Monday, October 14, 2024
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मण्डोर दुर्ग

मण्डोर दुर्ग के खण्डहर, जोधपुर नगर से लगभग 9 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में मण्डोर नामक उपनगर में स्थित हैं। इस नगर का प्राचीन नाम ‘माण्डव्यपुर’ है जो माण्डव्य ऋषि की तपस्या स्थली के रूप में प्रसिद्ध है। लोक में प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार मण्डोर (प्राचीन नाम मण्डोवर) का राजा मंदोदर (मय दानव) था जिसने इस नगर का निर्माण किया और अपनी बेटी मंदोदरी का विवाह इसी नगर में राक्षसों के राजा रावण के साथ किया। वह स्थान अब रावण की चंवरी कहलाता है।

नागों द्वारा दुर्ग निर्माण

मण्डोर दुर्ग गुप्तों से भी पहले के काल में अरावली की दुर्गम पहाड़ियों के बीच बहने वाली नागाद्रि नदी के तट पर स्थित था। नदी के नाम से अनुमान होता है कि नागों ने मण्डोर दुर्ग का निर्माण आरम्भ किया होगा और वे ही यहाँ के प्रारम्भिक शासक रहे होंगे। इस क्षेत्र में नागों का आगमन भगवान श्रीकृष्ण तथा अर्जुन द्वारा खाण्डव वन के दहन के पश्चात् होना अनुमानित किया जाता है।

गुप्तों के अधीन

समुद्रगुप्त एवं उसके पुत्र चंद्रगुप्त (द्वितीय) ने पश्चिमी भारत के नागों को परास्त करके अपने अधीन किया था। संभवतः उसी समय यह दुर्ग गुप्तों के अधीन चला गया।

हूणों के अधीन

छठी शताब्दी ईस्वी में गुप्तों से यह सम्पूर्ण क्षेत्र हूणों ने छीन लिया। हूणों के सिक्के बड़ी संख्या में इस क्षेत्र में मिले हैं। अतः अनुमानित किया जा सकता है कि मण्डोर का दुर्ग भी हूणों के अधिकार में चला गया होगा।

परिहारों के अधीन

सातवीं शताब्दी में ब्राह्मण हरिश्चंद्र के चार पुत्रों- भोगलभट्ट, कक्कुक, रज्जिल और दद्द ने मण्डोर का राज्य जीतकर अपने अधीन किया। उन्होंने मण्डोर दुर्ग किससे छीना, कुछ कहा नहीं जा सकता। ई.831 का जोधपुर शिलालेख तथा ई.837 का घटियाला शिलालेख प्रतिहारों को हरिश्चन्द्र नामक एक ब्राह्मण की संतान बताता है।

हरिश्चन्द्र को रोहिलाद्धि भी कहते थे। उसकी एक पत्नी ब्राह्मणी थी तथा दूसरी रानी भद्रा था। भद्रा क्षत्रिय कुल की थी। ब्राह्मण स्त्री से ब्राह्मण प्रतिहार तथा क्षत्रिय स्त्री से क्षत्रिय प्रतिहार उत्पन्न हुए। भद्रा से उसके चार पुत्र हुए जो भोगभट्ट, कक्कुक, राज्जिल और दद्द नाम से विख्यात हुए। इन चारों ने मिलकर माण्डव्यपुर (मण्डोर) को जीता और उसके चारों ओर प्राकार (कोट) बनवाया। हरिश्चन्द्र का समय छठी शताब्दी से आरम्भ होता है।

रज्जिल हरिश्चन्द्र का तीसरा पुत्र था, फिर भी मण्डोर की वंशावली इसी से प्रारंभ होती है। रज्जिल का पुत्र नरभट्ट हुआ जो रज्जिल के बाद मण्डोर की गद्दी पर बैठा। इसने पेल्लापेल्लि की उपाधि धारण की। नरभट्ट के बाद नरभट्ट का पुत्र नागभट्ट (प्रथम) मण्डोर का राजा हुआ। इसने ई.730 से 760 तक राज्य किया।

