Saturday, October 12, 2024
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मेहरानगढ़ दुर्ग

मेहरानगढ़ दुर्ग पचेटिया पहाड़ी पर स्थित है। इसका निर्माण मण्डोर के शासक राव जोधा ने करवाया क्योंकि उसके समय तक मण्डोर का दुर्ग इतना पुराना और असुरक्षित हो चुका था कि उसमें राजा एवं राजपरिवार को नहीं रखा जा सकता था।

मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण एवं नामकरण

शिलान्यास

राव जोधा ने मण्डोर से 6 मील दूर दक्षिण में चिड़ियानाथ की टूंक पर 12 मई 1459 को नया दुर्ग की नींव रखी। इस सम्बन्ध में एक दोहा कहा जाता है-

पन्दरा सौ पन्दरोतरे, जेठ मास जोधाण।        

सुद इग्यारस वार शनि, मंडियौ गढ़ मेहराण।।

विभिन्न ख्यातों में आये विवरण के अनुसार दुर्ग के द्वार के शिलान्यास हेतु लाई जाने वाली शिला, निश्चित मुहूर्त्त पर नहीं आ सकी। इस पर निकट ही स्थित एक ऊँट चराने वाले के बाड़े से एक शिला लाकर उससे द्वार का शिलान्यास किया गया। इस पत्थर पर बाड़े के द्वार को बंद करने के लिये लगाए जाने वाले डण्डों के छेद आज भी देखे जा सकते हैं।

अगले 500 वर्ष तक यह दुर्ग, मरुस्थल की राजनीतिक एवं सामरिक गतिविधियों का सर्वप्रमुख केन्द्र बना रहा। चारण परिवार में उत्पन्न करणी माता बीकानेर के राठौड़ों की पूज्य देवी हैं। वह जोधा तथा उसके पुत्र बीका की समकालीन थीं। कुछ स्थानों पर उल्लेख आया है कि करणी माता ने जोधा को इस दुर्ग के लिये स्थान बताया तथा करणी माता ने स्वयं अपने हाथों से दुर्ग का शिलान्यास किया।

एक तान्त्रिक की सलाह पर दुर्ग की नींव में किसी जीवित पुरुष को गाढ़ने का निर्णय लिया गया ताकि यह दुर्ग सदैव जोधा के वंशजों के पास रहे। राजा ने पूरे राज्य में मुनादी करवा दी कि जो व्यक्ति इस नींव में जीते जी गढ़ेगा, उसके परिवार को राजकीय संरक्षण एवं धन सम्पदा दी जायेगी। राजिया अथवा राजाराम भाम्बी नामक एक व्यक्ति इस कार्य के लिये तैयार हुआ। उसे जीवित ही नींव में चिनवाया गया। उसके परिवार को जोधपुर नगर में भूमि दी गई जो बाद में राजबाग के नाम से प्रसिद्ध हुई।

जिस स्थान पर राजिया को गाढ़ा गया उसके ऊपर खजाना तथा नक्कारखाने के भवन बनवाये गये। राजिया के प्रति आभार प्रकट करने के लिये राज्य से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों में उसका उल्लेख श्रद्धा के साथ किया गया। किसी-किसी स्थान पर उल्लेख मिलता है कि नींव में दो व्यक्तियों को जीवित चुना गया। विश्वनाथ रेउ ने लिखा है कि राजिया एवं उसके पुत्र को नींव में गाढ़ा गया। दुर्ग की स्थापना के अवसर पर राव जोधा ने बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को आमंत्रित किया। तब सिंध से 65 पुष्करणा ब्राह्मण परिवार, राजा को आशीर्वाद देने जोधपुर आये तथा यहीं बस गये।

नामकरण

ख्यातों के अनुसार दुर्ग की कुण्डली के आधार पर इस दुर्ग का नाम चिंतामणि रखा गया। यह भी कहा जाता है कि सिंध से आये पुष्करणा ब्राह्मण गणपतदत्त के पुत्र मोरध्वज के नाम पर इस दुर्ग का नाम मोरध्वज गढ़ रखा गया। यह भी माना जाता है कि मण्डोर का दुर्ग नागों का बनाया हुआ था।

