Saturday, October 12, 2024
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कुम्भलगढ़ दुर्ग

कुम्भलगढ़ दुर्ग उदयपुर से लगभग 90 किलोमीटर तथा नाथद्वारा से लगभग 40 किलोमीटर उत्तर में अरावली की पहाड़ियों में, समुद्र सतह से लगभग 1082 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और नीचे की नाल से लगभग 250 मीटर ऊँचा है।

दुर्ग के निर्माता

मौर्य सम्राट अशोक के दूसरे पुत्र ‘सम्प्रति’ ने ईसा से लगभग 200 वर्ष पहले ठीक उसी स्थान पर एक दुर्ग बनवाया था, जहाँ आज कुम्भलगढ़ दुर्ग स्थित है। ‘सम्प्रति’ जैन धर्म का अनुयायी था उसके समय में बने कुछ प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष आज भी कुम्भलगढ़ में मौजूद हैं। महाराणा कुंभा (ई. 14-1468) के समय यह दुर्ग खण्डहर के रूप में मौजूद था। कुंभा ने अपने प्रसिद्ध शिल्पी मंडन के निर्देशन में उन्हीं खण्डहरों पर एक नये दुर्ग का निर्माण करवाया जिसके कुम्भलगढ़ दुर्ग कहा जाता है।

दुर्ग की श्रेणी

कुम्भलगढ़ दुर्ग पार्वत्य दुर्ग तथा ऐरण दुर्ग की श्रेणी में आता है। इसे कुंभलमेर या कुंभलमेरु भी कहते हैं। यह छोटी-छोटी कई पहाड़ियों को मिलाकर बनाया गया है। कुंभलगढ़ प्रशस्ति में इन पहाड़ियों के नाम नील, श्वेत, हेमकूट, निषाद, हिमवत्, गन्दमदन आदि दिये गये हैं। इस दुर्ग के चारों ओर स्थित पहाड़ियों के कारण यह दुर्ग दूर से दिखाई नहीं देता है।

नवीन दुर्ग की प्रतिष्ठा

महाराणा कुंभा ने वि.सं.1515 चैत्र वदि 13 (ई.1458) को कुम्भलगढ़ दुर्ग की प्रतिष्ठा की। दुर्ग बनने की स्मृति में कुंभा ने विशेष सिक्के ढलवाये जिन पर कुंभलगढ़ का नाम अंकित है। उसने दुर्ग में चार दरवाजे बनवाये तथा मण्डोर से लाकर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित करवाई। साथ ही अपने किसी अन्य शत्रु के यहाँ से लायी हुई गणपति की मूर्ति भी स्थापित करवायी। वहीं उसने कुंभस्वामी का मंदिर, जलाशय तथा एक बाग का निर्माण भी करवाया।

दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था

कुम्भलगढ़ दुर्ग अनियमित आकार की कई पहाड़ियों से घिरा हुआ है और इन्हें लगभग 35 किलोमीटर लम्बी तथा सात मीटर चौड़ी दीवार से जोड़ दिया गया है। दुर्ग की प्राचीर पर तीन-चार घुड़सवार एक साथ चल सकते हैं। दुर्ग की प्राचीर में स्थान-स्थान पर बुर्ज बनी हुई हैं जिनकी बाहरी आकृति बड़े आकार के आधे-कुंभों (मटकों) के समान है। इस कारण कोई शत्रु इस प्राचीर पर सीढ़ी टिकाकर नहीं चढ़ सकता। कुम्भलगढ़ दुर्ग की लम्बी-चौड़ी दीवार चीन की दीवार का स्मरण कराती है।

कुम्भलगढ़ दुर्ग का मार्ग

दुर्ग से पहले केलवाड़ा नामक एक प्राचीन कस्बा बसा हुआ है जहाँ स्थित एक गढ़ी में बाणमाता का प्रसिद्ध मंदिर है। दुर्ग में स्थित महलों तक पहुंचने के लिये गोल घुमावदार रास्ता पार करना पड़ता है तथा एक-एक करके ओरठ पोल, हल्ला पोल, हनुमान पोल, विजय पोल, भैरव पोल, नींबू पोल, चौगान पोल, पागड़ा पोल और गणेश पोल नामक कुल नौ द्वार पार करने पड़ते हैं।

