
उसके सैनिकों की संख्या 500 तक जा पहुंची। अब उसे कुछ-कुछ महत्व मिलने लगा। रायोगढ़ में कुछ ही दिनों बाद अमीर खाँ का कुछ राजपूत सैनिकों से झगड़ा हो गया। राजपूत सैनिकों ने उसे पत्थरों से मार-मार कर अधमरा कर दिया। कई महीनों तक अमीर खाँ सिरोंज में पड़ा रहकर अपना उपचार करवाता रहा।
ठीक होने पर वह भोपाल के मराठा सेनापति बालाराम इंगलिया की सेना में भर्ती हो गया। वहाँ उसे 1500 सैनिकों के ऊपर नियुक्त किया गया। भोपाल नवाब ने अमीर खाँ के आदमियों को जो वेतन देने का वचन दिया था, वह कभी पूरा नहीं हुआ।
इस पर अमीर खाँ ने ई.1798 में जसवंतराव होलकर से संधि कर ली जिसमें तय हुआ कि अमीर खाँ कभी भी जसवंतराव पर आक्रमण नहीं करेगा तथा लूट के माल में दोनों आधा-आधा करेंगे। अमीर खाँ ने अपने सैनिकों को मध्यभारत की रियासतों में लूट के काम में लगा दिया। इस लूट में मिले धन के बल पर अमीर खाँ ने बहुत बड़ी सम्पत्ति जुटा ली।
इस सम्पत्ति के बल पर ई.1806 में अमीर खाँ ने अपनी सेना में 35 हजार पिण्डारियों को भर्ती किया। उसके पास 115 तोपें भी हो गईं। समय के यह संख्या बढ़ती ही चली गई। अब मराठा सरदार, अमीर खाँ की सेवाएं बड़े कामों में भी प्राप्त करने लगे।
जब ई.1806 में जसवंतराव होलकर की सेना में विद्रोह हुआ तो होलकर ने मुस्लिम सैनिकों को नियंत्रित करने का काम अमीर खाँ को सौंपा। इस कार्य में सफल होने पर होलकर ने उसे मराठों की ओर से कोटा राज्य से चौथ वसूली करने का दायित्व सौंपा। अमीर खाँ को होलकर से ही ई.1809 में निम्बाहेड़ा की तथा ई.1816 में छबड़ा की जागीरें प्राप्त हुईं।
ई.1812 में अमीर खाँ के पिण्डारियों की संख्या 60 हजार तक पहुँच गई। ई.1807 से 1817 के बीच अमीर खाँ ने जयपुर, जोधपुर और मेवाड़ राज्यों की आपसी शत्रुता में रुचि दिखाई तथा इन राज्यों का जीना हराम कर दिया। उसके पिण्डारियों ने तीनों ही राज्यों की प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा।
ई.1803 में विजयसिंह का पौत्र मानसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उस समय उसके पूर्ववर्ती राजा भीमसिंह की विधवा रानी गर्भवती थी जिसने कुछ दिन बाद धोकलसिंह नामक पुत्र को जन्म दिया। पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने पाली, बगड़ी, हरसोलाव, खींवसर, मारोठ, सेनणी, पूनलू आदि के जागीरदारों को अपने पक्ष में करके धोकलसिंह को मारवाड़ का राजा बनाना चाहा।
पोकरण के ठाकुर ने जयपुर के महाराजा जगतसिंह तथा बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह को भी अपनी ओर मिला लिया। इन लोगों ने लगभग एक लाख सिपाहियों की सेना लेकर जोधपुर राज्य पर चढ़ाई कर दी।
जोधपुर नरेश मानसिंह ने गीगोली के पास जयपुर एवं बीकानेर की सम्मिलित सेनाओं का सामना किया किंतु जब महाराजा मानसिंह के प्राण खतरे में पड़ गए तो जोधपुर राज्य के सरदार महाराजा मानसिंह का घोड़ा बलपूर्वक युद्ध के मैदान से बाहर ले आए।
शत्रु सेना ने परबतसर, मारोठ, मेड़ता, पीपाड़ आदि कस्बों को लूटते हुए जोधपुर का दुर्ग घेर लिया। महाराजा मानसिंह को राज्य अपने हाथों से जाता हुआ दिखाई देने लगा और उसे पिण्डारी नेता अमीर खाँ की सेवाएं लेनी पड़ीं। महाराजा मानसिंह ने पिण्डारी नेता अमीर खाँ को पगड़ी बदल भाई बनाया और उसे अपने बराबर बैठने का अधिकार दिया।
इतना ही नहीं मानसिंह ने अमीर खाँ को पाटवा, डांगावास, दरीबा तथा नावां आदि गाँव भी प्रदान किए। अमीर खाँ ने महाराजा को वचन दिया कि वह पोकरण ठाकुर सवाईसिंह को अवश्य दण्डित करेगा।
अमीर खाँ ने एक भयानक जाल रचा। उसने महाराजा मानसिंह से पैसों के लिए झगड़ा करने का नाटक किया तथा जोधपुर राज्य के गाँवों को लूटने लगा। जब ठाकुर सवाईसिंह ने सुना कि अमीर खाँ जोधपुर राज्य के गाँवों को लूट रहा है तो उसने अमीर खाँ को अपने पक्ष में आने का निमंत्रण दिया।
अमीर खाँ ने सवाईसिंह से कहा कि यदि सवाईसिंह अमीर खाँ के सैनिकों का वेतन चुका दे तो अमीर खाँ सवाईसिंह को जोधपुर के किले पर अधिकार करवा देगा। सवाईसिंह, अमीर खाँ के आदमियों का वेतन चुकाने के लिए तैयार हो गया।
इस पर अमीर खाँ ने सवाईसिंह को साथियों सहित जोधपुर राज्य में स्थित मूण्डवा आने का निमंत्रण दिया। सवाईसिंह चण्डावल, पोकरण, पाली और बगड़ी के ठाकुरों को साथ लेकर मूण्डवा पहुँचा।
अमीर खाँ के सिपाहियों ने इन ठाकुरों को एक शामियाने में बैठाया तथा धोखे से शामियाने की रस्स्यिां काटकर चारों तरफ से तोप के गोले बरसानेे लगे। इसके बाद मृत ठाकुरों के सिर काटकर राजा मानसिंह को भिजवाए गए। इस घटना से सारे ठाकुर डर गए और उन्होंने महाराजा से माफी मांग ली।
कुछ दिनों बाद अमीर खाँ, महाराजा मानसिंह से और अधिक पैसों की मांग करने लगा। जब महाराजा ने पैसे देने से मना कर दिया तो अमीर खाँ ने जोधपुर राज्य के गाँवों में आतंक मचा दिया। एक दिन उसके आदमियों ने जोधपुर के महलों में घुसकर महाराजा मानसिंह के प्रधानमंत्री इन्द्रराज सिंघवी तथा राजा के गुरु आयस देवनाथ की हत्या कर दी। महाराजा के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था किंतु वह पिण्डारी अमीर खाँ का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था। अगली कड़ी में देखिए- पिण्डारियों ने एक-एक पैसे में औरतें बेच दीं।
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