Thursday, July 25, 2024
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6. फर्रूखसीयर और सवाई जयसिंह

2 फरवरी 1713 को फर्रूखसियर मुगलों का तख्त हथियाने में सफल हो गया। इस समय मालवा की स्थिति अत्यधिक नाजुक हो चुकी थी। एक तरफ तो इनायत खाँ और दिलेर खाँ के नेतृत्व में अफगानों ने विद्रोह कर रखा था और दूसरी तरफ मराठे नर्मदा नदी को पार करके उत्तर भारत की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहे थे।

सात हजार का मनसब

फर्रूखसियर ने बादशाह बनते ही सवाई जयसिंह को सात हजार का मनसब प्रदान कर मालवा का सूबेदार नियुक्त किया। जिस जयसिंह को औरंगजेब ने कभी डेढ़-दो हजार से अधिक का मनसब नहीं दिया, जिसे कभी नगाड़ा रखने की अनुमति नहीं दी और जिसे धरती पर केवल सूजनी बिछाकर बैठने की हैसियत दी गई थी, उसी जयसिंह पर मुगल बादशाह फर्रूखसीयर सात हजार का मनसब न्यौछावर कर रहा था, इससे स्पष्ट है कि औरंगजेब द्वारा छोड़ा गया मुगल राज्य केवल 6 वर्ष की अल्पावधि में ही धराशायी होने को आतुर था। जयसिंह भी समझ गया था कि समय पलट रहा है।

मालवा की प्रथम सूबेदारी

अफगानों और स्थानीय जागीरदारों के विरुद्ध अभियान

मालवा के सूबेदार का पद सम्भालते ही जयसिंह ने छत्रसाल बुन्देला तथा बुद्धसिंह हाड़ा के सहयोग से अफगान विद्रोहियों को दबाना आरम्भ किया। राजा जयसिंह ने इनायत खाँ और दिलेर खाँ को स्थान-स्थान पर पराजित कर उनकी शक्ति को कुचल दिया। राजगढ़ के मोहनसिंह का भी दमन किया गया। जब नरवर में उपद्रव हुए तो जयसिंह ने वहाँ एक सैन्य चौकी स्थापित कर दी। पूरनमल अहीर ने सिरोंज से कालाबाग तक का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। उसे दबाने में जयसिंह को अधिक समय नहीं लगा। सौभाग्य से इन दिनों में मराठे आपस में ही संघर्ष में उलझ गये इसलिये जयसिंह को मालवा में शांति स्थापित करने का अच्छा अवसर मिल गया।

जयसिंह के पास 10 हजार सैनिक थे जिनमें बंदूकधारी सैनिक भी अच्छी संख्या में थे। इस सेना के पास गोला-बारूद भी पर्याप्त मात्रा में था। इसलिये जयसिंह का मनोबल बढ़ा हुआ था। मार्च 1715 में जयसिंह को गंगा नामक मराठा सरदार का आक्रमण रोकने के लिये होशंगाबाद के निकट चौकी गढ़ी जाना पड़ा। उसके बाद जयसिंह उत्तर की तरफ घामुनी नामक स्थान पर पहुंचा जहां उसने अहीरों और दिलेर अफगान के 12 हजार सैनिकों को परास्त करके उनके 2 हजार सैनिक तलवार के घाट उतार दिये। जयसिंह के भी पांच सौ सैनिक काम आये। 2 अप्रेल 1715 को जयसिंह के हाथ 6 हाथी, एक झण्डा और एक पालकी लगी। इस मोर्चे से निबटकर जयसिंह दक्षिण में भेलसा पहुंचा जहाँ उसने अफगानों के विरुद्ध सफल अभियान किया।