नागभट्ट के बाद मण्डोर का शासक भोज तथा जालोर-भीनमाल का शासक कक्कु एक-दूसरे से स्वतंत्र रह कर शासन करते थे। नागौर जिले का मेड़ता क्षेत्र मण्डोर के प्रतिहारों के अधीन आता था। भोज की मृत्यु के पश्चात् तात का पुत्र यशोवर्धन मण्डोर की गद्दी पर बैठा।

यशोवर्धन के बाद क्रमशः चण्डुक, शिलुक, झोट, भिल्लादित्य तथा कक्क मण्डोर के राजा हुए। कक्क भीनमाल के प्रतिहार शसक वत्सराज का सामन्त था।

कक्क के बाद उसका भतीजा कक्कुक (कक्कुक, कक्क के भाई बाऊका का पुत्र था) मण्डोर की गद्दी पर बैठा। उसका एक स्तम्भ मण्डोर में तथा एक स्तम्भ घटियाला में प्राप्त हुआ है। मण्डोर दुर्ग मरुस्थल में प्रतिहारों की शक्ति का प्रतीक बन गया। इस काल में यह दुर्ग चारां तरफ ऊँची अरावली पहाड़ियों से घिरा हुआ हुए होने से पर्याप्त दुर्गम एवं शत्रुओं के आक्रमणों को झेलने में सक्षम रहा होगा। आठवीं शताब्दी के बाद के किसी काल खण्ड का एक अभिलेख इस दुर्ग के निकट प्राप्त हुआ है जिसमें लिखा है- ‘मांडवस्याश्रमे पुण्ये नदीनिर्झर शोभते।’ इससे स्पष्ट है कि उस समय तक यह क्षेत्र नदियों एवं झरनों से सम्पन्न था।

बिलाड़ा तहसील के बुचकला गांव से ई.816 का एक शिलालेख मिला है जिसमें भीनमाल के प्रतिहार राजा वत्सराज को परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वत्सराज कहकर पुकाया गया है। इससे अनुमान होता है कि मण्डोर के प्रतिहार भीनमाल के प्रतिहारों के अधीन सामंत थे। वि.सं. 894 (ई.837) के एक शिलालेख के अनुसार पहले यहाँ (मण्डोर में) नागवंशी क्षत्रियों का राज्य था जिन्हें पराजित कर प्रतिहारों ने अपना राज्य स्थापित किया और यहाँ एक दुर्ग का निर्माण किया।

परमारों के अधीन

ईसा की दसवीं शताब्दी तक प्रतिहार साम्राज्य की चूलें हिल गईं और दसवीं से बारहवीं शताब्दी तक चौलुक्य, परमार तथा चौहान राजवंश अपनी सत्ता एवं शक्ति बढ़ाने के लिए आपस में लड़ते रहे। सम्पूर्ण प्रतिहार साम्राज्य इन तीनों शक्तियों (चौलुक्य, परमार और चौहान) ने बांट लिया। प्रतिहार शासक, स्थान-स्थान पर इन तीनों शक्तियों के अधीन सामंत बनकर रह गए।

परमारों में धरणीवराह पराक्रमी राजा हुआ। कहा जाता है कि उसने मारवाड़ को जीतकर उसके नौ कोट (दुर्ग) अपने भाइयों में बांट दिए। इन नौ किलों के अधीन आने वाली भूमि नवकोटि मारवाड़ कहलाई। यद्यपि धरणीवराह द्वारा मारवाड़ को जीतकर नौ भाइयों में बांटे जाने को अधिक विश्वसनीय नहीं माना जाता है। फिर भी मान्यता है कि नौ किलों में से मण्डोर, सांवत के हिस्से में आया।

नाडौल के चौहानों के अधीन

नाडोल के चौहानों में से किसी शासक ने बारहवीं शताब्दी में मण्डोर पर अधिकार कर लिया। मण्डोर से चौहान शासक रायपाल का एक खंडित लेख प्राप्त हुआ है। रायपाल नाडोल शाखा के संस्थापक लाखा की 15 वीं पीढ़ी में था।