नागों के शत्रु मोर होते हैं इसलिये नये दुर्ग का नाम मयूरध्वज रखा गया। नया दुर्ग मिहिरगढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मिहिर शब्द का अर्थ सूर्य होता है। अर्थात् सूर्य-वंशियों का गढ़ होने से यह मिहिरगढ़ कहलाया। बाद में इसे मिहिरानगढ़ और मेहरानगढ़ कहने लगे। यह भी कहा जाता है कि मयूर आकृति में बना हुआ होने से इसे मयूरानगढ़ कहते थे जो बाद में मेहरानगढ़ कहलाने लगा।

विश्व के भव्यतम दुर्गों में से एक मेहरानगढ़ दुर्ग

मेहरानगढ़ विश्व के भव्यतम दुर्गों में से एक है। यह अपने निकट की भूमि से 400 फुट ऊँचा है तथा बहुत दूर से दिखाई पड़ता है। मेहरानगढ़ में निर्मित राजप्रासाद घाटू के लाल पत्थर से निर्मित हैं। सुदृढ़़ता, विशालता और निर्माण-कला की दृष्टि से इस दुर्ग की गणना राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्गों में होती है। वास्तुकला की दृष्टि से मेहरानगढ़ एक बेजोड़ कृति है तथा हिन्दू स्थापत्य शैली पर आधारित होते हुए भी इसमें मुगल एवं अंग्रेजी स्थापत्य शैलियों का समावेश हुआ है। इसमें बने बहुमंजिले प्रासाद, ऊंचे बुर्ज तथा अभेद्य प्राचीर, मरुस्थलीय स्थापत्य की मुँह बोलती कहानी हैं।

दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था

मेहरानगढ़ दुर्ग 1500 फुट लम्बाई में और 750 गज चौड़ाई में बना हुआ है। सम्पूर्ण दुर्ग 20 से 120 फुट ऊँचे और 12 से 20 फुट चौड़े कोट (प्राकार) से घिरा हुआ है। दुर्ग की प्राचरों के ऊपर तोपों के मोर्चे बने हुए हैं। 

मेहरानगढ़ दुर्ग की श्रेणी

ऊंची पहाड़ी पर स्थित होने के कारण यह पार्वत्य दुर्ग की श्रेणी में तथा चारों ओर थार मरुस्थल से घिरा हुआ होने के कारण यह धन्व दुर्ग की श्रेणी में आता है। इसे सैन्य दुर्ग, पारिघ दुर्ग तथा ऐरण दुर्ग की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। यद्यपि अब मरुस्थल एवं वन-कांतार, दोनों ही इस दुर्ग से दूर चले गये हैं।

दुर्ग के प्रमुख द्वार (पोल)

दुर्ग में प्रवेश करने के दो मुख्य द्वार हैं- लोहा पोल व जय पोल। इनके अतिरिक्त दुर्ग में लखना पोल, फतह पोल, अमृत पोल, धु्रव पोल, सूरज पोल, भैरों पोल नामक दरवाजे स्थित हैं।

लोहापोल

इस पोल का अगला भाग राव मालदेव के समय ई.1548 में बनना आरम्भ हुआ और महाराज विजयसिंह के समय (ई.1752 में) इस पोल का निर्माण पूरा हुआ। इस द्वार की दीवारों पर सतियों के हाथ खुदे हुए हैं।

जयपोल

दुर्ग के उत्तर-पूर्व में स्थित इस पोल का निर्माण राजा मानसिंह ने जयपुर और बीकानेर की सम्मिलित सेना पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में ई.1808 में करवाया था। इसमें लगा लोहे का द्वार ई.1730 में महाराजा अभयसिंह अहमदाबाद से लाये थे।

लखना पोल

जयपोल से आगे चलने पर लखना पोल आती है। इस पर तोप के गोलों के निशान बने हुए हैं। ये निशान उस समय बने थे जब ई.1807 में जयपुर और बीकानेर की सम्मिलित सेनाओं ने आक्रमण किया था। उस समय तक जयपोल नहीं बनी थी। इसलिये तोपों के गोले लखना पोल को झेलने पड़े थे। इसके बाहर पालकीघर स्थित है जहाँ रानियों की पालकियां रखी जाती थीं।

