Saturday, October 12, 2024
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गागरोण दुर्ग

गागरोण दुर्ग परिसर से पाषाण कालीन उपस्करों की प्राप्ति हुई है जिनसे स्पष्ट होता है कि मानव सभ्यता के उषा काल में भी यह क्षेत्र मानवीय हलचलों से भरा हुआ था। यहाँ से पुरा पाषाण काल के ग्रेनाइट तथा जैस्पर पत्थर से निर्मित उपकरण मिले हैं।

डॉ. वी. एस. वाकणकर को यहाँ से पूर्वाश्मयुगीन मानव द्वारा प्रयुक्त गोलाश्म उपकरण मिले थे जो कंद-मूल खोदने तथा मांस काटने के काम आते होंगे। इस क्षेत्र में अश्युलीय पाषाण उपकरण भी मिले हैं जिनमें कुदाल, कुठार एवं तक्षणियां आदि प्रमुख हैं। ये उपकरण आज से 1 लाख से 5 लाख वर्ष पूर्व की अवधि के हो सकते हैं। इनमें से कुछ उपकरण कोटा संग्रहालय में प्रदर्शित किए गए हैं।

डॉ. वाकणकर ने ई.1953 में गागरोन दुर्ग के उत्तर में स्थित बलिण्डा घाटी की एक शैल कंदरा में मध्य पाषाण काल में चित्रित एक हरिण चित्र खोजा था। यह चित्र आज से 10 हजार साल पहले से लेकर 40 हजार साल पहले के किसी समय में चित्रित किया गया होगा। दुर्ग के निकट स्थित बाघेर की घाटी के आमझिरी नाले में लगभग 30 कंदराओं में पाषाण चित्र पाये गए हैं।

के. डी. अर्सकाइन के इम्पीरियल गजेटियर के अनुसार महाभारत काल में गर्गराष्टर नामक एक स्थान का नाम मिलता है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण के पुरोहित गर्गाचार्य रहा करते थे। कुछ विद्वान इसकी पहचान गर्गराटपुर के रूप में करते हैं जहाँ गर्ग नामक ज्योतिषी रहा करते थे और जिन्होंने लोंगीट्यूड निकालने की विधि ज्ञात की थी। उनके अनुसार तब का गर्गराटपुर ही आज का गागरोण है।

दुर्ग के प्राचीन नाम

गागरोन दुर्ग के प्राचीन नाम इस प्रकार मिलते हैं- गर्गारण्य, गर्गराट, गलका नगरी, गगरूण, गोगारन, ढोलरगढ़, धूलरगढ़। फारसी ग्रंथों में इसके लिये करकून तथा कारकून नाम प्रयुक्त हुए हैं।

गागरोण दुर्ग का निर्माण

गागरोण दुर्ग कब एवं किसने बनवाया, इसके बारे में कहना कठिन है किंतु जब ईसा के जन्म से 184 साल पहले मगध पर शुंग वंश का शासन था तब, आहू एवं कालीसिंध नदियों के संगम पर भारत वर्ष का एक प्रमुख जल दुर्ग हुआ करता था जिसे आज गागरोण दुर्ग के नाम से जाना जाता है। इसकी गणना राजस्थान के प्राचीन दुर्गों चित्तौड़, रणथंभौर और जालौर आदि के साथ की जाती है।

गागरोण दुर्ग की श्रेणी

शुक्र नीति में नौ तरह के दुर्ग- एरण, पारिख, पारिघ, वन दुर्ग, धन्व दुर्ग, जल दुर्ग, गिरि दुर्ग, सैन्य दुर्ग तथा सहाय दुर्ग बताये गए हैं। गागरोन दुर्ग इनमें से छः श्रेणियों- औदुक, पार्वत, वन, एरण, सैन्य, सहाय तथा पारिघ दुर्ग की श्रेणी में आता है। वर्तमान में काली सिंध ने इस दुर्ग को तीन तरफ से घेर रखा है। इस दुर्ग के ठीक निकट आहू नदी काली सिंध में आकर मिलती है। किसी समय मात्र 14 किलोमीटर लम्बी चन्द्रभागा नदी भी इस संगम में आकर मिलती थी किंतु अब वह यहाँ पहुंचने से पहले ही सूख जाती है।

दुर्ग का स्थापत्य

गागरोण दुर्ग की समुद्रतल से ऊँचाई 1654 फुट है। यह मालवा के पठार पर स्थित मुकुंदरा पर्वतमाला की 340 मीटर ऊँची पहाड़ी पर बना हुआ है। यह लगभग एक किलोमीटर लम्बाई एवं 350 मीटर चौड़ाई में विस्तृत है। गागरोण दुर्ग एक मोटी, तिहरी और विशाल दीवार से घिरा हुआ है।

रियासती काल में एक सुरंग द्वारा नदी का पानी दुर्ग के भीतर पहुँचाया जाता था। किले के दो मुख्य प्रवेश द्वार हैं। एक द्वार नदी की ओर निकलता है तो दूसरा पहाड़ी रास्ते की ओर। दुर्ग में गणेश पोल, नक्कारखाना, भैरवी पोल, किशन पोल, सिलेहखाना का दरवाजा देखने योग्य हैं।