नाडोल शाखा की 18वीं पीढ़ी में आल्हण हुआ। उसने अपने पुत्र गजसिंह को मण्डोर का शासक बनाया। आल्हण के बाद कल्हण नाडोल की गद्दी पर बैठा। उसने गजसिंह को मण्डोर से हटाकर अपने पुत्रों महाराज चामुंडराज को विक्रम संवत् 1227 (ई.1170) में, सिंह विक्रम को वि.सं. 1241 (ई.1184) में तथा तीसरे पुत्र सोढलदेव को वि.सं. 1250 (ई.1193) में मण्डोर का गर्वनर बनाया।

मुसलमानों के अधीन

ई.1206 में गजनी में मुहम्मद गौरी की मृत्यु होने तथा कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा दिल्ली में स्वतंत्र दिल्ली सल्तनत की स्थापना किए जाने के बाद उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों पर मुसलमानों के आक्रमण होने लगे और दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों तथा उनके गवर्नरों ने धीरे-धीरे राजस्थान के बहुत से किलों पर अधिकार जमा लिया। मण्डोर का दुर्ग भी इन आक्रमणों से अछूता नहीं रहा। इन्हीं आक्रमणों के दौरान मण्डोर, नाडौल के चौहानों के हाथ से निकल कर मुसलमानों के अधिकार में चला गया।

जालोर के चौहानों के अधीन

जालोर के सोनगरा चौहानों की शाखा की स्थापना ई.1181 में नाडौल के चौहान राजकुमार कीर्तिपाल द्वारा की गई थी। इसी शाखा में वि.सं. 1262 (ई.1205) में चौहान शासक उदयसिंह जालोर की गद्दी पर बैठा। उदयसिंह के राज्य में नाडोल, जालोर, मण्डोर, बाड़मेर, सूराचंद्र, राठराड़, खेड़ आदि प्रांत बताए गए हैं। अर्थात् ई.1205 के बाद के किसी वर्ष में मण्डोर का दुर्ग जालोर के चौहानों के अधीन आ गया। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार जालोर के चौहान शासक उदयसिंह ने मुस्लिम शासक आरामशाह से नाडौल तथा मण्डोर के दुर्ग छीने।

मुसलमानों और चौहानों में जोर आजमाइश

ई.1217 में इल्तुतमिश के पुत्र नसीरूद्दीन महमूद ने मण्डोर जीत लिया किंतु जालौर के चौहान शासक उदयसिंह ने इसे वापिस छीन लिया। ई.1226 में इल्तुतमिश ने पुनः चौहानों से मण्डोर छीन लिया। ई.1242 तक मण्डोर मुसलमानों के अधीन रहा। ई.1242 में अल्लाद्दीन मसूदशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा किंतु मलिक इजुद्दीन किशलू खान ने अपने आप को दिल्ली का शासक घोषित कर दिया। किशलू खान की जागीरी में मण्डोर, अजमेर और नागौर की जागीरें थीं। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर जालौर के चौहान शासक उदयसिंह ने मुसलमानों से फिर से मण्डोर छीन लिया। इस बार ई.1294 तक यह चौहानों के अधीन रहा।

खिलजियों का अधिकार

ई.1290 में जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत के तख्त पर बैठा। उसने अपने भतीजे तथा दामाद अल्लाउद्दीन खिलजी को हिन्दू राज्यों पर आक्रमण करने के लिये भेजा। अल्लाउद्दीन खिलजी ने ई.1291 में रणथम्भौर को जीतकर ई.1292 में मण्डोर पर आक्रमण किया। इस समय मण्डोर दुर्ग जालोर के चौहान शासक सामन्तसिंह के अधिकार में था। उसके आदमी मण्डोर की रक्षा नहीं कर सके। अलाउद्दीन ने मण्डोर दुर्ग पर अधिकार करके यहाँ एक मुस्लिम गवर्नर नियुक्त कर दिया। कहीं-कहीं यह तिथि ई.1294 भी मिलती है। उसने मण्डोर दुर्ग में एक मस्जिद का निर्माण करवाया जो आज भी स्थित है। इसमें एक शिलालेख भी लगा हुआ है।