फतहपोल

दुर्ग के पश्चिम की तरफ का द्वार फतहपोल कहलाता है। इसका निर्माण ई.1707 में महाराज अजीतसिंह ने मुगलां पर अपनी फतह की स्मृति में करवाया। फतहपोल से महलों तक जाने वाले टेढ़े-मेढ़े मार्ग में गोपाल पोल, भैंरू पोल, ध्रुवपोल, लोहा पोल तथा सूरजपोल नामक छः द्वार आते हैं। इनका क्रम संकड़ा एवं घुमावदार है ताकि शत्रु सरलता से दुर्ग में प्रवेश न कर सके तथा उस पर गर्म तेल, तीर व गोलियां छोड़ी जा सकें।

अमृत पोल

अमृत पोल का निर्माण राव मालदेव ने करवाया था। इसे इमरती पोल भी कहते हैं। दुर्ग में प्रवेश से पहले घुमावदार रास्ते बनाये जाते थे ताकि शत्रु अचानक दुर्ग में प्रवेश करने में सफल नहीं हो सके।

मेहरानगढ़ का स्थापत्य

दुर्ग के भवनों में लाल पत्थर को काटकर सुन्दर स्तम्भ, बारीक जालियाँ एवं झरोखे बनाये गए हैं। जाली तथा झरोखों पर महीन एवं चित्ताकर्षक काम किया गया है। इस दुर्ग में पत्थरों पर बनी लगभग 400 डिजाइनों की जालियां प्रयुक्त की गई हैं। दुर्ग में निर्मित समस्त भवनों में वायु एवं प्रकाश का अबाध प्रवेश होता है। महलों के प्लास्टर में कौड़ी का पाऊडर प्रयुक्त हुआ है जो शताब्दियां बीत जाने पर भी चमकदार एवं नवीन दिखाई देता है।

महलों को उत्कृष्ट कला-कृतियों से संजोया गया है। बेल-बूटे, फूल-पत्ते तथा देवी-देवताओं के चित्रों से महलों को सुसज्जित किया गया है। दुर्ग परिसर में अनेक मन्दिर, तोपखाना, छतरियां, शस्त्रागार तथा जलाशय आदि बने हुए हैं। महाराजा मानसिंह द्वारा स्थापित पुस्तक प्रकाश नामक पुस्तकालय आज भी कार्यरत है। किले में अनेक प्राचीन तोपें यत्र-तत्र रखी हुई हैं।

राव जोधा के समय करवाये गये निर्माण

राव जोधा ने लोहा पोल से चामुण्डाजी के बुर्ज तक कोट तथा बुरजें बनवाईं एवं फलसे तक दुर्ग का निर्माण करवाया। जोधा ने चामुण्ड बुर्ज पर मण्डप चुनवाया। जोधा के काल में इस किले का जहाँ तक प्रसार था, वहाँ तक का क्षेत्र जोधाजी का फलसा कहलाता था। समस्त उमराव, सरदार, राजपुरुष अथवा अन्य कर्मचारियों को इस स्थान पर अपनी सवारी छोड़नी होती थी। केवल राजा ही यहाँ से आगे सवारी पर बैठकर जा सकता था। यह सीमा समय के साथ बदलती रही।

राव जोधा के जीवनकाल में ही जोधा की हाड़ी रानी जसमादे ने दुर्ग की तलहटी में रानी सागर नामक तालाब बनवाया और जोधा की सोनगरी रानी चांद कुंवरी ने एक बावली बनवाई जो चांद बावड़ी के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसे चौहान बावड़ी भी कहा जाता था। रानी जसमादे ने अपने जीवन काल में दुर्ग के भीतर एक कुआं भी खुदवाया।