मुख्य परिसर में दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, जनाना महल, रंग महल मधुसूदन मंदिर, शीतला माता के मंदिर बने हुए हैं। विशाल जौहर कुण्ड, राजा अचल दास और उनकी रानियों के महल, बारूद खाना भी दर्शनीय हैं। दुर्ग में मिट्ठे साहब की दरगाह तथा औरंगजेब द्वारा निर्मित बुलंद दरवाजा भी बने हुए हैं।

प्राचीन क्षत्रियों के अधिकार में

शुंगों के बाद यह दुर्ग मालवों, गुप्त शासकों, परवर्ती मौर्य शासकों तथा मेवाड़ के गुहिल शासकों के अधिकार में रहा।

परमारों का अधिकार

गागरोन दुर्ग के निकट स्थित झालरापाटन नगर से विक्रम संवत् 1143 (ई.1086) का एक परमार शिलालेख प्राप्त हुआ है। वि.सं.1199 (ई.1142) के एक परमार शिलालेख में परमार राजा नरवर्म देव, यशोवर्म देव तथा आठ मंत्रियों के नाम दिये गए हैं। अनुमान है कि मेवाड़ के आवलदा क्षेत्र पर गुहिलों के अधीन रहकर शासन करने वाली परमारों की डोड शाखा ने दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में धूलरगढ़ अथवा ढोलरगढ़ (गागरोण) पर अधिकार कर लिया।

परमारों की डोड शाखा जिसे डोडिया परमार भी कहते हैं, संभवतः लगभग दो शताब्दियों तक इस दुर्ग पर शासन करती रही। वर्तमान में जो दुर्ग दिखाई देता है, माना जाता है कि उसका निर्माण 13वीं शताब्दी में डोड राजा बीजलदेव ने करवाया था। तब से यह दुर्ग डोडगढ़ कहलाने लगा। उस समय यह दुर्ग राजपूताना और मालवा प्रदेशों की सीमा पर स्थित था।

खीची चौहानों का गागरोण पर अधिकार

ई.1195 में खींची चौहान देवनसिंह (धारू) ने परमारों की डोड शाखा के राजा बीजलदेव को मारकर डोडगढ़ (गागरोण) पर अधिकार कर लिया।  देवनसिंह, नाडौल के चौहान शासक लाखण की आठवीं पीढ़ी में हुए माणकराव का वंशज था।

चौहान कुल कल्पद्रुम के अनुसार देवनसिंह तथा उसके बहनोई बीजलदेव के कामदार गंगदास बड़गूजर के बीच अनबन थी। इस कारण एक बार देवनसिंह ने डोडगढ़ पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में देवनसिंह का बहनोई बीजलदेव तथा बीजलदेव का कामदार गंगदास बड़गूजर दोनों मारे गये। देवनसिंह की बहिन गंगादेवी अपने पति बीजलदेव के शव के साथ सती हो गई। कहा जाता है कि इसी गंगादेवी के नाम से इस दुर्ग को गागरोण कहा जाने लगा।

अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण

ई.1280 में देवनसिंह का वंशज जैत्रराव (जैतसी) गागरोन का राजा हुआ। उसने मालवा के सूबेदार कमालुद्दीन को मारा। जैतसी के समय में ई.1303 में अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने गागरोन पर आक्रमण किया किंतु जैतसी दुर्ग की रक्षा करने में सफल रहा। जैतसी संभवतः ई.1310 तक गागरोण पर शासन करता रहा।

मुहम्मद बिन तुगलक का आक्रमण

जैतसिंह के बाद उसके पुत्र कल्याण राव ने लगभग 35 वर्ष तक गागरोण पर शासन किया। उसके दो पुत्र कड़वाराव (क्रोधसिंह) तथा प्रतापराव हुए जिनमें से कड़वाराव गागरोन का राजा हुआ। वह प्रतापी राजा था, उसे मुहम्मद बिन तुगलक के आक्रमण का सामना करना पड़ा तथा वह दुर्ग की सुरक्षा करने में सफल रहा।

फीरोज तुगलक का आक्रमण

राजा कड़वाराव के चार पुत्र थे- बप्पा (पीपाजी), भजनसिंह, मलयसिंह तथा चाचदेव। इनमें से मलयसिंह ने शेरगढ़ (वर्तमान बारां) का अलग राज्य स्थापित किया तथा राधोगढ़ की स्थापना की। कड़वाराव के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र बप्पा ई.1360 में गागरोण का राजा हुआ। उसके शासन काल में फीरोज तुगलक के सेनापति मलिक फीरोज ने 12 हजार सैनिकों को लेकर गागरोण पर आक्रमण किया किंतु बप्पा, दुर्ग की रक्षा करने में सफल रहा।

पच्चीस वर्ष तक शासन करने के बाद ई.1385 में बप्पा राजपाट त्यागकर संत रामानंद का शिष्य बन गया तथा संत पीपा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। रामानंद के बारह प्रसिद्ध शिष्यों में संत पीपा का नाम भी श्रद्धा से लिया जाता है। बप्पा की रानी सीता भी गृहस्थ जीवन त्यागकर साध्वी बन गई। उसने भी अपने पति की तरह अहिंसा धर्म का प्रचार किया।