प्रतिहारों का पुनः अधिकार

जालोर के चौहान शासक रावल सामंतसिंह को मण्डोर दुर्ग का हाथ से निकलना बहुत खलता था। ई.1301 में उसने मण्डोर पर आक्रमण करके मुस्लिम गवर्नर को मार भगाया तथा फिर से दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस बार उसने मण्डोर दुर्ग पर प्रतिहार राजपूतों को गवर्नर नियुक्त किया। इस प्रकार मण्डोर दुर्ग एक बार पुनः अपने पुराने स्वामीयों के पास आ गया। सात वर्ष तक प्रतिहार मण्डोर दुर्ग की रक्षा करते रहे।

पुनः दिल्ली सल्तनत के अधीन

ई.1308 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने फिर से मण्डोर दुर्ग छीन लिया। इस बार ई.1394 तक मण्डोर मुसलमानों के पास रहा।

राठौड़ों का अधिकार

मुसलमानों को मण्डोर दुर्ग में बैठे हुए 85 वर्ष से अधिक हो गए थे। फिर भी मण्डोर क्षेत्र में परिहार राजपूतों की छोटी-छोटी जागीरें बनी रहीं। मण्डोर का मुसलमान गवर्नर इन परिहार राजपूतों को तंग किया करता था और उनसे मनमाने कर लेता था। मण्डोर का गवर्नर एबक खां, गुजरात के सूबेदार जाफर खां के अधीन था।

ई.1394 में एबक खां ने अपने इलाके के सारे भोमियों और जागीरदारों से सामान्य वार्षिक कर के अतिरिक्त पांच सौ गाड़ी घास की भी मांग की और इसके लिए उसने जागीरदारों को बहुत तंग किया। बालेसर गांव के मुखिया उगमसी ने दुष्ट एबक खां को सबक सिखाने की योजना बनाई।

उसने राठौड़ों के उभरते हुए राजकुमार चूण्डा की सहायता प्राप्त की तथा घास की पांच सौ गाड़ियां भरवाकर घास के नीचे 2500 योद्धा छिपा दिये। जब गाड़ियां किले के अंदर पहुंचीं तो हिंदू सैनिक बाहर निकल आए और उन्होंने मुसलमानों को गाजर-मूली की तरह काट कर फैंक दिया। किले पर हिंदुओं का अधिकार हो गया।

रेगिस्तान के इतिहास में यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। ईंदा परिहार नहीं चाहते थे कि कठिनाई से हाथ आया हुआ मण्डोर दुर्ग फिर से मुसलमानों के हाथों में चला जाये किंतु उनके पास इतनी शक्ति नहीं थी कि वे मण्डोर को अपने अधीन रख सकें।

इसलिये ईंदों ने विचार किया कि मण्डोर का दुर्ग अपने पास न रखकर शक्ति का प्रतीक बन चुके राठौड़ों को दे दिया जाये। ईंदों के राजा, राय धवल ने राठौड़ राजकुमार चूण्डा की शक्ति बढ़ाने के लिये अपनी पुत्री का विवाह चूण्डा के साथ करके मण्डोर का दुर्ग दहेज में दे दिया। इस सम्बन्ध में एक सोरठा कहा जाता है-

      ईदां रौ उपकार कामधज मत भूले कदे।

      चूंडौ चंवरी चाढ, दी मंडोवर दायजे।

अर्थात् – इंदा परिहारों को कमधज (राठौड़) कभी नहीं भूलेंगे क्योंकि इंदों ने चूंडाजी राठौड़ को अपनी पुत्री ब्याह कर मण्डोर दहेज में दिया था।

इस प्रकार मण्डोर राठौड़ों के अधीन आ गया तथा 1444 गांवों की जागीरी भी उन्हें स्वतः ही प्राप्त हो गई। ज्योतिषियों ने चूण्डा का राज्याभिषेक कर दिया और वह मण्डोर का राव कहलाने लगा। यह घटना ई.1394 के लगभग घटित होनी अनुमानित है।