दुर्ग की तलहटी में पदमसर नामक तालाब स्थित है जिसे राव जोधा द्वारा मेवाड़ से पकड़कर लाये गये सेठ पदमचंद द्वारा दिये गये धन से बनवाया गया था। मेहरानगढ़ के निर्माण के पश्चात् इसका मध्य बिंदु ज्ञात किया गया तथा वहाँ एक चौकी पर राव जोधा को बैठाकर उसका तिलक किया गया।

राव मालदेव द्वारा करवाये गये निर्माण

राव मालदेव (ई.1532-62) ने मेहरानगढ़ का जीर्णोद्धार करवाकर सुरक्षा की दृष्टि से उसे सुदृढ़़ किया। दुर्ग के ऊपर जो महल गिर गए थे उनको एवं साल, दरीखाना, ईमरती पोल (आधी) लोहा पोल एवं इन दोनों पोलों के बीच का कोट नया करवाया। जोधपुर शहर के चारों ओर राव जोधा द्वारा करवाये गए परकोटे (शहरपनाह) का मालदेव ने पुनर्निर्माण करवाया।

फुलेलाव (जूनी चांदपोल के पास) प्राचीन मेड़तिया दरवाजा के निकट नींबाज की हवेली के समीप एवं नागौरी दरवाजे साजी के तकिए के पास तीन नई पोलें बनवायीं। ब्रह्मपुरी की पोल का निर्माण भी राव मालदेव के समय हुआ। राव मालदेव के किलेदार ने जोधपुर दुर्ग के ऊपर गोपाल पोल बनवाई।

महाराजा सूरसिंह द्वारा करवाये गये निर्माण

महाराजा सूरसिंह ने दुर्ग पर सूरजपोल, जनानी ड्योढ़ी, सिंणगार चौकी, सभा मण्डप, वाड़ी के महल बनवाये तथा राव मालदेव के महल को उखाड़कर मोतीमहल बनवाया। राव जोधा के समय निर्मित लोहापोल के भीतर बनी सालों को उखाड़कर फिर से बनवाया। दुर्ग में हवामहल एवं वि.सं. 1668 (ई.1711) में जनाना महलों का निर्माण भी सूरसिंह के शासनकाल में हुआ।

महाराजा जसवन्तसिंह द्वारा करवाये गये निर्माण

महाराजा जसवन्तसिंह ने किले में अगरणी का महल बनवाया जहाँ आजकल दौलतखाना का चौक है।

महाराजा अजीतसिंह द्वारा करवाये गये निर्माण

महाराजा अजीतसिंह ने वि.सं.1774 (ई.1717) गोपालपोल से फतेहपोल तक का कोट एवं फतेहपोल का निर्माण करवाया। वि.सं.1775 (ई.1718) में दौलतखाना का महल, फतहमहल, दौलतखाने के ऊपर वाला बिचला-महल, खांवका रा महल, जनाना की रंगसाल एवं जनाना ड्यौढ़ी में अलग-अलग 24 आवास गृह बनवाये।

महाराजा अभयसिंह द्वारा करवाये गये निर्माण

      महाराज अभयसिंह ने जोधपुर शहर के चारों ओर कागे की पहाड़ी से लेकर सुतरखाने तक (मेड़तीया दरवाजा के पास) पक्का परकोटा बनवाया। चोकेलाव में दो कोठार, बाग में सामान के लिए निर्मित करवाये। किले में फतहमहल के ऊपर फूलमहल, सभामण्डल के ऊपर कछवाहीजी का महल, लोहापोल के नीचे गोल की घाटी की ओर से तीन बुर्जें (जो अधूरी रहने के कारण बखतसिंह ने पूरी की) बनवाईं तथा पूरे किले की मरम्मत करवायी।

महाराजा बखतसिंह द्वारा करवाये गये निर्माण

महाराजा बखतसिंह ने जोधपुर दुर्ग पर वाड़ी के महलों के समीप नयी जनानी ड्यौढ़ी, जोधपुर शहर के चारों ओर का परकोटा जिसे महाराज अभयसिंह ने प्रारम्भ तो करवा दिया था परन्तु पूर्ण नहीं कर पाये थे, कागे की पहाड़ी से लेकर मेड़तिया दरवाजा तक एवं नागौरी दरवाजे से मेड़तिया दरवाजे तक का शहरपनाह बहुत शीघ्रता से पूरा करवाया। दौलत खाने के आंगन में राजा बख्तसिंह द्वारा बनवाई गई शृंगार चौकी स्थित है। यह विशाल सिंहासन श्वेत संगमरमर का बना हुआ है। इस चौकी पर जोधपुर नरेशों का राज्याभिषेक होता था।

महाराजा विजयसिंह द्वारा करवाये गये निर्माण

महाराजा विजयसिंह ने किले में बाबा आत्मारामजी की स्मृति में महल बनवाया, तुंवरजी के झालरे के पास स्थित बागर को हटाकर नागौरी दरवाजे के पास बनवाई क्योंकि इस समय तक शहर का विस्तार हो गया था।

महाराजा भीमसिंह द्वारा करवाये गये निर्माण

महाराज भीमसिंह ने लोहापोल के ऊपर झरोखे, फतहमहल, फूलमहल के कोठार एवं कोटड़ियों का निर्माण करवाया।

महाराजा मानसिंह द्वारा करवाये गये निर्माण

महाराजा मनसिंह ने ई.1808 में जयपोल का निर्माण करवाया। दुर्ग परिसर में स्थित पुस्तक प्रकाश भी ई.1805 में महाराजा मानसिंह ने स्थापित किया था। इसमें संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी तथा राजस्थानी भाषा की 10 हजार से अधिक पुस्तकें, पाण्डुलिपियां तथा 5000 से अधिक बहियां सुरक्षित हैं जिनमें महत्त्वपूर्ण राजकीय आदेश, राजपरिवार के रीति-रिवाज, ऐतिहासिक घटनाएं तथा राज्य और राजा से जुड़े हुए विभिन्न लोगां के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक सूचनाएँ उपलब्ध हैं।

मेहरानगढ़ दुर्ग में दर्शनीय संरचनाएँ

दुर्ग में स्थित महल

दुर्ग के भीतर स्थित खबका महल, फूल महल, मोती महल, तखत विलास, चोकेलाव, रंग महल, बिचला महल, जनाना महल, दौलत खाना आदि ऐतिहासिक भवन हैं। मोती महल महाराजा सूरसिंह (ई.1595-ई.1619) के समय में बनाया गया था। इस महल के निर्माण के लगभग ढाई सौ वर्ष बाद तख्तसिंह ने इसकी दीवारों और छतों पर सोने का आवरण लगवाया। इन छतों एवं दीवारों की चित्रकारी देखते ही बनती है। फूल महल का निर्माण अभयसिंह ने ई.1724 में करवाया था, इसमें खुदाई का काम देखने योग्य है। फूलमहल की छत बारीक सुनहरी जाली से अलंकृत है।

फतह महल ई.1708 में अजीतसिंह ने मुगलों को जोधपुर दुर्ग से बाहर निकालने की प्रसन्नता में बनवाया। बाद में इस प्रासाद में कीमती पत्थर मुक्ता-मणिक आदि रखे जाते थे। खबका महल का सही नाम ख्वाबगाह अर्थात् शयनागार है। सिंगार महल का निर्माण महाराजा बखतसिंह ने करवाया था। दीवाने आम, दीवाने खास, जनाना महलों तथा अन्य कई जगह भी कौड़ी के चिकने प्लास्टर से युक्त दीवारें एवं फर्श संगमरमर की भाँति चमकीला प्रतीत होता है।

दुर्ग में स्थित मंदिर

ई.1394 में जब चूण्डा ने मण्डोर दुर्ग पर अधिकार किया था, तब उसमें प्रतिहारों की कुलदेवी चामुण्डा की एक प्राचीन प्रतिमा स्थापित थी। जोधपुर दुर्ग की स्थापना के बाद ई.1460 में जोधा ने चामुण्डा को मण्डोर से लाकर मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थापित किया। देवी की यह प्रतिमा चमत्कारी मानी जाती है। देवी की कृपा से जोधपुर विगत पांच सौ वर्षों से किसी बड़े सकंट में नहीं पड़ा।

दुर्ग परिसर में स्थित आनन्दघनजी और मुरलीमनोहरजी के मन्दिर राजा अभयसिंह ने बनवाये। कहा जाता है कि आनन्दघनजी के मन्दिर में स्थापित बिल्लोर प्रस्तर की पांच मूर्तियां राजा सूरसिंह को मुगल बादशाह अकबर से प्राप्त हुई थीं। मुरलीमनोहरजी के मन्दिर में राजा गजसिंह ने 4 मन 22 सेर (लगभग 180 किलो) चान्दी की मूर्तियां बनवा कर स्थापित कीं।

जिस झरने के निकट योगी चिड़ियानाथ रहता था, वहाँ राव जोधा ने एक कुण्ड और एक छोटा शिव मंदिर बनवाया। वह स्थान झरनेश्वर महादेव के नाम से जाना गया। बाद में यह झरना लगभग सूख गया। दुर्ग में नागणेचिया माता का मंदिर तथा ज्वाला माता का मंदिर भी बने हुए हैं।

दुर्ग में स्थित संग्रहालय

मेहरानगढ़ दुर्ग में ई.1922 में संग्रहालय स्थापित किया गया था जिसमें जोधपुर राजपरिवार द्वारा पीढ़ियों से संचित विविध कलाकृतियां रखी गई हैं।  विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, शाही-पोशाकें, झूले, हाथियों के हौदे, पालकियां, जोधपुर शैली के चित्र, लोकवाद्य, पाग-पगड़ियां, साफे, पालने, तम्बू, मरातिब आदि भी संजोये गए हैं।

युद्ध अभियान में उपयोग किया जाने वाला महाराजा अभयसिंह का तम्बू, विश्व की अनूठी वस्तु समझा जाता है। जोधपुर नरेशों का तीन शताब्दियों पुराना सोने का सिंहासन तथा दांतों की कलाकृतियां देखते ही बनती हैं। ई.1985 में न्यूयार्क (अमरीका) में आयोजित भारत महोत्सव में इस संग्रहालय का एक तम्बू प्रदर्शित किया गया था। 17वीं शताब्दी का यह तम्बू लालडेरा कहलाता है। दुर्ग में रखा माही मरातिब मगरमच्छ के मुँह, मछली की आकृति और चन्द्रमा की कलंगी से युक्त है। यह मरातिब ई.1628 में शाहजहाँ ने जोधपुर नरेश गजसिंह को प्रदान किया था जो पांच हजारी मनसबदारों को ही दिया जाता था।

मेहरानगढ़ के भित्ति चित्र

दुर्ग में बने महलों में जोधपुर शैली का भित्ति चित्रण देखते ही बनता है। इनमें फूल महल, चोकेलाव तथा तखतनिवास के भित्तिचित्र प्रमुख हैं। इन चित्रों में पौराणिक एवं धार्मिक कथा प्रसंग, लोककथाएं, राजदरबार, शिकार, संगीत, बारहमासा तथा शृंगार आदि विषयों को उकेरा गया है। लगभग तीन शताब्दी पूर्व बने चित्र भी नवीन ज्ञात होते हैं। ‘उम्मेद विलास हिन्दुस्तानी चित्र कक्ष’ में बने जोधपुरी, जैसलमेरी, बून्दी, मेवाड़ी, बीकानेरी एवं मुगल शैलियों के चित्र, चित्रकला के अनूठे उदाहरण हैं।

मेहरानगढ़ की दुर्लभ तोपें

दुर्ग में अनेक ऐतिहासिक तोपें रखी हैं जिनमें किलकिला, शम्भुबाण, जमजमा, कड़क बिजली, बगस वाहन, बिच्छू बाण, गजनी खां, नुसरत, गुब्बार, धूड़धाणी नामक तोपें अधिक प्रसिद्ध हैं। किलकिला तोप राजा अजीतसिंह ने बनवाई थी जब वह अहमदाबाद का सूबेदार था। यह भी कहा जाता है कि यह तोप अजीतसिंह ने (ई.1715 में) विजयराज भण्डारी के माध्यम से अहमदाबाद से 1400 रुपये में क्रय करवाई थी। किलकिला तथा जमजमा तोपों का धमाका सुनकर गर्भवती महिलाओं के गर्भ गिर जाते थे। ‘शंभू बाण’ तोप राजा अभयसिंह ने अहमदाबाद के सूबेदार सरबुलन्द खाँ को (ई.1730 में) परास्त कर प्राप्त की थी। यह भी कहा जाता है कि यह तोप अभयसिंह ने सूरत से खरीद कर जोधपुर मंगवाई।