कल्याणराव तथा भोजराज

पीपाराव के बाद उसका भतीजा तथा दत्तक पुत्र कल्याणराव गागरोण का राजा हुआ किंतु एक साल राज्य करके मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसके बाद उसका पुत्र भोजराज ई.1385 में गागरोण का राजा हुआ। उसने लगभग 24 साल तक गागरोण पर शासन किया।

होशंगशाह का आक्रमण

भोजराज का पुत्र अचलदास खीची हुआ जो ई.1409 में गागरोण का राजा हुआ। उन दिनों दिल्ली का तुगलक वंश अपनी आखिरी सांसें गिन रहा था। इस परिस्थिति से लाभ उठाकर मालवा का सूबेदार दिलावरखां गौरी दिल्ली से स्वतंत्र होकर मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया। ई.1406 में उसके पुत्र होशंगशाह ने अपने पिता को जहर दे दिया और स्वयं माण्डू का सुल्तान बन गया।

ई.1423 में होशंगशाह ने गागरोण दुर्ग पर चढ़ाई की। उसके साथ 84 हाथी, 30 हजार घुड़सवार एवं बड़ी संख्या में पैदल सिपाही थे। उसकी सेना में खेरला का नरसिंह तथा उसके पुत्र चांद एवं खैर, मतंगपुरी का लाखणराव, नीमाड़ का मानापाथा सहित असीरगढ़, दुर्गापुर, माण्डव, धार एवं उज्जैन के अमीरजादे, स्वयं होशंगशाह के पुत्र, बूंदी का राजा, देवड़ा हिन्दूराय, मालदेव (द्वितीय) एवं समरसिंह आदि राजा, राजकुमार तथा सूबेदार भी अपनी सेनाएं लेकर आये।

राजा अचलदास की तरफ से भी बाला पुत्र पाल्हणसी, भोजदेव पुत्र पोमा, महिराज और भीमा, यशस्वी जूबसी नरेश, धीरा बाहड़, कल्याणसिंह, जौतीपुरा का करमसिंह, राजधर गोदा, सत्रसाल सोलंकी, बीझ-ऊधरण हाड़ा, नाथू डोड, डूंगर बागड़ी अपने-अपने सामंतों और सेनाओं को साथ लेकर होशंगशास से लड़ने के लिये आये।

13 सितम्बर 1423 को दोनों पक्षों में युद्ध आरम्भ हुआ जो 27 सितम्बर तक चलता रहा। पूरे पंद्रह दिन तक चले युद्ध में दोनों तरफ के बहुत से सैनिक मारे गये। जब दुर्ग की रक्षा का उपाय नहीं बचा तो अचलदास ने अपने पुत्र पाल्हण को दुर्ग से बाहर निकाल दिया ताकि वह बाद में अवसर पाकर दुर्ग पर अधिकार कर सके और खींचियों के वंश को सुरक्षित रख सके।

गागरोण दुर्ग में पहला साका

पाल्हण के चले जाने के बाद अचलदास की रानियों- महारानी पुष्पावती (लाला मेवाड़ी), भटियाणी उमादेवी, राठौड़ी महेची, अहाड़ी, शेखावत, कछवाही और यादवणी सहित हजारों हिन्दू ललनाओं ने विराट जौहर का आयोजन किया। इसके बाद अचलदास खींची दुर्ग का द्वार खोलकर लोहा बजाता हुआ बाहर आ गया और अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन करता हुआ वीरता पूर्वक खेत रहा। इस घटना के 574 वर्ष बाद शिवदास गाढण ने अचलदास खीचीं री वचनिका में अचलदास की प्रशंसा करते हुए लिखा है-

भोज तणै भुजबलां असुर दहवट्टा कीया।

अचलदास गागरूण कोट माथ सुं दीया।।

गजनी खां के अधिकार में

होशंगशाह ने गागरोण का दुर्ग अपने पुत्र गजनीखां को सौंप दिया। गजनी खां ने दुर्ग की मरम्मत करवाई तथा कुछ निर्माण कार्य भी करवाये।

गागरोण दुर्ग झालों के अधीन

गागारोण का दुर्ग हस्तगत किए जाने के कुछ समय बाद होशंगशाह के सेनापति राघवदेव झाला ने गुजरात के सुल्तान अहमदशाह से बड़ा भारी मोर्चा लिया। उसकी वीरता और सेवाओं से प्रसन्न होकर होशंगशाह ने उसे झालावाड़ का परगना जागीर में दिया। इस प्रकार गागरोण दुर्ग ने पहली बार झालों का स्वामित्व देखा। उन दिनों मालवा की राजधानी माण्डू थी इसलिये होशंगशाह को इतिहास में माण्डू का सुल्तान भी कहा जाता है।

चौहानों का पुनः गागरोण पर अधिकार

कुछ समय बाद होशंगशाह मर गया तथा उसका पुत्र गजनी खां माण्डू का सुल्तान बना। वह निकम्मा शासक था। ई.1436 में उसे उसके ही आदमियों ने विष देकर मार दिया। इसके साथ ही मालवा पर गौरी वंश का शासन समाप्त हो गया और महमूद खिलजी माण्डू का सुल्तान बना। गागारोण का दुर्ग भी उसके अधिकार में चला गया।