केलवाड़ा से चलने के बाद ओरठ पोल और हल्ला पोल पार करने के बाद दुर्ग का मुख्य द्वार आता है जिसे हनुमान पोल कहते हैं। यहाँ हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है। यह माण्डव्यपुर (मण्डोर) से लाई गई थी। इसका उल्लेख कीर्ति स्तंभ की प्रशस्ति में भी है। यह मूर्ति महाराणा कुंभा द्वारा माण्डव्यपुर (मण्डोर) पर प्राप्त की गई विजय की प्रतीक है। इसकी चरण चौकी पर वि.सं. 1515 फाल्गुन मास का लेख खुदा हुआ है। हनुमानपोल के बाद विजयपोल आता है जिसमें प्रवेश करने पर मध्यकालीन मंदिर, मण्डप, स्मारक दिखाई देते हैं। 

कटारगढ़

कुम्भलगढ़ दुर्ग के भीतर एक पहाड़ी के शिखर पर एक और दुर्ग स्थित है जिसे कटारगढ़ कहते हैं। यह गढ़ भी द्वारों एवं प्राचीरों से सुरक्षित है। भीतरी दुर्ग में प्रवेश करने से पहले देवी का मंदिर आता है। महाराणा, युद्ध अभियान पर जाते समय देवी की आज्ञा लेकर जाते थे और लौटकर सबसे पहले देवी को प्रणाम करते थे।

कटारगढ़ में झाली महल, बादल महल (कुंभा महल), तालाब, तोपखाना, बंदीगृह, अन्नागार, अस्तबल और कुछ मंदिर स्थित हैं। बादल महल की छत पर भित्तिचित्र बने हुए हैं। महल के द्वार तथा झरोखे आनुपातिक रूप से छोटे हैं। यहाँ के महलों की छत से पूरे दुर्ग का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। साथ ही मेवाड़ राज्य की सीमा पर स्थित मारवाड़ राज्य दिखाई देता है।

गोदाम एवं अस्तबल

महाराणा कुंभा ने कुम्भलगढ़ दुर्ग के भीतर युद्धोपयोगी सामग्री एवं खाद्यान्न एकत्रित करने के लिये बड़े-बड़े गोदाम बना रखे थे। उनके घोड़ों के अस्तबल तथा हाथियों के बाड़े भी राजप्रासाद की सीमा में स्थित थे।

झाली रानी की कहानी

मान्यता है कि महाराणा कुंभा, झालों की एक राजकुमारी को बलपूर्वक ब्याह लाया जो कि मण्डोर के राठौड़ राजकुमार की मंगेतर थी। राठौड़ राजकुमार ने झाली को प्राप्त करने के बहुत प्रयास किए किंतु उसे सफलता नहीं मिली। कुंभा ने झाली के लिये एक मालिया (महल) बनवाया जहाँ से वर्षा काल में आकाश साफ होने पर मण्डोर का दुर्ग भी दिखाई पड़ता था। दुर्ग में झाली बाव नामक एक बावड़ी भी स्थित है। झाली रानी के सम्बन्ध में एक दोहा कहा जाता है-

झाल कटायां झाली मिले न रंक कटायां राव।

कुंभलगढ़ रै कांगरे, माछर हो तो आव।।

दुर्ग में स्थित मंदिर

मान्यता है कि किसी समय कुम्भलगढ़ दुर्ग में 365 मंदिर थे जिनमें से अब बहुत से नष्ट हो गए हैं। दुर्ग परिसर में स्थित मंदिरों में मामादेव (कुंभा स्वामी) का मंदिर, विष्णु मंदिर और नीलकण्ठ का मंदिर प्रमुख हैं। नीलकण्ठ मंदिर के निकट कुंभा द्वारा निर्मित विशाल यज्ञदेवी का दो-मंजिला भवन है। इसका निर्माण शास्त्रोक्त विधि से किया गया था।

कुम्भलगढ़ दुर्ग की प्रतिष्ठा का यज्ञ भी इसी वेदी में हुआ था। यज्ञ से निकलने वाले धूम्र की निकासी के लिये छत में सुंदर जालियां बनी हुई हैं। इनके ऊपर सुंदर शिखर बना हुआ है। राजस्थान में इस प्रकार की प्राचीन यज्ञ वेदी कुंभलगढ़ में ही बची है। अब यज्ञ-स्थान के खम्भों को दीवार से बंद कर दिया गया है।

