थूण की गढ़ैया अब अस्तित्व में नहीं है, इसका केवल इतिहास तथा एक नक्शा ही बचा है। यह गढ़ैया मुगलों के प्रतिरोध का मजबूत प्रतीक बन गई थी।
सौंख, सिनसिनी तथा सोघर हाथ से निकल जाने के बाद चूड़ामन जाट ने स्वर्गीय राजाराम की दौलत का उपयोग करके थूण की गढ़ैया बनवाई। थूण की गढ़ैया डीग से 11 मील पश्चिम में थी तथा कीचड़ एवं दलदली क्षेत्र में घने जंगल के बीच स्थित थी। डीग एवं गोवर्धन के मध्य में तथा मथुरा के पश्चिम में होने के कारण थूण की गढ़ैया की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण बन गई।
इसके चारों ओर एक खाई बनाई गई जिसमें हर समय पानी भरा रहता था। यह खाई इतनी गहरी थी कि इसमें भूगर्भ से जलधाराएं आती थीं। घने जंगल में स्थित होने के कारण मुगल सेना के लिये यहाँ तक पहुंचना अत्यंत ही दुष्कर कार्य था।
ई.1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो जाने के बाद चूड़ामन ने अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली और बादशाह जहांदारशाह के हाथियों और खजाने को लूट लिया। उसने थूण दुर्ग में अपनी शक्ति एकत्रित की और शाही खजानों, व्यापारिक कारवों तथा अन्य लोगों को लूटने लगा।
जब चूड़ामन का आतंक बढ़ गया तब ई.1716 में बादशाह फर्रूखसीयर ने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह को विपुल धन एवं विशाल सेना देकर चूड़ामन के विरुद्ध भेजा। जब सवाई जयसिंह, नरवर के राजा गजसिंह, कोटा के महाराव भीमसिंह तथा बूंदी के महाराव बुधसिंह को लेकर थूण की गढ़ैया के निकट पहुंचा तो चूड़ामन ने दुर्ग में स्थित व्यापारियों से कहा कि वे अपना धन एवं सामग्री गढ़ैया में छोड़कर गढ़ैया से बाहर चले जायें। यदि युद्ध के बाद वह जीता तो उनके सामान की भरपाई कर देगा।
व्यापारी बुरी तरह लुट-पिटकर गढ़ैया से बाहर निकल गये। इसके बाद चूड़ामन ने इस क्षेत्र से होकर जाने वाले व्यापारियों को भी लूट लिया। चूड़ामन ने इतना घी, नमक, तमाखू, अनाज, जलाऊ लकड़ी तथा कपड़ा इकट्ठा कर लिया कि वह बीस वर्ष तक मुगलों और राजपूतों से लड़ सकता था।
कच्छवाहा राजा सवाई जयिंसंह, अपने मित्र राजाओं की सेनाओं के साथ सात माह तक थूण का दुर्ग घेरे रहा किंतु चूड़ामन को थूण की गढ़ैया से बाहर नहीं निकाल सका। इस पर मुगल साम्राज्य की पूरी ताकत थूण के विरुद्ध झौंक दी गई तथा थूण के चारों ओर का जंगल काटकर साफ करके थूण के आसपास की बहुत सी जाट गढ़ैयाएं नष्ट कर दी गईं।
चूड़ामन के पास दस से बारह हजार सैनिक थे जिनके बल पर चूड़ामन मुगलों एवं राजपूत राजाओं की सेनाओं को थूण से दूर रखने में सफल रहा। इस प्रकार दो वर्ष बीत गए और इस अभियान पर मुगल बादशाह के दो करोड़ रुपये खर्च हो गये। अंत में ई.1718 में दोनों पक्षों (जाटों और मुगलों) में समझौता हुआ।
