महाराणा संग्रामसिंह के बाद रत्नसिंह (ई.1528-31), मेवाड़ का महाराणा हुआ। उसके गद्दी पर बैठते ही मालवा के सुल्तान महमूद ने अपने सेनापति शरजहखां को मेवाड़ का इलाका लूटने के लिये भेजा।
महाराणा ने भी मालवा पर चढ़ाई कर दी और सम्भल को लूटता हुआ सारंगपुर तक पहुंच गया। इस पर शरजहखां लौट गया और महमूद भी उज्जैन से माण्डू चला गया। जब महाराणा खरजी की घाटी पहुंचा तो गुजरात का सुल्तान बहादुरशाह, महाराणा की सेवा में उपस्थित हुआ।
वह भी मालवा पर चढ़ाई करना चाहता था तथा इस कार्य में महाराणा की सहायता प्राप्त करना चाहता था। इसलिये सुल्तान ने महाराणा को प्रसन्न करने के लिये 30 हाथी एवं बहुत से घोड़े भेंट किये तथा महाराणा के साथियों को 1500 जरदोरी खिलअतें प्रदान की।
महाराणा ने अपने कुछ सरदार, गुजरात के सुल्तान के साथ कर दिये और स्वयं चित्तौड़ लौट आया और बहादुरशाह ने माण्डू जाकर, महमूद का राज्य, गुजरात राज्य में मिला लिया तथा महमूद को कैद करके गुजरात ले गया।
महाराणा रत्नसिंह ने काठियावाड़ में पालीताणा के पास शत्रुंजय तीर्थ का सातवां उद्धार करवाया तथा पुण्डरीक के मंदिर का जीर्णोद्धार करके उसमें आदिनाथ की मूर्ति स्थापित करवाई। इस कार्य के लिये तीन सूत्रधार अहमदाबाद से तथा उन्नीस सूत्रधार चित्तौड़ से गये थे।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता