मीराबाई भगवान श्रीकृष्ण के जिस विग्रह की पूजा करती थी, उस विग्रह को मीराबाई के गिरधर गोपाल कहा जाता है। वह विग्रह कौनसा है तथा इस समय कहाँ है, इस विषय पर राजस्थान के विद्वानों में विभिन्न राय देखने को मिलती हैं!
मीराबाई मेड़तिया राठौड़ों की राजकुमारी थीं। वे बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण के एक विग्रह की पूजा किया करती थीं और यह मानती थीं कि उनका विवाह भगवान श्रीकृष्ण के इसी विग्रह से हुआ है। इस विग्रह को मीराबाई गिरधर गोपाल कहती थीं।
जब मीराबाई कुछ बड़ी हुईं तो उनका विवाह मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह (सांगा) के ज्येष्ठ कुंअर भोजराज से किया गया। महाराणा सांगा ई.1527 में बाबर से लड़ने के लिए खानवा के युद्ध में गया। उससे लगभग एक साल पहले ही ई.1526 में मुसलमानों की एक सेना से युद्ध करते हुए कुंअर भोजराज का शरीर छूट गया। इसके बाद मीराबाई पूरी तरह से भगवान श्रीकृष्ण की सेवा-पूजा में रम गईं। वे साधु-संतों की संगत करतीं तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए भक्तिपदों की रचना करती थीं।
जब ई.1527 में महाराणा सांगा भी वीरगति को प्राप्त हुआ तो चित्तौड़ दुर्ग में मीराबाई को पितृवत् संरक्षण देने वाला कोई नहीं रहा। सांगा का पुत्र रतनसिंह मेवाड़ का नया महाराणा हुआ। उसने राजपरिवार की रानी को साधु-संतों के सामने बैठकर भजन गाने पर रोक लगा दी। इस पर मीराबाई चित्तौड़ का दुर्ग छोड़कर पहले तो अपने पीहर मेड़ता गई और फिर वहाँ से वृंदावन चली गईं और पूरी तरह भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में डूब गईं।
कुछ विद्वानों के अनुसार मीराबाई चित्तौड़ दुर्ग में रहकर भगवान श्रीकृष्ण के जिस विग्रह की पूजा किया करती थीं, वह विग्रह चित्तौड़गढ़ दुर्ग के एक सूने मन्दिर में आज भी प्रतिष्ठित है और यही मीरा के गिरधर गोपाल हैं। कुछ विद्वान श्रीकृष्ण के इस विग्रह को मीरा के गिरधर गोपाल की प्रतिमा नहीं मानते।
इतिहासकारों के अनुसार मीराबाई द्वारा पूजित विग्रह ईस्वी 1611 में महाराणा अमरसिंह ने पंजाब के नूरपुर के तँवर राजा वासु को प्रदान कर दी थी। राजा वासु मुगल बादशाह जहाँगीर द्वारा मेवाड़ विजय के लिए भेजा गया था। राजा वासु ने महाराणा अमरसिंह से युद्ध करने के स्थान पर उनसे मित्रता कर ली। कविराजा श्यामलदास ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है।
महाराणा अमरसिंह ने वासु के पुरोहित व्यास को मीरा के गिरधर गोपाल की मूर्ति की सेवा-पूजा के लिए मेवाड़ में झीत्या गाँव भी माफी में दिया था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भी इस तथ्य को सही माना है। ओझा के अनुसार राजा वासु ने महाराणा अमरसिंह से मीराबाई की पूजी हुई मूर्ति, जो नूरपुर के किले में ब्रजराजस्वामी के नाम से पूजी जाती है, माँगी तो महाराणा ने उसके पुरोहित को वह दे दी और उसको झीत्या नामक गाँव भी दिया जिसका ताम्रपत्र वि.सं. 1639 श्रावण बुदि 9 को कर दिया। इससे अनुमान होता है कि वासु महाराणा से मिल गया था। । [1]
वीरविनोद के लेखन के समय महाराणा सज्जनसिंह ने ई.1884 में जब इस तथ्य की जांच की तो राजा वासु के तत्कालीन उत्तराधिकारी को पत्र लिख कर पुजारी व्यास के वंशज को राजा के खानदान का पूरा इतिहास और ताम्रपत्र लेकर बुलवाया।
मेवाड़ की ख्यातों के आधार पर, महाराणा ने ताम्रपत्र एवं वासु को मूर्ति देने का तथ्य सही पाए तो पंजाब के पुजारी सुखानन्द को सिरोपाव आदि से सम्मानित कर उसे विदा किया। उसी आधार पर वासु के वंश का पूरा इतिहास तथा ताम्रपत्र की प्रतिलिपि वीरविनोद में उद्धृत की गई।