कड़क-बिजली नामक तोप राजा अजीतसिंह के समय घाणेराव से मंगवाई गई थी। इस तोप का भार 14 मन अर्थात् 560 किलो है। नुसरत तोप राजा अभयसिंह ने ई.1730 में अहमदाबाद के गवर्नर सर बुलन्द खां, सरकार खाँ तथा गजनी खाँ को परास्त कर बहुत से घोड़ों, पालकियों और तोपों के साथ छीनी थी।

ई.1607 में राजा गजसिंह ने जालोर पर चढ़ाई की। उसे जालोर के किले से गजनी खान नामक तोप प्राप्त हुई जिसे वह जोधपुर ले आया। ई.1901 में राजा सरदारसिंह के समय जोधपुर का प्रधानमंत्री सर प्रताप चीन गया। वापसी में वह एक तोप खरीद कर लाया और किलेदार मानसिंह पंवार को किले में रखने के लिये दी। आज भी यह तोप जोधपुर दुर्ग में सुरक्षित है।

राजा भीमसिंह के समय में दुर्ग में नागपली, मागवा, व्याधी, मीरक चंग, मीर बख्श, रहस्य कला तथा गजक नामक प्रमुख तोपें मौजूद थीं।

दुर्ग की प्राचीर पर ब्रिटिश काल की तोपों का संग्रह किया गया है। एक तोप पर ब्रिटिश ताज बना हुआ है। यह कई नालों वाली मशीनगन जैसी तोप है जिसकी प्रत्येक नाली पर तोपां के समान छिद्र हैं जिनके द्वारा बारूद में आग लगाई जाती थी। पंचधातु की एक तोप का मुंह मछली जैसा, पूंछ मगरमच्छ जैसी, पांव शेर के पंजों जैसे तथा गर्दन सिंह का आकार लिये हुए हैं।

यह तोप दौलतखाना में रखी हुई है। यह तोप अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भेजी जाती है। गुब्बार तोप भी दौलत खाने में रखी हुई है। अधिकतर तोपें ट्राली अथवा पहियों पर रखी हुई हैं। यें तोपें चल तोपें कहलाती हैं। बिना पहियों वाली तोपें दुर्ग की प्राचीर आदि पर लगा दी जाती थीं और अचल तोपें कहलाती थीं।

मेहरानगढ़ दुर्ग पर आक्रमण

मेहरानगढ़ का निर्माण राव जोधा ने करवया था। जोधा के जीवन काल में ही उसके सबसे बड़ा जीवित पुत्र बीका ने बीकानेर नामक एक अलग राज्य की स्थापना की। इसलिए वह बीकानेर में रहा करता था किंतु जब राव जोधा की मृत्यु हो गई और बीका के छोटे भाइयों को क्रमशः राजा बनाया जाने लगा तो राव बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया।

राव बीका का मेहरानगढ़ पर आक्रमण

इस दुर्ग को राव जोधा के बड़े पुत्र राव बीका ने जीतकर अपने अधिकार में कर लिया था किंतु राजमाता के कहने पर बीका ने जोधपुर नरेश के समस्त राजकीय चिह्न एवं कुल देवी की मूर्ति लेकर जोधपुर पर से अपना दावा छोड़ दिया और बीकानेर में जाकर राज्य करने लगा।