इस समझौते से महाराज जयसिंह को दूर रखा गया। इस समझौते के अनुसार चूड़ामन को क्षमा कर दिया गया और उसे अनी पत्नी, पुत्र तथा भतीजों सहित मुगल दरबार में उपस्थित होने के लिये कहा गया। डीग का किला तथा थूण की गढ़ैया को नष्ट करने की आज्ञा दी गई और चूड़ामन को मुगलों की नौकरी में रख लिया गया।
चूड़ामन ने मुगलों के साथ हुई संधि की शर्तें तो मान लीं किंतु उनका पालन नहीं किया। कुछ समय बाद जब सैयद बंधुओं ने बादशाह फर्रूखसीयर का महल घेर लिया तब चूड़ामन ने लाल किले तथा महल की सारी चाबियां अपने अधिकार में ले लीं। बादशाह को अंधा करके कैद में डाल दिया गया और रफीउद्दरजात को तख्त पर बैठाया गया।
इस पर शहजादे नेकूसीयर ने विद्रोह कर दिया। चूड़ामन नेकूसीयर के पास गया और उसने गंगाजल हाथ में उठाकर कसम खाई कि नेकूसीयर को सुरक्षित रूप से जयपुर नरेश के राज्य में पहुंचा देगा। नेकूसीयर पचास लाख रुपये तथा अपने भतीजे मिर्जा असगरी को साथ लेकर चूड़ामन के साथ चल पड़ा। चूड़ामन ने नेकूसीयर को तो रफीउद्दरजात को सौंप दिया तथा रुपये अपने पास रख लिये।
ई.1722 में बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह को एक बार पुनः थूण पर आक्रमण करने भेजा। जयसिंह, पहले की असफलता की खीझ से भरा हुआ था। इसलिये वह थूण के चारों ओर का जंगल काटकर साफ करता हुआ और खाइयां खोदता हुआ तेजी से आगे बढ़ा। उसने थूण की निकटवर्ती भाली तथा झाज नामक गढ़ैयाओं को जीत लिया। 25 अक्टूबर 1722 को उसने थूण के चारों ओर घेरा डाल दिया।
तब तक सारे जाट, चूड़ामन की धोखाधड़ी के कारण चूड़ामन से नाराज हो गए थे। इसलिये चूड़ामन ने जहर खा लिया था तथा उसका पुत्र मोहकमसिंह थूण दुर्ग की रक्षा कर रहा था। मोहकमसिंह का चचेरा भाई बदनसिंह, सवाई जयसिंह के पक्ष में आ गया। उसने जयसिंह को दुर्ग के कमजोर हिस्सों के बारे में बता दिया। जब यह बात मोहकमसिंह को ज्ञात हुई तब उसने दुर्ग की दीवारों में बारूद भर दी और दुर्ग में स्थित सारी सम्पत्ति को लेकर जंगल में भाग गया।
सवाई जयसिंह को ज्ञात हुआ कि मोहकमसिंह भाग गया है तो वह तत्काल दुर्ग में जाने के लिये उद्धत हो गया। वह मोहकमसिंह की चाल नहीं समझ सका। बदनसिंह को मोहकमसिंह के स्वभाव की जानकारी थी, उसने सवाई जयसिंह को तत्काल दुर्ग में जाने से मना किया। जयसिंह ने बदनसिंह की बात मान ली।
यदि जयसिंह उस समय दुर्ग में प्रवेश करता तो मोहकमसिंह के आदमी अवश्य ही उसे बारूद से उड़ा देते। सवाई जयसिंह तथा बदनसिंह ने दुर्ग के भीतर चूड़ामन के खजाने को ढूंढने का बहुत प्रयास किया किंतु उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा।
इसके बाद जयसिंह तथा बदनसिंह ने थूण की गढ़ैया को नष्ट कर दिया और वहाँ पर खेती का हल चलवा दिया। जिस समय थूण दुर्ग का घेरा डाला गया था तब बादशाह की आज्ञा से थूण की गढ़ैया का एक नक्शा कपड़े पर बनवाया गया ताकि यह नियत किया जा सके कि किस मुगल सेनापति को कहाँ रहकर लड़ाई करनी है। थूण की गढ़ैया के नष्ट होने के बाद केवल वह नक्शा ही थूण दुर्ग की निशानी के रूप में बचा रहा।