महाराणाओं की दिनचर्या लिखने वाले परम्परागत पुरोहित देवनाथ के अनुसार नूरपुर के मन्दिर की मीरा की पूजी हुई मूर्ति के पुजारी सुखानन्द व्यास महाराणा फतहसिंह के समय में भी आये थे और महाराणा ने उन्हें एक हजार रुपये प्रदान किये थे।
वीर विनोद के प्रकाशित होने के बाद भी यदि मूर्ति पंजाब से पुनः मेवाड़ में आ गई होती तो ओझा ने इसका उल्लेख उदयपुर राज्य के इतिहास में अवश्य किया होता। ओझा उस समय इतिहास विभाग में काम करते थे। संभवतः उन्होंने भी पं. सुखानन्द के ताम्रपत्र की जांच की होगी। यदि मीरा द्वारा पूजित विग्रह चित्तौड़ अथवा उदयपुर में कहीं होता तो ओझा ने अवश्य ही पुजारी सुखानन्द के ताम्रपत्र आदि का खण्डन किया होता।
चित्तौड़गढ़ के जिस मन्दिर में मीरा के गिरधर गोपाल की मूर्ति की स्थापना की जाने वाली है वह मन्दिर भी मीरा का नहीं है। चित्तौड़गढ़ के जिस मन्दिर में मीराबाई भजन-पूजन किया करती थीं वह मन्दिर महाराणा कुम्भा के महल के पास वाला होना चाहिए, जो अभी जीर्ण अवस्था में है। मीरा कृष्णभक्त थी और चित्तौड़गढ़ में यही एक ऐसा मन्दिर है जहाँ दीवारों पर कृष्ण लीलाएं अङ्कित हैं और राजमहलों के निकट भी हैं।
इस मन्दिर की प्रतिमा संभवतः उदयपुर के जगत शिरोमणि मंदिर में ले जाई गई। यह विग्रह भी पूर्णतः गिरधर गोपाल का ही है जिसकी स्थापना महाराणा जगतसिंह ने पुष्टिमार्ग पद्धति से की थी। सम्भव है यह मूर्ति चित्तौड़गढ़ की मरम्मत कराने के समय महाराणा वहाँ से ले आये हों। चित्तौड़गढ़ की मरम्मत करवाने पर औरंगजेब महाराणा जगतसिंह नाराज हो गया गया था।
वर्तमान में जिस मंदिर को मीरा का मंदिर कहा जाता है, वास्तव में वह कर्नल टॉड की भूल का परिणाम है। टॉड ने मीराबाई को महाराणा कुम्भा की राणी मान लिया था। महाराणा कुम्भा ने कुम्भश्याम और लक्ष्मीनाथ के विग्रहों की प्रतिष्ठा की थी। अतः कुम्भश्याम के पास वाला यह मन्दिर लक्ष्मीनाथ का होना चाहिये।
जयपुर वाले आम्बेर के जगत शिरोमणि मंदिर को मीराबाई के गिरधर गोपाल का विग्रह मानते हैं। नाथद्वारा के वनमालीजी के मन्दिर के गिरधर गोपाल को भी मीरा का आराध्यदेव माना जाता है किन्तु इन दोनों मंदिरों के विग्रहों के सम्बन्ध में अभी तक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिले हैं। [2]
उदयपुर के जगत शिरोमणि मन्दिर की प्रशस्ति में लिखा है कि पहले चित्तौड़ में जो मूर्ति मीरा द्वारा सेवित थी उसे महाराणा जगतसिंह ने मन्दिर बना उदयपुर में स्थापित कर दी। अब तक के मिले कुल शिलालेखों में यही एक ऐसी प्रशस्ति है जिसमें मीराबाई के गिरधर गोपाल का उल्लेख मिला है। यह प्रशस्ति इस प्रकार है-
पूर्व श्री चित्रकुटे क्षिति बिदित गिरो बप्प शेशोद वंशः क्षोणी भृमन्देपाट द्विदश सहधरादुर्ग सन्सुल भूमो। मीरा राज्ञी शिररस्थ स्तदनु नृप जगतसिह पुष्ठचा स्वरीत्या शीर्षे स्वस्थापितो। साबुदयपुरवरे मन्दिरे स्वर्ण श्रृंगे। [3]
यह संभव है कि पंजाब के पुजारी को दी गई गिरधर गोपाल की प्रतिमा तथा उदयपुर के जगतमंदिर में प्रतिष्ठित गिरधर गोपाल की प्रतिमा, दोनो ही मीराबाई द्वारा पूजित हों। मीराबाई के चले जाने के बाद एक प्रतिमा तो पंजाब चली गई तथा दूसरी प्रतिमा उदयपुर आ गई। क्योंकि दोनों ही प्रतिमाओं के सम्बन्ध में मिलने वाले विवरण पूर्णतः सत्य हैं।
[1] ओझा, राजपूताने का इतिहास, पृष्ठ 798.
[2] ब्लवंतसिंह मेहता, राजस्थान में भागवत भक्ति और मीरा के गिरधर गोपाल, राजस्थान हिस्ट्री कांगेस, पृ. 224-227.
[3] वीर विनोद, पृष्ठ 2052