कटारगढ़ के उत्तर में नीची भूमि पर मामादेव (कुंभा स्वामी) का मंदिर है। इस मंदिर के खण्डहर के बाहरी भाग से कई प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं जिनमें से अधिकांश मूर्तियां उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित रखी गई हैं। मिंंदर में 30 गुणा 30 फुट का खुला बारामदा है। इसमें 16 खम्भे लगे थे।

इसके भीतरी भाग के चबूतरे पर प्रतिमा रखी है तथा मध्यवर्ती भाग पर लघु वेदी बनी हुई है। इससे थोड़ी दूरी पर एक कुण्ड है जहाँ कुंभा के पुत्र उदयसिंह (ऊदा) ने कुंभा की हत्या की थी। कुण्ड की सीढ़ियों पर बने झरोखों में देवी-देवताओं की कई मूर्तियां बनी हुई हैं।

कुंभलगढ़ प्रशस्ति

कुंभा स्वामी मंदिर के प्रांगण के बाहर महाराणा कुंभा ने ई.1460 में पत्थर की शिलाओं पर संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में एक प्रशस्ति उत्कीर्ण करवाई थी। अब यह शिलालेख एवं कुम्भलगढ़ दुर्ग के कई पुरावशेष उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इस शिलालेख में मेवाड़ नरेशों की वंशावली, महाराणा कुम्भा की उपलब्धियाँ, कुंभा के समय के बाजार, मंदिर, राजमहल तथा युद्धों आदि की जानकारी दी गई है।

कुंभलगढ़ पर शत्रुओं के आक्रमण

इस दुर्ग पर पहला आक्रमण महाराणा कुंभा के समय में माण्डू के सुल्तान महमूद खिलजी ने किया। उस समय महाराणा दुर्ग में नहीं था। सामंत दीपसिंह, दुर्ग की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। महमूद कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार करने में सफल नहीं हुआ। अंत में निराश होकर, केलवाड़ा गांव की गढ़ी में तोड़-फोड़ करके वापस लौट गया। ई.1457 में गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने कुंभलगढ़ पर घेरा डाला। वह भी असफल होकर लौट गया।

महारणा कुंभा की हत्या

ई.1468 में महाराणा कुंभा के बड़े पुत्र उदयसिंह (ऊदा) ने कुंभा की छल से हत्या कर दी तथा स्वयं महाराणा बन गया किंतु मेवाड़ के सामंतों ने ऊदा को अपना महाराणा स्वीकार नहीं किया। उन्होंने पांच वर्ष तक चले संघर्ष के बाद ऊदा को गद्दी से उतारकर उसकी जगह कुंभा के दूसरे पुत्र रायमल को महाराणा बनाया। रायमल के कुंवरों- पृथ्वीराज तथा महाराणा सांगा का बचपन कुम्भलगढ़ दुर्ग में बीता था।

उडणा पृथ्वीराज

रायमल का ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज अपनी धावक गति के कारण उडणा पृथ्वीराज के नाम से विख्यात था। उसकी हत्या उसके बहनोई सिरोही नरेश जगमाल ने विष देकर की। विष का सेवन करने के बाद पृथ्वीराज कुम्भलगढ़ दुर्ग की ओर आया तथा यहीं पहाड़ियों में उसका दम निकला। उसकी एक छतरी दुर्ग की तलहटी में है, जहाँ उसका निधन हुआ था तथा दूसरी छतरी किले में मामादेव कुण्ड के पास स्थित है, जहाँ उसका दाह संस्कार हुआ था। यह छतरी भारतीय पद्धति से बने 12 खंभों पर आधारित है। छतरी के बाहरी भाग में सीधी रेखा के पत्थर लगे हुए हैं।

भीतर अष्टकोण बनाते हुए किनारे पर पत्थर लगे हैं। चारों ओर लगभग तीन फुट की ऊंचाई पर खुले बरामदे बने हैं जिनमें आराम से बैठा जा सकता है। इनके चारों ओर पंखुड़ी के घुमाव के ढंग के पत्थर लगे हैं। भीतर वृत्ताकार शिखर, बड़े आकार से छोटा होता चला गया है। छतरी के बीच में लगभग तीन फुट ऊँचा, डेढ़ फुट चौड़ा और ऊपर से नुकीला एक स्मारक स्तम्भ लगा है, जिसमें चारों ओर 17 स्त्रियों की मूर्तियां तथा उनके बीच में पृथ्वीराज की मूर्ति स्तंभ के बीच वाले भाग में खोदी गई है।