जब चूण्डा के ताऊ रावल मल्लीनाथ को ज्ञात हुआ कि चूण्डा ने मण्डोर पर अधिकार किया है तब उसने मण्डोर आकर चूण्डा की प्रशंसा की तथा उससे मेल कर लिया। मण्डोर प्राप्त हो जाने पर चूण्डा आसपास के मुसलमानों को खदेड़ना आरम्भ किया। उसने खाटू, डीडवाना, सांभर, अजमेर तथा नाडौल आदि स्थानों से दिल्ली सल्तनत के मुसलमान अधिकारियों को मार भगाया।

तुगलकों का आक्रमण

इस काल में दिल्ली के तख्त पर तुगलक शासन कर रहे थे तथा उनकी ओर से गुजरात में गवर्नर जफर खाँ नियुक्त था। मण्डोर का दुर्ग हाथ से निकल जाना तुगलकों के लिये बड़ा झटका था। जब गुजरात के सूबेदार को ज्ञात हुआ कि चूण्डा मुसलमानों को उजाड़ रहा है तो वह सेना लेकर मण्डोर पर चढ़ आया।

चूण्डा के लिये यह जीवन-मरण का प्रश्न था। उसकी प्रतिष्ठा और भविष्य इसी दुर्ग पर निर्भर करते थे। इसलिये उसने जी-जान से दुर्ग की रक्षा की। परिहारों ने भी उसका पूरा साथ दिया। इस कारण गुजरात का सूबेदार जफरखां मण्डोर दुर्ग की लम्बी घेराबंदी के बाद भी चूण्डा को परास्त नहीं कर सका। अंत में वह चूण्डा से नाममात्र की शपथ लेकर कि अब चूण्डा मुसलमानों को तंग नहीं करेगा, वापस गुजरात लौट गया।

रणमल का मण्डोर पर अधिकार

ई.1423 में राव चूण्डा की मृत्यु हो गई। चूण्डा ने मण्डोर दुर्ग अपने बड़े पुत्र रणमल को न देकर अपनी प्रिय भटियाणी रानी किशोर कंवरी के पुत्र कान्हा को दिया था और स्वयं नागौर दुर्ग में रहता था। इसलिये राजकुमार रणमल, मण्डोर अथवा नागौर में न रहकर, अपनी बहिन हंसाबाई के पास मेवाड़ में रहता था।

जब नागौर दुर्ग में भाटियों से लड़ते हुए राव चूण्डा की मृत्यु हो गई तो रणमल स्वयं मेवाड़ से मण्डोर आया और उसने अपने हाथों से मण्डोर दुर्ग में अपने सातेले भाई कान्हा का राजतिलक किया। कान्हा केवल 11 माह राज्य कर के मर गया तथा कान्हा का छोटा भाई सत्ता मण्डोर का राजा हुआ जो चूण्डा के चौदह पुत्रों में तीसरे नम्बर पर था और नेत्रों से अंधा था।

कहा जाता है कि सत्ता दिन रात शराब में डूबा रहता था तथा उसका पुत्र नरबद तेज स्वभाव का होने के कारण प्रायः लोगों से लड़ता-झगड़ता रहता था। चूण्डा के अन्य पुत्र मण्डोर दुर्ग पर सत्ता का अधिकार अनुचित समझते थे। उन्होंने रणमल को समझाया कि पिताजी ने मण्डोर कान्हा को दिया था न कि सत्ता को। अब जबकि कान्हा की मृत्यु हो गई है तो राज्य पर अधिकार रणमल का है न कि सत्ता का।

रणमल ने अपने भाइयों का अनुरोध स्वीकार कर लिया तथा मण्डोर दुर्ग पर आक्रमण किया। सत्ता का पुत्र नरबद लड़ने के लिये आया किंतु परास्त हो गया। इस प्रकार रणमल ने मण्डोर दुर्ग एवं राज्य पर अधिकार कर लिया।