मराठों पर विजय

अप्रेल 1715 में मराठों की दो बड़ी सेनाएं मालवा में घुस आईं। कान्होजी भोंसले तीस हजार और खाण्डेराव दाभाडे बारह हजार सैनिक लेकर आया था। मराठों ने कम्पिल परगने से 3 साल की चौथ मांगी। सरकारी अमला, मराठों से घबराकर उज्जैन भाग आया। जयसिंह उस समय भेलसा में था। वह तत्काल उज्जैन के लिये रवाना हो गया। 8 मई 1715 को जयसिंह कम्पिल पहुंचा। वहाँ उसे ज्ञात हुआ कि मराठे लूट का माल लेकर पिलसुद के निकट नर्मदा पार करने की तैयारी में हैं। जयसिंह उसी समय पिलसुद के लिये चल पड़ा और मार्ग में कहीं भी रुके बिना, 10 मई की संध्या होने से कुछ समय पहले पिलसुद पहुंच गया। मराठों के पास, जयसिंह की तुलना में कई गुना सेना थी इसलिये वे उत्साह में भरकर जयसिंह से लड़ने के लिये आये। चार घण्टे तक दोनों पक्षों में भयानक युद्ध हुआ। जयसिंह के साथ बूंदी के राजा बुद्धसिंह हाड़ा, छत्रसाल बुंदेला तथा धीरजसिंह खींची ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाई। मराठे अपने हथियार छोड़कर भाग खड़े हुए। जब युद्ध बंद हुआ तो पूरी तरह रात हो चुकी थी। कुछ ही देर बाद जयसिंह ने अपने भूखे-प्यासे और थके हुए सैनिकों को फिर से उठाया और मराठों पर हमला बोलने के आदेश दिये। जैसे ही जंगलों में पड़े हुए मराठों ने देखा कि राजपूत चढ़े चले आ रहे हैं तो वे सिर पर पैर धरकर भाग छूटे। वे अपने घायलों, जानवरों और लूट के सामान को छोड़कर रात में ही नर्मदा के पार भाग गये। जयसिंह ने अपने सैनिकों को जीते हुए माल में से इतना हिस्सा दिया कि वे सालों तक आराम से जीवन यापन कर सकें। मराठों को इससे पहले इतना कठिन पाठ किसी ने नहीं पढ़ाया था। इस विजय से सम्पूर्ण भारत में जयसिंह के नाम की धूम मच गई। फर्रूखसीयर ने जयसिंह को प्रशंसा पत्र भिजवाया।

मुगलिया षड़यंत्र

दिल्ली में राजनैतिक स्थितियां तेजी से बदल रही थीं। एक तरफ तो फर्रूखसियर और सैयद बन्धुओं के बीच कटुता बढ़ती जा रही थी और दूसरी तरफ दिल्ली और आगरा के बीच यमुना के दक्षिणी प्रदेश में चूड़ामन के नेतृत्व में जाटों के उपद्रव बढ़ते जा रहे थे। फर्रूखसियर ने जयसिंह को मालवा से बुलाया। जयसिंह मालवा से तो चला आया किंतु दिल्ली न जाकर अपनी राजधानी आमेर में रुक गया। फर्रूखसियर ने एक बार फिर जयसिंह को दिल्ली बुलवाया। मई 1716 में जयसिंह दिल्ली पहुंचा।  बादशाह ने उसे जाटों का दमन करने को कहा। जयसिंह ने सहर्ष इस काम को स्वीकार कर लिया क्योंकि आमेर के कच्छवाहा राजा अपने राज्य की सीमा पर जाटों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलना चाहते थे और इस क्षेत्र के कुछ परगनों को अपने राज्य में मिलाने की लालसा भी रखते थे।

जयसिंह ने रूपाराम धायभाई को मालवा का नायाब सूबेदार बनाकर भेज दिया और स्वयं जयपुर, कोटा, बूंदी तथा नरवर के राजाओं और उनकी सेनाओं को लेकर चूड़ामन जाट के विरुद्ध चल पड़ा। चूड़ामन बीस वर्ष की खाद्य सामग्री तथा गोला बारूद एकत्र करके थूण के दुर्ग में बंद हो गया। जब सवाई जयसिंह, कोटा के महाराव भीमसिंह, बूंदी के महाराव बुद्धसिंह तथा नरवर के कच्छवाहा राजा गजसिंह को लेकर थूण के निकट पहुंचा तो चूड़ामन ने दुर्ग में स्थित व्यापारियों से कहा कि वे अपना धन एवं सामग्री दुर्ग में छोड़कर बाहर चले जायें। यदि युद्ध के बाद वह जीता तो उनके सामान की भरपाई कर देगा। व्यापारी बुरी तरह लुट-पिटकर किले से बाहर निकल गये। चूड़ामन का पुत्र अपने जाट सैनिकों के साथ थूण दुर्ग से बाहर निकल गया ताकि वह जयसिंह की सेनाओं पर पीछे से धावे मारकर तथा उनकी रसद रोककर क्षति पहुंचा सके।