यह स्मारक स्तम्भ 15वीं शताब्दी ईस्वी की वेशभूषा एवं सामाजिक व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डालता है। प्रवेश द्वार के सामने वाले स्मारक स्तम्भ की पहलू पर चार स्त्रियों की मूर्तियां एवं बीच में पृथ्वीराज की घोड़े पर सशस्त्र मूर्ति बनी है। पृथ्वीराज के लम्बी दाढ़ी एवं मूंछें हैं जो तिकाने आकार में नीचे तक चली गई हैं।

पृथ्वीराज के आभूषणों में सादी कण्ठी, भुजबंद और कड़े प्रमुख हैं। हाथ में लम्बी तलवार दिखाई गई है। सिर पर गोल आकार की पगड़ी है जैसी बीकानेर तथा मारवाड़ में बांधा करते हैं। अधोवस्त्र में धोती और उसके साथ अंगोछा कमर में बंधा है, जिसके पल्ले नीचे तक लटकते हैं। ऊपरी शरीर पर वस्त्रों का अभाव है। स्त्री वेश में कण्ठी, कड़े, लंगर एवं चूड़ा प्रमुख हैं। तीन लड़ी का कन्दोरा बड़ा ही भव्य दिखाई देता है। अधोवस्त्र जंघा तक बनाया गया है परन्तु साड़ी का पूरा अभाव है। स्त्रियों के वस्त्र सादे ढंग से बनाये गये हैं।

स्तंभ के दूसरे पहलू में चार रानियां और बीच में पृथ्वीराज बताया गया है। पृथ्वीराज को जटाजूटधारी शिवलिंग की पूजा करते हुए दिखा गया है जिससे स्पष्ट है कि प्राचीन गुहिलवंशी राजाओं की तरह वह भी शैव मतावलम्बी था। ये मूर्तियां आकार-प्रकार में वैसी ही हैं जैसी कुंभलगढ़ में विद्यमान नीलकण्ठ की मूर्ति है। तीसरे पहलू में पांच रानियां और पलंग पर लेटे हुए पृथ्वीराज को दिखाया गया है। यहाँ कुंवर के मस्तक पर नुकीला टोप एवं अधोवस्त्र बताये गये हैं जो एक योद्धा के द्योतक हैं।

पलंग के पाये तिरछे हैं और इन पायों से पलंग के ऊपरी भाग आगे बढ़े हुए दिखाई देते हैं। आहड़ की छतरियों एवं मंदिरों के पलंगों से इसकी आकृति अलग है। दो स्त्रियों के हाथों में चौरस आकार के पंखे दिखाये गये हैं। इन स्त्रियों के चेहरे से भक्ति-भाव टपकता है। पलंग के नीचे जलपात्र रखा हुआ है जिसे देखने से उस समय के पात्रों के आकार का अनुमान लगाया जा सकता है। चित्तौड़ के विजय स्तंभ के पलंगों के नीचे भी इसी प्रकार के जलपात्र दिखाये गये हैं।

स्मारक स्तंभ के चौथे पहलू में पृथ्वीराज फिर चार स्त्रियों के साथ छोटी तलवार एवं ढाल लिये बताया गया है। कुंवर के सिर पर गोल आकार की लहरदार पगड़ी बनायी गई है। कुंवर कच्छ पहने हुए है। रानियां हाथ जोड़े हुए शांतभाव से दिखाई देती हैं जो सतीत्व एवं भक्ति-भाव की प्रतिमाएं हैं। इसी छतरी में दाहिनी बाजू वाले खंभे पर अस्पष्ट लेख खुदा हुआ है परन्तु लिपि से स्पष्ट है कि यह लेख नकली है। बायीं ओर के दूसरे खंभे पर तत्कालीन लिपि में ‘श्री घणष पना’ खुदा हुआ है। यह किसी शिल्पी या सूत्रधार का नाम हो सकता है।

छतरी पर एक गोलाकार गुम्बज है जो प्रारंभ में लगभग दो फुट ऊँचे गोल आधार पर बनाया गया है। यह गुम्बज 15वीं शताब्दी ईस्वी के राजपूत शैली के गुम्बजों की शैली का है। गुम्बज अर्द्ध-भाग समाप्त करने पर नुकीला होता हुआ दिखाई देता है। इसके शिखर पर गोलाकार एवं बिना अलंकरण वाला एक पत्थर लगा हुआ है।