उसने पहले बदरखां को तथा उसके बाद दिलशाद को गागरोण का किलेदार नियुक्त किया। कुछ समय बाद अचलदास खीचीं के पुत्र पाल्हण ने गागरोण दुर्ग पर आक्रमण किया तथा उस पर अधिकार कर लिया। कुंभलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार जब कुंभा ने मालवा विजय की तब गागरोण दुर्ग जीतकर अपने भानजे पाल्हण को दे दिया जो कि अचलदास खीची का पुत्र था।

महमूद खिलजी का गागरोण पर आक्रमण

ई.1444 में माण्डू के सुल्तान महमूद खिलजी ने 29 हाथी तथा विशाल सेना लेकर गागरोण पर आक्रमण किया। उसने कुछ दिन तक आहू नदी के किनारे अपना डेरा लगाया और उसके बाद आगे बढ़कर कालीसिंध के तट पर डेरा लगाकर बैठ गया। पाल्हणसी को गागरोण पर अधिकार जमाये हुए सात साल हो गए थे।

इस समय का उपयोग उसने दुर्ग में अपनी स्थिति मजबूत करने में किया था। उसके मामा महाराणा कुम्भा ने भी अपने सामंत धीरजदेव के नेतृत्व में एक सेना पाल्हणसी की सहायता के लिये भिजवाई। दोनों पक्षों के बीच सात दिन तक युद्ध चला तथा सातवें दिन धीरजदेव काम आ गया जिससे पाल्हणसी की हिम्मत टूट गई और वह दुर्ग के पिछले द्वार से अपने परिवार एवं कुछ साथियों सहित जंगल की ओर चला गया किंतु दुर्भाग्य से वह जंगली बर्बर लुटेरों के हाथों में पड़ गया जिन्होंने पाल्हणसी तथा उसके परिवार और साथियों की हत्या कर दी।

गागरोण दुर्ग में दूसरा साका

जब पाल्हणसी के मरने की सूचना दुर्ग में पहुंची तो दुर्ग के भीतर हिन्दू सैनिकों ने साका करने का निर्णय लिया। दुर्ग के भीतर उपस्थित हिन्दू स्त्रियों ने जौहर किया तथा हिन्दू सैनिकों ने केसरिया पहनकर दुर्ग के द्वार खोल दिये तथा लड़ते हुए काम आये। महमूद के सैनिक, हिन्दू सैनिकों को मारकर दुर्ग के भीतर घुसे तथा जलते हुए शवों के शरीर से रत्नाभूषण नौंचने लगे। उन्होंने दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा दुर्ग का नाम मुस्तफाबाद रखा।

महाराणा सांगा का गागरोण पर अधिकार

माण्डू के सुल्तान महमूद खिलजी (द्वितीय) का एक सामंत मेदिनीराय था जिसे महमूद खिलजी ने अपमानित करके निकाल दिया। मेदिनीराय मेवाड़ के महाराणा सांगा की सेवा में आ गया। महाराणा ने गागरोन दुर्ग पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया तथा मेदिनीराय को गागरोन का शासक नियुक्त किया।

मेदिनीराय ने भीमकर्ण को गागरोन का दुर्गपति नियुक्त किया। ई.1519 में महमूद खिलजी (द्वितीय) ने गागरोण पर आक्रमण किया तथा मेदिनीराय के पुत्र नत्थू को मार दिया। मेदिनीराय ने महाराणा से सहायता मांगी। इस पर महाराणा 50 हजार की सेना लेकर ताबड़तोड़ चलता हुआ गागरोण पहुंचा। दोनों पक्षों में भीषण संग्राम आरम्भ हो गया।

संभवतः महाराणा की सेना गागरोण दुर्ग में घुस गई तथा महाराणा के चूड़ावत सरदार ने 300 घुड़सवार लेकर महमूद तथा उसके सेनापति को घेर लिया। महमूद का सेनापति आसफखाँ वहीं मारा गया तथा स्वयं महमूद बुरी तरह घायल हो गया। महाराणा ने दुष्ट महमूद को बंदी बना लिया और पकड़कर चित्तौड़ ले गया।

महाराणा ने महमूद का उपचार करवाया तथा उसे अच्छे आचरण की शपथ दिलाकर मुक्त कर दिया। महाराणा ने फिर वही गलती दोहराई जो पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी के मामले में की थी। इस विजय के उपलक्ष्य में महाराणा ने तिवाड़ी हरदास को 100 बीघा भूमि दान में दी तथा इस आशय का ताम्रपत्र भी लिखा। महाराणा ने राम नामक एक वीर योद्धा को गागरोण का दुर्गपति नियुक्त किया।

शेरशाह सूरी का गागरोण पर अधिकार

ई.1540 में हुमायूं को परास्त कर शेरशाह सूरी उत्तर भारत की सबसे प्रबल शक्ति बन गया। ई.1542 में उसने मालवा अभियान किया। वह सारंगपुर, उज्जैन तथा ग्वालियर को जीतता हुआ गागरोण आया। उस समय गागरोण पर संभवतः रायसेन (मध्यप्रदेश) के शासक प्रतापशाह का अधिकार था। प्रतापशाह के सहायक पूरनमल ने गागरोण में शेरशाह से भेंट की।