मण्डोर पर महाराणा कुम्भा का अधिकार

ई.1438 में मेवाड़ी सरदारों ने महाराणा कुम्भा की सहमति से चित्तौड़ दुर्ग में मण्डोर के राव रणमल की हत्या कर दी। उस समय रणमल का दूसरे नम्बर का पुत्र जोधा चित्तौड़ दुर्ग के बाहर अपने घोड़ों और सिपाहियों के साथ मौजूद था। वह अपने 700 सिपाहियों एवं सामंतों को लेकर चित्तौड़ से मण्डोर की तरफ भाग खड़ा हुआ तथा स्थान-स्थान पर मेवाड़ी सेना को छकाता हुआ अंत में केवल सात आदमियों के साथ मण्डोर तक पहुंचने में सफल रहा।

जोधा मण्डोर पहुंच तो गया किंतु दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सका। कुंभा के सेनापतियों सिसोदिया अक्का तथा आहाड़ा हिंगोला ने मण्डोर पर अधिकार कर लिया। राव जोधा 15 साल तक मण्डोर दुर्ग पर लगातार आक्रमण करता रहा किंतु मण्डोर पर अधिकार नहीं कर सका।

जोधा का मण्डोर पर अधिकार

पन्द्रह वर्ष तक चले रक्त-रंजित संघर्ष के बाद ई.1453 में राव जोधा अपनी भटियाणी मौसी से कुछ घोड़े मांगकर लाया और एक रात अचानक मण्डोर दुर्ग पर चढ़ बैठा। जोधा ने सिसोदिया अक्का और अहाड़ा हिंगोला को मारकर मण्डोर पर फिर से अधिकार कर लिया। मारवाड़ के प्रसिद्ध लोक देवता वीर हड़बू सांखला भी इसी लड़ाई में जोधा की तरफ से लड़ते हुए काम आए।

मण्डोर दुर्ग की अप्रासंगिकता

जिस समय मण्डोर दुर्ग की स्थापना की गई थी, यह पूरा क्षेत्र ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ होगा तथा शत्रु के द्वारा सहज ही जीता नहीं जा सकता होगा किंतु लगभग नौ शताब्दियों की दीर्घ अवधि में तेज वर्षा की चोट से और बाद के युग में चलने वाली रेतीली आंधियों की रगड़ से, इस क्षेत्र की पहाड़ियां घिस-घिस कर छोटी होती चली गईं।

राव जोधा का काल आते-आते न केवल मण्डोर की पहाड़ियां बहुत छोटी हो गई होंगी अपितु यह दुर्ग भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था को प्राप्त हो गया होगा तथा शत्रुओं के आक्रमण झेलने में नितांत असक्षम हो गया होगा। यही कारण रहा होगा कि यह दुर्ग हिन्दुओं के हाथों से निकलकर बड़ी आसानी से मुसलमानों के हाथों में चला गया था।

राव चूण्डा ने भी इसे सरलता से मुसलमानों से छीन लिया था। राव रणमल की हत्या के बाद मेवाड़ वालों ने भी इसे सरलता से जीत लिया था। यहाँ तक कि स्वयं जोधा भी इसे बहुत कम साधनों से जीतने में सफल रहा था। वर्षा का औसत घट जाने के कारण दुर्ग में पानी की भी कमी रहने लगी होगी।

उस युग में राजा, राजधानी, कोष, सेना और राजपरिवार की सुरक्षा दुर्ग की अजेयता पर अत्यधिक निर्भर करती थी। दुर्ग की अजेयता उसकी दुर्गम भौगोलिक स्थिति पर आधारित होती थी। इन सब बातों पर विचार करके ही जोधा ने मण्डोर दुर्ग को राजधानी के लिये अनुपयुक्त पाया होगा और उसने एक नई राजधानी बसाने का निर्णय लिया होगा जो एक अजेय दुर्ग के भीतर सुरक्षित रह सके।