आकार-प्रकार से गुम्बज की बनावट कुंभा कालीन गुम्बजों जैसी है। ये गुम्बज कुंभा के राजप्रासादों के गवाक्षों और मंदिरों के शिखरों पर अब भी चित्तौड़ तथा कुंभलगढ़ में देखे जा सकते हैं। इस गुम्बज को बनाने में ईंट तथा पत्थर के टुकड़े काम में लिये गये हैं जिस पर चूने का प्लास्टर कर दिया गया है। यह प्लास्टर काई जमने से काला हो गया है। भीतरी भाग में लाल रंग स्पष्ट झलकता है।

महाराणा उदयसिंह का राजतिलक

जब दासी पुत्र बनवीर ने महाराणा सांगा के पौत्र महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी और उसके छोटे भाई उदयसिंह को भी मारना चाहा, तब पन्ना धाय ने अपने पुत्र का बलिदान देकर उदयसिंह को बचा लिया। राजकुमार उदयसिंह को किसी तरह कुम्भलगढ़ दुर्ग लाया गया और वहीं पर उसका पालन-पोषण किया गया। जब उदयसिंह वयस्क हो गया तब कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही उसका राज्यतिलक हुआ।

महाराणा प्रताप का जन्म

महाराणा उदयसिंह के बड़े पुत्र प्रतापसिंह का जन्म भी कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही हुआ। कुम्भलगढ़ दुर्ग से ही उदयसिंह ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की और अपने पूर्वजों का दुर्ग पुनः हस्तगत किया। बाद में जब अकबर ने उदयसिंह से चित्तौड़ छीन लिया तब उदयसिंह उदयपुर चला गया।

महाराणा प्रताप की अस्थाई राजधानी

जब ई.1572 में महाराणा उदयसिंह का निधन हो गया, तब महाराणा प्रतापसिंह गोगून्दा में अपना राज्यतिलक करवाकर कुंभलगढ़ चला आया और यहीं से मेवाड़ का शासन चलाने लगा। ई.1576 में हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप सीधा इसी दुर्ग में आया था।

कुंभलगढ़ पर शाहबाज खां का अधिकार

अकबर ने शाहबाज खां को कुम्भलगढ़ दुर्ग पर चढ़ाई करने के लिये भेजा ताकि महाराणा प्रताप को पकड़ा या मारा जा सके। शाहबाज खां कुंभलगढ़ दुर्ग पर घेरा डालकर बैठ गया। कुछ समय बाद, दुर्ग में रसद की कमी हो गई। दो साल बाद, ई.1578 में महाराणा प्रताप दुर्ग से निकल कर दुर्गम पहाड़ों में चला गया।

उसने सोनगरा भाण को दुर्ग की रक्षा का भार सौंपा। सोनगरा भाण, सींधल सूजा तथा अन्य योद्धा दुर्ग की रक्षा करते हुए काम आये। कुंभलगढ़ पर मुगलों का अधिकार हो गया। इस सम्बन्ध में एक दोहा इस प्रकार से कहा जाता है-

कुंभलगढ़ रा कांगरां, रहि कुण कुण राण।

इक सिंहावत सूजड़ो इक सोनगरो भाण।

कुछ दिनों बाद प्रताप पुनः पहाड़ियों से निकला तथा उसने फिर से मुगलों को कुंभलगढ़ दुर्ग से मार भगाया। इसके बाद यह दुर्ग राणाओं के अधिकार में ही रहा।

इतिहासकारों की दृष्टि में कुम्भलगढ़ दुर्ग

कुंभलगढ़ मेवाड़ राज्य का नैसर्गिक सुरक्षा कवच था तथा इसे राजस्थान के सर्वाधिक सुरक्षित किलों में से माना जाता था। अबुल फजल ने लिखा है कि यह दुर्ग इतनी ऊंचाई पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है। कर्नल टॉड ने इसे चित्तौड़ के बाद दूसरे नम्बर का दुर्ग बताया है तथा दुर्ग की सुदृढ़ प्राचीर, बुर्जों एवं कंगूरों के कारण कुंभलगढ़ की तुलना एट्रस्कन से की है।

कुम्भलगढ़ दुर्ग की वर्तमान स्थिति

दुर्ग परिसर में आज भी कुछ परिवार निवास करते हैं। दुर्ग परिसर में खेती भी होती है। अब यह दुर्ग भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देख-रेख में है। जिस महल में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था, अब वहाँ चमगादड़ों का बसेरा है।

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