अकबर का गागरोण पर अधिकार

अकबर ने जब आगरा के तख्त पर अधिकार कर लिया तब उसने आधमखां को मालवा अभियान के लिये भेजा। आधमखां ने सारंगपुर के बाजबहादुर को हराकर आसानी से मालवा पर अधिकार कर लिया किंतु इसके बाद आधमखां ने बगावत का झण्डा बुलंद किया। इस बगावत को कुचलने के लिये अकबर स्वयं ई.1561 में मालवा आया तथा उसने गागरोण का दुर्ग घेर लिया।

इस समय गागरोण दुर्ग पर बाजबहादुर के किसी सामंत का अधिकार था। उसने दुर्ग अकबर को समर्पित कर दिया। अकबर कुछ दिन तक इसी दुर्ग में रहा। यहीं पर अबुल फजल अल्लामा का बड़ा भाई फैजी पहली बार अकबर से मिला। अकबर ने खालेदीन को गागरोन का किलेदार नियुक्त किया तथा दुर्ग में एक बारूदखाना बनवाया।

परथीराज का कड़ा

जब अकबर गागरोण से निबटकर चित्तौड़ दुर्ग की ओर चला गया तब खींची चौहानों ने रायमल खींची के नेतृत्व में एकत्रित होकर फिर से अपने पुराने दुर्ग पर अधिकार करने का प्रयास किया। आमेर के कुंवर मानसिंह कच्छवाहा तथा उसके भतीजे राव खंगार ने खींचियों के इस प्रयास को विफल कर दिया।

मूथा नैणसी ने लिखा है कि रायमल खींची के राठौड़ सरदार देवीदास सुजावत का पौत्र परथीराज हरराजोत (महूमैदाना) इस युद्ध में खींचियों की ओर से वीरता पूर्वक लड़ता हुआ काम आया। हाड़ौती में परथीराज की इस युद्धगाथा को परथीराज का कड़ा नाम से नवरात्रि की रात्रियों में गाया जाता है।

गागरोण सरकार का गठन

कुछ समय बाद अकबर ने मालवा सूबे की गागरोण सरकार का गठन किया। इस सरकार के अधीन 11 महाल (परगने)- उरमाल, अकबरपुर, पचपहाड़, चेचट, खैराबाद, रायपुर, सुनेल, सेंदर (संधारा), घाटी (कोटा-दरा मार्ग पर), गागरोन तथा नीथूर थे। सरकार गागरोण का कुल क्षेत्रफल 63,529 बीघा था तथा कुल वार्षिक आय 45,35,794 दाम थी। दाम ताम्बे का एक सिक्का था। एक रुपये में चालीस दाम होते थे।

ई.1561 में अकबर ने गागरोण दुर्ग बीकानेर राव कल्याणमल राठौड़ के पुत्र पृथ्वीराज राठौड़ को दे दिया। ई.1567 में अकबर ने गागरोन सरकार में आसफखां तथा वजीरखां को जागीरें प्रदान की। ई.1580 में अकबर ने कल्याणमल के अन्य पुत्र सुल्तान को गागरोण का हाकिम बनाया जो ई.1583 तक इस पद पर रहा।

गागरोण में राजस्थानी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कृति की रचना

माना जाता है कि कुंवर पृथ्वीराज ने ई.1580 में गागरोण दुर्ग में निवास करते हुए ‘वेलि क्रिसन रुक्मणी री’ नामक काव्य की रचना की। इसे राजस्थानी भाषा का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता है। इसमें किया गया नख-शिख वर्णन, षड्ऋतु वर्णन तथा वयः संधि वर्णन भारतीय साहित्य में विशिष्ट पहचान रखता है।

पृथ्वीराज राठौड़ ‘पीथल’ के नाम से लिखते थे। वे संस्कृत, डिंगल, पिंगल, दर्शन, ज्योतिष, काव्य शास्त्र, संगीत एवं युद्ध कला में पारंगत थे। टैस्सिटोरी ने उन्हें डिंगल का ‘होरेस’ कहा है। कर्नल टॉड ने पीथल के लिये कहा था कि इनके काव्य में दस सहस्र घोड़ों का बल है। नाभादास ने इनकी गणना भक्तमाल में की है। दुरसा आढ़ा ने ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ को पाँचवा वेद कहा है।

बने रहे गागरोन के राजा

यद्यपि गागरोन पर पूरी तरह मुगलों का अधिकार हो गया था तथापि गागरोन के पुराने खीची वंश के उत्तराधिकारी, महू-मैदाना पर अपना अधिकार जमाये रहे। अकबर का समकालीन रायसल खींची था जिसने गागरोन पर अधिकार करने की विफल चेष्टा की। रायसल के बाद गोपालदास, ईश्वरसिंह, माधोसिंह तथा इन्द्रभाण हुए। ये लोग स्वयं का गागरोन का राजा कहते और लिखते थे। महू-मैदान तथा रातादेवी मंदिर क्षेत्र में बहुत से शिलालेख तथा छतरियां हैं जिनमें इन्हें गागरोन का राजा लिखा गया है।

जहांगीर के अधिकार में

जहांगीर के शासन काल में बूंदी के हाड़ाओं का मुगल दरबार में अच्छा प्रभाव हो गया। बूंदी नरेश राव रतन हाड़ा ने महू-मैदाना के राजा इन्द्रभाण से उसका क्षेत्र छीनकर अपने अधीन कर लिया। जहांगीर ने रतन हाड़ा को पंच हजारी मनसब तथा गागरोन का दुर्ग प्रदान किया। इसके बाद गागररोन के खींची सदा के लिये इतिहास के नेपथ्य में चले गए और गागरोन दुर्ग, बूंदी के हाड़ा चौहानों के अधीन हो गया।

हाड़ा चौहानों के अधिकार में

इस प्रकार यह दुर्ग पुनः चौहानों के पास लौट आया। अंतर केवल इतना था कि पहले खींची चौहानों के पास था और अब हाड़ा चौहानों के अधीन था।

शाहजहाँ के काल में

शाहजहाँ के काल में कोटा नरेश महाराव मुकुन्दसिंह (ई.1631-48) के समय में गागरोन दुर्ग में कोटा राज्य का जकात का दफ्तर था परन्तु दुर्ग पर सीधे ही केन्द्रीय सरकार का अधिकार था ताकि दुर्ग का गोला-बारूद मुगल बादशाह के अधिकारियों के नियंत्रण में रहे। महाराव मुकुन्दसिंह ने गागरोन दुर्ग में कुछ निर्माण भी करवाये।

औरंगजेब के काल में

औरंगजेब के काल में शेख फिरोज को गागरोण दुर्ग का नायब-ए-किला नियुक्त किया गया।

बूंदी राज्य के अधीन

औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शाहआलम बादशाह बना। उसने बूंदी नरेश बुधसिंह को पंचहजारी मनसब तथा 54 परगने प्रदान किए जिनमें गागरोन भी सम्मिलित था।

कोटा राज्य के अधीन

जब फर्रूखसीयर के समय, दिल्ली दरबार में सयैद बंधुओं का महत्व बढ़ गया तब फर्रूखसीयर के द्वारा कोटा महाराव भीमसिंह (ई.1707-20) को पंचहजारी मनसब तथा खीचीवाड़े और उमटवाड़े के पट्टे एवं गागरोन दुर्ग प्रदान किया गया। कोटा महाराव दुर्जनसाल (ई.1723-66) ने गागरोन दुर्ग में मधुसूदन मंदिर बनवाया तथा भगवान का सुंदर विग्रह स्थापित करवाया। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने बाजीराव पेशवा को मालवा का गवर्नर नियुक्त किया। ई.1738 में बाजीराव पेशवा ने कोटा रियासत पर आक्रमण किया तब महाराव दुर्जनसाल ने गागारोण दुर्ग में आकर स्वयं को सुरक्षित किया।

कोटा महाराव उम्मेदसिंह प्रथम (ई.1770-1819) के शासनकाल में उसके दीवान झाला जालिमसिंह ने गागरोन दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था पर ध्यान दिया तथा इसमें कई निर्माण करवाये। उसने दुर्ग में कई विशाल तोपें भी स्थापित करवाईं। उसने इस दुर्ग के चारों ओर एक नया कोट बनवाया जिसे जालिम कोट कहा जाता है।

उसके काल में तथा इस दुर्ग में अनके तोपें स्थापित हुईं जिनमें से दुर्ग के मुख्य खाई द्वार की बुर्ज पर कोकबाण, खाई के कोट पर आलमदोज, पाले के कोटा पर नागदूण, महल के नीचे की बुर्ज पर लछमा, छोटे दुर्ग के द्वार पर कृष्ण प्रसाद, भैंरवपोल के आंतरिक द्वार के शीर्ष पर रामबाण, बरड़ी की बुर्ज पर सुन्दर बाण, अन्धेर बावड़ी की बुर्ज पर अंगरेजा, रामबुर्ज पर पार्वती, गणगौर घाट पर छोटी सुंदर बाण के अलावा चौबुर्जी पर दो अन्य विशाल तोपें भी स्थापित की गई थीं।

ये तोपें दशहरा उत्सव के दिन तथा कोटा राज्य में होने वाली विशेष घटनाओं वाले दिन चलाई जाती थीं। इन तोपों में रामबाण नामक तोप भी थी जो ई.1797 में झालावाड़ दुर्ग में स्थापित की गई थी। यह तोप सर्वाधिक शक्तिशाली थी, बाद में इस तोप को कोटा ले जाया गया। अब यह नयापुरा कोटा में रखी हुई है।

इस दुर्ग में अनके तहखाने थे जिनमें गोला-बारूद बनाने का काम होता था। दुर्ग में लोहे की एक विशेष प्रकार की चद्दर निर्मित होती थी जो अपनी गुणवत्ता के लिये दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। इन तहखानों में कैदियों को भी रखा जाता था। ई.1817 में जब कोटा राज्य ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संरक्षण स्वीकार कर लिया तब दुर्ग का महत्व कम हो गया। अब कोई दूसरी देशी रियासत न तो कोटा राज्य पर आक्रमण कर सकती थी और न कोटा किसी दूसरी रियासत पर आक्रमण कर सकता था।