दुर्ग पर शत्रुओं के आक्रमण

मेहरानगढ़ दुर्ग मुस्लिम बादशाहों के लिए बड़े आकर्षण का विषय रहा। ई.1544 में शेरशाही सूरी ने इसे मालदेव से छीनकर अपने अधिकार में लिया किंतु शेरशाह की मृत्यु के बाद ई.1546 में राव मालदेव ने इसे वापिस छीन लिया। मालदेव के पुत्र चंद्रसेन के समय में ई.1563 में अकबर के सेनापति हुसैनकुली खाँ ने मेहरानगढ़ पर आक्रमण करके राठौड़ों को दुर्ग से बाहर निकाल दिया।

राव चंद्रसेन मेहरानगढ़ को पुनः प्राप्त करने के लिये जीवन भर संघर्ष करता रहा किंतु उसे सफलता नहीं मिली। अकबर ने बीकानेर के रायसिंह को मेहरानगढ़ सौंप दिया। उसके बाद मुस्लिम गवर्नरों की नियुक्त होने लगी। ई.1583 में अकबर ने यह दुर्ग मालदेव के पांचवे पुत्र और चंद्रसेन के बड़े भाई उदयसिंह (मोटा राजा) को दे दिया।

तीसरी बार ई.1678 में महाराजा जसवंतसिंह के मरने पर औरंगजेब ने मारवाड़ को खालसा कर दुर्ग अपने अधिकार में ले लिया। लगभग 30 वर्ष तक राठौड़ सरदार, वीर दुर्गादास तथा मुकुंददास खींची के नेतृत्व में दुर्ग वापस प्राप्त करने के लिये संघर्ष करते रहे किंतु औरंगजेब के जीते जी इसे हाथ न लगा सके। ई.1707 में औरंगजेब के मरते ही महाराजा अजीतसिंह ने जोधपुर दुर्ग पर आक्रमण किया। मुगलों की तरफ से नियुक्त हाकिम जाफरकुली दुर्ग छोड़कर भाग गया। इसके बाद जोधपुर का दुर्ग जोधा के वंशजों के पास ही रहा।

राजा मानसिंह ने अंग्रेज सेना के आक्रमण करने पर अपनी प्रजा को रक्तपात से बचाने के लिए दुर्ग की चाबियां कर्नल सदर लैंड को सौंप दी। सदरलैंड पांच महिनों तक अपनी सेना के साथ दुर्ग में मानसिंह के अतिथि के रूप में रहा किंतु एक अंग्रेज सिपाही द्वारा कबूतर पर गोली चला दिए जाने से राजा क्रुद्ध हो गया। अंग्रेजों को माफी मांगनी पड़ी। कुछ समय बाद अंग्रेजी सेना दुर्ग छोड़कर चली गई।

दुर्ग पर प्राकृतिक आपदाओं का प्रहार

9 अगस्त 1857 को महाराजा तख्तसिंह के समय दुर्ग के बारूदखाने में आग लग जाने से बड़े-बड़े पत्थर जोधपुर शहर पर जा गिरे। इससे 200 व्यक्ति अपने घरों में दब कर मर गये। ई.1965 के भारत-पाक युद्ध में जब पाकिस्तानी सेना द्वारा बम गिराये जा रहे थे तब लोगों ने अपने घरों के बाहर देवी के हाथ के प्रतीक के रूप में मेंहदी से भरे हाथ अंकित किये। इससे जोधपुर नगर पूरी तरह सुरक्षित रहा तथा केवल दो स्थानों पर अत्यल्प हानि हुई। 30 सितम्बर 2008 को मंदिर में हुई भगदड़ में 216 युवकों की मृत्यु हुई।

लेखकों की दृष्टि में मेहरानगढ़

ब्रिटिश लेखक रूदयार्ड किपलिंग ने लिखा है- मेहरानगढ़ का निर्माण फरिश्ते, परियों और देवताओं की करामात है।’ कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है- ‘जोधा के बेटे इस महल की खिड़कियों से ही अपनी सल्तनत पर आधिपत्य रख सकते थे, उनकी हूकूमत की हद तक इस किले से उनकी निगाह पहुँचती थी।’

एक कवि ने लिखा है-

सब ही गढां सिरोमणी अति ही ऊंचो जाण।

अनड़ पहाड़ां ऊपरां जबरो गढ़ जोधाण।।

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