सवाई जयसिंह तथा उसके अधीन राजाओं की सेनाएं सात माह तक थूण का दुर्ग घेरे रहीं किंतु चूड़ामन को किले से बाहर नहीं निकाल सकीं। इस पर मुगल साम्राज्य की पूरी ताकत थूण के विरुद्ध झौंक दी गई तथा थूण के चारों ओर का जंगल काटकर साफ कर दिया गया। थूण से आगरा तक के मार्ग पर सैनिक चौकियां स्थापित की गईं। इस प्रकार दो वर्ष बीत गये और इस अभियान पर मुगल बादशाह के दो करोड़ रुपये खर्च हो गये। जनवरी 1717 में फर्रूखसीयर ने एक बड़ी तोप भिजवाई किंतु वह घेरे की खंदकें पार कर, दुर्ग की दीवारों के पास नहीं पहुंच सकी।

10 फरवरी को जयसिंह, बुद्धसिंह को शिविर में छोड़कर, भीमसिंह के साथ मथुरा से दक्षिण-पश्चिम में 10 मील दूर सोंख की गढ़ी पर चौकी स्थापित करने गया। रात में लौटते समय जब सेना असावधान और अव्यवस्थित थी, थूण के पास घात में बैठे जाटों ने उस पर गोलियां चलाईं। कुछ गोलियां उन हाथियों तक भी पहुंचीं जिन पर मुगल अधिकारी सवार थे। इस पर फर्रूखसीयर ने जयसिंह को नाराजगी भरा पत्र लिखकर अपने गुप्तचरों को दण्डित करने को कहा जो जाटों के उस नाले को नहीं खोज सके जहाँ वे घात लगाकर बैठे थे।

फर्रूखसीयर ने खानजहां बहादुर सैयद मुजफ्फर खाँ के नेतृत्व में एक और सेना भिजवाई। बरसात के कारण कुछ दिनों तक कार्यवाही स्थगित रखी गई। इसी बीच अकेला पड़ जाने से हर वस्तु महंगी हो गई और मुगल सेना को भारी किल्लत का सामना करना पड़ा। सैयद मुजफ्फर खाँ, फर्रूखसीयर के वजीर कुतुबुलमुल्क वजीर सैयद अब्दुल्ला का आदमी था और जयसिंह को पसंद नहीं करता था। उसने जयसिंह के लिये कठिनाइयां उत्पन्न करनी आरम्भ कर दीं। इस पर जयसिंह ने बादशाह के पास सैयद मुजफ्फर के विरुद्ध शिकायतें भेजीं जिनका कोई परिणाम नहीं निकला। वजीर से मिले गुप्त आदेशों के आधार पर सैयद मुजफ्फर खाँ ने चूड़ामन से प्रतीकात्मक पराजय स्वीकार करवाकर समझौता कर लिया। इस समझौते से राजा जयसिंह को दूर रखा गया। चूड़ामन को क्षमा करके मुगलों की नौकरी में रख लिया गया। उसे अपनी पत्नी, पुत्र तथा भतीजों सहित मुगल दरबार में उपस्थित होने के लिये कहा गया तथा डीग तथा थूण के किलों को नष्ट करने की आज्ञा दी गई। 10 अप्रेल 1718 को चूड़ामन तथा रूपा को बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया गया तथा खानजहां बहादुर सैयद मुजफ्फर खाँ ने जीत का समस्त श्रेय स्वयं बटोर लिया। 20 मई 1718 को जयसिंह थूण से दिल्ली लौट आया।

मालवा में अशांति

मालवा का नायब सूबेदार रूपाराम अफगानों, रूहेलों, मराठों, गिरासियों, भीलों, स्थानीय राजाओं और अहीरों को नियंत्रण में नहीं रख पाया। वे जहाँ-तहाँ उपद्रव मचाने लगे। जब मालवा में मराठों के धावे बढ़ने लगे तो फर्रूखसियर ने पहले मुहम्मद अमीर खाँ को और उसके बाद निजामउलमुल्क को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया। इसी समय सैयदों ने मराठों के साथ सन्धि कर ली। 1717 ई. में मराठों ने जयसिंह के नायब सूबेदार रूपाराम को पकड़ लिया तथा दो लाख रुपये की फिरौती लेकर छोड़ा।

जयसिंह संकट में

मुगल दरबार के षड़यंत्रकारी अमीरों ने मराठों की सहायता से फर्रूखसियर को सिंहासन से हटाकर रफी-उद्-दराजात को बादशाह बनाया गया। इससे जयसिंह की स्थिति संकटप्रद बन गई क्योंकि वह फर्रूखसियर का समर्थक था लेकिन जोधपुर महाराजा अजीतसिंह की मध्यस्थता से सैयदों और जयसिंह में पुनः अच्छे सम्बन्ध स्थापति हो गये।

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