झालों के अधीन

झाला जालिम सिंह उन्हीं झालों का वंशज था जिन्होंने खानवा के मैदान में महाराणा सांगा के प्राणों की तथा हल्दीघाटी के मैदान में महाराणा प्रताप के प्राणों की रक्षा के लिये अपने प्राण न्यौछावर कर दिये थे। जालिमसिंह के पूर्वज कई पीढ़ियों से कोटा राज्य के दीवान थे। झाला जालिमसिंह भी अपने समय का सर्वाधिक प्रसिद्ध सेनापति हुआ। उसने जीवन भर अपने शत्रुओं से मोर्चा लिया।

जब जालिमसिंह काफी वृद्ध हो गया तब उसके नेत्रों की ज्योति चली गई। इस कारण वह अपने प्राणों की सुरक्षा के लिये कोटा के स्थान पर प्रायः गागरोण दुर्ग में ही रहने लगा। तभी से यह दुर्ग व्यावाहरिक रूप से झालों के अधीन हो गया। ई.1838 में अंग्रेजों ने कोटा महाराव भीमसिंह तथा उसके फौजदार मदनसिंह (झाला जालिमसिंह के पौत्र) के बीच का झगड़ा निबटाने के लिये कोटा रियासत का विभाजन करके मदनसिंह के लिये झालावाड़ नामक नये राज्य का निर्माण किया। तब से ई.1949 में देशी राज्यों का राजस्थान में एकीकरण होने तक गागरोण दुर्ग झालावाड़ रियासत में ही रहा।

गागरोण की टकसाल

गागरोण दुर्ग में टकसाल की स्थापना मुगलों के काल में हुई। ई.1750 के आसपास मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय के समय में भी झालावाड़ में एक टकसाल थी जिसमें सालिमशाही रुपया ढाला जाता था। जब झाला जालिमसिंह गागरोण में निवास करने लगा तब भी यह टकसाल संचालित होती थी जिसमें शुद्ध चांदी के सालिमशाही और चन्देरी रुपयों का समन्वय करके गुमानशाही नामक रुपया ढाला जाता था। जब कोटा रियासत ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि कर ली तब राज्य में अंग्रेजी रुपये का चलन हो गया। इसलिये ई.1893 में इस टकसाल को बंद कर दिया गया।

गागरोनी तोते

किसी समय गागरोण दुर्ग के तोते बड़े मशहूर थे। ये सामान्य तोतों से आकार में लगभग डेढ़-दो गुने होते हैं तथा इनका रंग भी अधिक गहरा होता है। इनके पंखों पर लाल निशान होते हैं। नर तोते के गले के नीचे गहरे काले रंग की और ऊपर गहरे लाल रंग की कंठी होती है। कहा जाता है कि गागरोण किले की राम-बुर्ज में पैदा हुए हीरामन तोते बोलने में बड़े दक्ष होते थे। अब ये तोते लुप्त हो गए हैं। ई.1532 में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मेवाड़ के महाराणा विक्रमादित्य से चित्तौड़ का दुर्ग छीन लिया। बहादुरशाह अपने साथ एक गागरोनी तोता रखता था।

बाद में, जब हुमायूं ने बहादुरशाह पर विजय प्राप्त की तो जीत के सामानों में आदमी की जुबान में बोलने वाला यह तोता भी सोने के पिंजरे में बंद मिला। हुमायूं उस समय मंदसौर में था। बहादुरशाह का सेनापति रूमी खान अपने मालिक को छोड़ कर हुमायूं से मिलने आया। कहते हैं जब रूमी खान हुमायूं के शिविर में आया तो उसे देख कर गागरोनी तोता गद्दार-गद्दार चिल्लाने लगा। इसे सुन कर रूमी खान बड़ा लज्जित हुआ।

हुमायूं ने नाराज होकर कहा कि यदि यह तोते की जगह आदमी होता तो मैं इसकी जबान कटवा देता। मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी पुस्तक पद्मावत में हीरामन जाति के तोते का उल्लेख किया है। गागरोनी तोतों का एक जोड़ा झालावाड़ नरेश राजराणा भवानीसिंह ने ब्रिटिश म्यूजियम लंदन भिजवाया। आज भी उस जोड़े के वंशज वहाँ बताये जाते हैं।

अचलदास के सम्बन्ध में किंवदन्तियां

होशंगशाह तथा अचलदास के बीच हुए युद्ध तथा राजा अलचदास खींची के बारे में अनेक किंवदन्तियां कही जाने लगीं। कहा जाता है कि होशंगशाह राजा अचलदास की वीरता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने राजा के व्यक्तिगत निवास और अन्य स्मृतियों से कोई छेड़छाड़ नहीं किया। सैकड़ों वर्षों तक यह दुर्ग मुसलमानों के पास रहा, लेकिन न जाने किसी भय या आदर से किसी ने भी अचलदास के शयनकक्ष में से उसके पलंग को हटाने या नष्ट करने का साहस नहीं किया। ई.1950 तक यह पलंग उसी स्थान पर लगा रहा।