नये दुर्ग की स्थापना के पीछे इतिहासकारों का मत है कि रणमल के बड़े पुत्र राजकुमार अखैराज ने जोधा के समर्थन में अपने अधिकार का त्याग किया था। इसलिये अखैराज या उसके उसके वंशज, राव जोधा की मृत्यु के बाद मण्डोर राज्य पर अधिकार जता सकते थे जैसे कि रणमल ने कान्हा की मृत्यु के बाद सत्ता को हटाकर मण्डोर पर अधिकार कर लिया था, क्योंकि रणमल ने कान्हा के पक्ष में राज्याधिकार का त्याग किया था न कि सत्ता अथवा किसी भी अन्य राजकुमार के पक्ष में। अतः मण्डोर के स्थान पर जोधपुर को राजधानी बनाये जाने से अखैराज अथवा उसके वंशजों का राज्याधिकार क्षीण हो जाना स्वाभाविक था।

मण्डोर दुर्ग इतिहास के नेपथ्य में

ई.1459 में जोधा ने मण्डोर दुर्ग को असुरक्षित जानकर अपने लिये मेहरानगढ़ नामक दुर्ग बनवाया। मण्डोर दुर्ग की अधिष्ठात्री देवी चामुण्डा को भी जोधा, मेहरानगढ़ ले गया जो कि परिहारों की कुल देवी थी तथा उनके समय से ही दुर्ग में विराजमान थी। इसके बाद मण्डोर दुर्ग वीरान हो गया और इतिहास के नेपथ्य में चला गया। वीरान दुर्ग खण्डहर में बदलने लगा और स्थानीय लोग उसके दरवाजे तथा अन्य कीमती सामग्री उठाकर ले गये।

मण्डोर दुर्ग की खुदाई

दुर्ग के खण्डहरों के भीतर प्रतिहार राजा नाहड़ राव (संभवतः नागभट्ट द्वितीय) की मूर्ति खुदी हुई है। इस स्थान के ऊपर गुप्त वंश के राजाओं के समय का अभिलेख है। इसके ठीक बाहर की तरफ दसवीं ईस्वी का एक खण्डित शिलालेख है जिसमें प्रतिहार कक्कुक के पुत्र का उल्लेख है।

पुरातत्व विभाग द्वारा इस दुर्ग स्थल की खुदाई करवाई गई है। भग्न किले की खुदाई में एक प्राचीन मंदिर का गर्भगृह, सभा मंडप एवं परिक्रमा स्थल सहित नौंवी-दसवीं शताब्दी की दुर्लभ प्रतिमा सहित सैकड़ों कलात्मक पत्थरों के अवशेष निकले हैं। एक दुर्लभ गजलक्ष्मी मंदिर भी प्राप्त हुआ है। मंदिर के फर्श के नीचे सीढ़ियां भी मिली हैं। इनकी खुदाई होनी बाकी है।

      इस स्थान से लगभग आधा मील दूर एक गुप्तकालीन मन्दिर के अवशेष मिले हैं जिसके तोरण की कारीगरी देखते ही बनती है। लगभग चौथी शताब्दी ईस्वी के इस तोरण द्वार पर भगवान कृष्ण की विविध लीलाओं का अंकन है। इस तोरणद्वार के निचले भाग के 12-13 फुट लम्बे एवं 2 फुट चौड़े स्तम्भ प्राप्त हुए हैं जिन्हें जोधपुर संग्रहालय में कला निधि के रूप में रखा गया है। गोवर्धन-धारण का प्रसंग बहुत ही सुन्दर विधि से उकेरा गया है।

गोवर्धन शिखर पर हिंस्रक जन्तु और अश्वमुखी जन्तु दिखाये गए हैं। बीच के भाग में मोर-मुकुटधारी श्रीकृष्ण ने अपनी एक भुजा पर पर्वत उठा रखा है और उसके नीचे ब्रज के समस्त प्राणी एवं गोधन अंकित हैं। इन्द्र द्वारा अतिवृष्टि किए जाने का चित्रण भी बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। श्रीकृष्ण द्वारा दही खाना, शकटासुर का वध करना तथा खिलौनों से खेलना भी इसी प्रस्तर खण्ड पर अंकित हैं। दूसरे खण्ड पर धेनुकासुर वध, कालिय दमन, श्रीदामा आदि बाल सखाओं के साथ क्रीड़ा, अरिष्टासुर का वध तथा केशीनिसूदन रूप का अंकन किया गया है।