रेलवे में सुपरिटेंडेंट रहे ठाकुर जसवंत सिंह का कहना था कि उनके चाचा मोती सिंह जब गागरोण के किलेदार थे तब वे कई दिनों तक इस किले में रहे थे। उन्होंने स्वयं इस पलंग और उसके जीर्ण-शीर्ण बिस्तरों को देखा था। उन्होंने बतलाया कि उस समय लोगों की मान्यता थी कि राजा हर रात आ कर इस पलंग पर शयन करते हैं। रात को कई लोगों ने भी इस कक्ष से किसी के हुक्का पीने की आवाजें सुनी थीं।

हर शाम पलंग पर लगे बिस्तर को साफ एवं व्यवस्थित करने का काम राज्य की ओर से एक नाई करता था और उसे रोज सुबह पलंग के सिरहाने पांच रुपए रखे मिलते थे। कहते हैं एक दिन नाई ने रुपए मिलने की बात किसी से कह दी। तब से रुपए मिलने बंद हो गए। लेकिन बिस्तरों की व्यवस्था, जब तक कोटा रियासत रही, बदस्तूर चलती रही। कोटा रियासत के राजस्थान में विलय के बाद यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो गई।

जब ई.1818 में कोटा राज्य ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से अधीनस्थ संधि कर ली तब इस क्षेत्र में अंग्रेज अधिकारियों का आना-जाना बढ़ गया। कहा जाता है कि एक बार एक अंग्रेज एडीसी साहब ने खींची राजा के भारी खांडे को उड़ा ले जाने का मन बनाया। उसने अपने आदमियों को आदेश दिया कि वे खांडे को ले चलें लेकिन वे इस भारी खांडे को अधिक दूर नहीं ले सके और मार्ग में ही छोड़ गये। अब वह खांडा झालावाड़ के थाने में बंद पड़ा है। आजादी के बाद स्थानीय लोगों ने खींची राजा के सदियों पुराने पलंग और उसके बिस्तरों को गायब कर दिया और तोपें चुराकर भट्टियों में गला दीं।

इतिहासकारों की दृष्टि में गागरोण

मआसिरे-महमूद-शाही के लेखक शिहाब हाकिम ने गागरोण को हिन्दुस्तान के किलों के कण्ठहार का बिचला मोती कहकर इसकी प्रशंसा की है।

कविताओं में गागरोण दुर्ग

गागरोण दुर्ग की महिमा अनेक लब्ध प्रतिष्ठित कवियों, लेखकों और महापुरुषों ने गाई है। संत जाम्भोजी ने लिखा है-

अजमें हूंता नागोवाड़ै, रणथम्भौर गढ़ गागरणौं।

कुंकुम, कांछणि, सोरठि, महरठ, तिलंग दीप, गढ़ गागरणौं।।

गजगण रूपक बंध में गाडण केसोदास ने लिखा है-

  अचलदास गागुरण, रेण ‘मूल’ जैसाणै।

    ‘सोम’ मंडोवर कियो, कियो सातळ सिविवाणै।

सूर्यमल्ल मीसण ने वंश भास्कर में लिखा है-

गागरोणि अचलेस सजे गढ़

रण बहु बरस किए राण रढ़।

बांकीदास की ख्यात में इस दुर्ग का उल्लेख इस प्रकार आया है-

    गागुरण खीची अचलदास रे घर जनम हुवौ।

जैसलमेर री ख्यात में लिखा है-

    गढ़ गागरूण राव अचलै खीची साको कियो।

गुण जवान रासौ में लिखा है-

    जेम कीध चीतोड़ पतै-जैजल छत्रीपण।

    जेम कीध गागरोणि, राव अचलेस अचल रिण।

राजविलास में लिखा है-

    मंडोवर-मैदानय, गढ़ गागरौंनि गुमानयं।

बलवंतसिंह हाड़ा ने लिखा है-

    धन दिल्ली, धन आगरा, रणत भंवर चित्तौड़।

    धनी खीची धन गागरून, हाड़ौती सिरमौड़।।

एक कवि ने लिखा है-

     भोज तणै भुजबलां असुर दहवट्टा कीया।

    अचलदास गागरूण कोट माथा सूं दीया।।

पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र

कालीसिंध तथा आहू नदी के संगम स्थल पर बना यह दुर्ग निकटवर्ती हरी-भरी पहाड़ियों के कारण पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। गागरोण दुर्ग का विहंगम दृश्य पीपाधाम से काफी लुभाता है। इन स्थानों पर लोग आकर पिकनिक पार्टियां करते हैं।

विश्व धरोहर सूचि में

गागरोण दुर्ग को यूनेस्को ने विश्व धरोहर सूचि में सम्मिलित किया है। वर्ष 2016 में दुर्ग के भीतर जीर्णोद्धार और खुदाई का काम किया गया जिसके दौरान दुर्ग की बाहरी दीवार के निकट एक बड़ी बावड़ी तथा कुछ प्राचीन जैन मूर्तियां निकलीं।

गागरोन पंचांग

रियासती काल में गागरोन गढ़ में सौ साल के पंचांग बनते थे जो भारत भर में प्रसिद्ध थे। अब यह विधा गागरोन से लुप्त हो गई है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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