मन्दिर के ऊपरी खण्ड में जाने के लिये तीन ओर सीढ़ियां बनी हुई थीं, जिनके खण्डहर अब भी देखने को मिल सकते हैं। मुख्य गर्भगृह के निर्माण में विशाल शिलाखण्डों का उपयोग किया गया है जिन्हें जोड़ने के लिये चूना, गारा अथवा अन्य कोई योजक पदार्थ प्रयुक्त नहीं हुआ है। दीवार का बाहरी भाग बेल-बूटों, पक्षियों तथा कीर्ति मुख से सज्जित है। इस मन्दिर का निर्माण विभिन्न चरणों में किया गया प्रतीत होता है जिससे अलग-अलग काल खण्ड की स्थापत्य कला के दर्शन होते हैं।

मन्दिर की स्थापत्य कला को देखकर अनुमान होता है कि यह पहले वैष्णवों के हाथ में था किन्तु बाद में शैव मत वालों के अधिकार में चला गया। कुछ शिलाखण्डों पर मरुस्थलीय परिस्थितजन्य प्रसंगों का सुन्दर अंकन हुआ है। एक प्रस्तर फलक पर सेना का प्रयाण दिखाया गया है जिसमें आगे के भाग में अश्वारोही तथा उनके पीछे पदाति सेना चित्रित है तो दूसरी ओर ऊंट सेना दिखाई गई है।

ऊंटों द्वारा शकटों को खींचा जा रहा है जिसमें सवार भी बैठे हैं। निकट ही कुएं से अरहट (रहट) द्वारा मृत्तिका पात्रों में भरकर पानी निकाला जा रहा है। पास के कुण्ड में एक ऊंट पानी पी रहा है तथा दूसरा ऊंट अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा है। इस दृश्य को दिखाने वाला एक प्रस्तर खण्ड मण्डोर के राजकीय संग्रहायल में भी रखा गया है।

इस मन्दिर के उत्तर-पूर्व में रावण की चौरी (चंवरी) बनी हुई है। यहाँ स्थित एक शिला पर गणपति तथा अष्टमातृकाओं की प्रतिमाएं खुदी हुई हैं। यहाँ पर शिशु विहीन मातृकाओं की स्थानिक मुद्रा तथा उनके हाथों की संख्या विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रत्येक मातृका की ऊंचाई लगभग 1 फुट है। कला की दृष्टि से ये मूर्तियां भारतीय कला के इतिहास में अद्वितीय हैं क्योंकि एक साथ स्थानक मुद्रा में तथा 2, 4, 2, 4, 2, 4, 2 तथा 8 हाथों वाली मातृकाओं का तक्षण कम ही दृष्टिगोचर होता है।

इन मूर्तियों के शीश तथा हाथों के अधिकांश भाग खण्डित हो गए हैं। मातृकाओं को प्रायः शिशुओं के साथ प्रदर्शित करने की परम्परा रही है परन्तु इन मातृकाओं की गोद में शिशुओं का प्रदर्शन नहीं किया गया है। गणेश के बायें हाथ की ओर ही समस्त मातृकाएं एक पंक्ति में उत्कीर्ण हैं। इन मूर्तियों के हाथों में कंकण, भुजाओं में भुजबंद, चरणों में कड़ियां, कानों में कुण्डल तथा कमर पर कमरबन्ध स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।

पुरातत्व विभाग के संरक्षण में

वर्तमान में मण्डोर दुर्ग के खण्डहर भारतीय पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण में है। प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं स्थापत्य की दृष्टि से यह दुर्ग अत्यंत महत्वपूर्ण है। पूरी तरह टूट-फूट जाने के कारण इसे उल्टा किला भी कहते हैं।

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