Saturday, November 2, 2024
spot_img

अलवर दुर्ग

अलवर दुर्ग महाभारत कालीन मत्स्य देश में स्थित है। कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत में वर्णित उलूक नामक राजकुमार ने उलूक राज्य की स्थापना की जो बाद में उलूर कहलाया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई वर्षों तक यह क्षेत्र उलूवर लिखा जाता था जो बाद में अलवर हो गया।

कुछ विद्वानों के अनुसार अरावली पर्वत के नाम पर यह दुर्ग अर्वलपुर कहलाता था जो बाद में अलवर हो गया। कुछ विद्वानों के अनुसार साल्व जाति के नाम पर यह अलवर कहलाया। कुछ विद्वानों के अनुसार निकुंभ राजकुमार अलवा द्वारा बसाये जाने के कारण यह अलवर कहलाया।

ई.1195 में जब फरिश्ता भारत आया तब उसने इसे अरबी उच्चारण के अनुसार अलवर लिखा। यह भी मान्यता है कि कच्छवाहा राजकुमार अलघुराय के नाम पर यह दुर्ग अलवर दुर्ग कहलाया।

दुर्ग की श्रेणी

पहाड़ी पर स्थित होने के कारण यह गिरि-दुर्ग की श्रेणी में आता है। इस दुर्ग को बाला किला भी कहते हैं।

दुर्ग के निर्माता

दुर्ग निर्माण के सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यताएं हैं। सर्वाधिक मान्यता इसी बात की है कि अलवर दुर्ग को निकुंभ क्षत्रियों ने बनवाया।

दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था

यह दुर्ग पर्याप्त मोटी एवं 40 से 50 फुट ऊंची प्राचीर से घिरा हुआ है जो उत्तर-दक्षिण में तीन मील तथा पूर्व-पश्चिम में एक मील लम्बी है। इस प्राचीर में 15 बड़ी और 52 छोटी बुर्ज हैं। प्राचीर एवं बुर्जों पर कुल 3,359 कंगूरे लगे हुए हैं जिनमें से प्रत्येक कंगूरे में दो छिद्र हैं।

प्राचीर के बीच में बनी चौबुर्ज, काबुलखुर्द बुर्ज, नौगजाबुर्ज और हवा बुर्ज में सैनिकों की चौकियां रहती थीं। कुछ बुर्ज दुर्ग परिसर से बाहर भी बनाई गईं जिनमें मदार घाटी की बुर्ज, धौली दूब की बुर्ज, आड़ा-पाड़ा की बुर्ज, बनसाली की बुर्ज, जम्बूसाना की बुर्ज तथा छटंकी बुर्ज मुख्य हैं। इन बुर्जों पर भी सैनिक चौकियां बिठाई गई थीं।

दुर्ग में प्रवेश

दुर्ग में प्रवेश करने के लिये 6 प्रवेश द्वार हैं। पश्चिमी द्वार चांदपोल कहलाता है। आरम्भ में दुर्ग में प्रवेश करने के लिये यही एकमात्र द्वार था। इसे निकुंभ राजा चंद ने बनवाया था। पूर्वी द्वार भरतपुर के जाट राजा सूरजमल ने बनवाया था जो सूरजपोल कहलाता है। दक्षिणी द्वारा लक्ष्मण द्वार कहलाता है। इस द्वार से नगर तक पक्की सड़क बनी हुई है। पाँचवा द्वार किशनपोल है। छठा दरवाजा अंधेरी दरवाजा कहलाता है क्योंकि यहाँ तक सूर्य की किरणें नहीं पहुंचतीं।

दुर्ग का स्थापत्य

अलवर दुर्ग 300 मीटर की ऊँचाई पर 5 किलोमीटर के घेरे में स्थित है। यह दुर्ग उत्तर से दक्षिण में 5 किलोमीटर तथा पूर्व से पश्चिम में 1.5 किलोमीटर फैला हुआ है। दुर्ग में सलीम सागर, राजा सूरजमल के महल के खण्डहर तथा सूर्यकुण्ड के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। दुर्ग में स्थित जलमहल और निकुंभ महल दर्शनीय हैं। मुख्य महल में बने भित्ति चित्र भी उल्लेखनीय हैं।

दुर्ग का इतिहास

12वीं शताब्दी में अजमेर के चौहान शासक वीसलदेव ने यह दुर्ग निकुंभ क्षत्रियों से छीना तथा निकुंभ राजकुमार महेश को अपना सामंत नियुक्त किया। इस प्रकार यह दुर्ग निकुंभों के अधिकार में बना रहा। पृथ्वीराज चौहान ने निकुंभों को पूरी तरह से अलवर दुर्ग से हटा दिया तथा उनके स्थान पर चौहान सामंतों की नियुक्ति की।

ई.1205 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने यह पूरा क्षेत्र चौहानों से छीनकर पुनः निकुंभों को दे दिया। जब कच्छवाहे ढूंढाड़ क्षेत्र में आये, तब कच्छवाहा राजकुमार अलघुराय ने यह दुर्ग निकुंभ क्षत्रियों से छीन लिया। कुछ समय बाद निकुंभ क्षत्रियों ने यह दुर्ग अलघुराय के पुत्र सागर से पुनः अपने अधिकार में ले लिया।

दिल्ली सल्तनत के अधिकार में

सिकंदर लोदी (ई.1498-1517) के शासनकाल में खानजादा अलावल खां मेवाती ने निकुंभों को अलवर से मार भगाया तथा दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अलवर का खानजादा वंश, विजयचंद्रगढ़ के यादवों में से ही निकला था। इन्हें फिरोजशाह तुगलक (ई.1351-88) के समय मुसलमान बना लिया गया था। मुरक्का अलवर के अनुसार हिजरी 928 में खानजादों ने दुर्ग की दीवार का निर्माण करवाया तथा चार दरवाजों एवं 3359 कंगूरों का जीर्णोद्धार करवाया।

मुगलों के अधिकार में

ई.1526 में जब बाबर ने भारत पर आक्रमण किया उस समय अलवर का दुर्ग खानजादा शासक हसनखां मेवाती के अधिकार में था। हसनखां मेवाती ने अलवर दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया। ई.1527 में बाबर और महाराणा सांगा के बीच खानुआ के मैदान में हुई लड़ाई में हसनखां मेवाती ने बाबर के विरुद्ध महाराणा सांगा का साथ दिया तथा युद्ध क्षेत्र में ही वीरगति को प्राप्त हुआ।

बाद में जब हुमायूं आगरा के तख्त पर बैठा तो हसनखां मेवाती के चचेरे भाई जमालखां मेवाती ने अपनी बड़ी पुत्री का विवाह हुमायूं से तथा छोटी बेटी का विवाह हुमायूं के सेनापति बैरामखां से कर दिया। आगे चलकर इसी छोटी शहजादी के पेट से अब्दुर्रहीम खानाखाना ने जन्म लिया जो संसार में कृष्ण भक्ति के लिये अमर हो गये हैं।

तिजारा आदि अन्य दुर्गों के साथ-साथ बाबर ने अलवर दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया तथा एक रात्रि अलवर दुर्ग में बिताई। बाबर के अमीर ‘चीन तैमूर सुल्तान’ ने अलवर दुर्ग में ‘काबुल खुर्द बुर्ज’ का निर्माण करवाया।

शेरशाह सूरी के अधिकार में

हुमायूं के भारत से भाग जाने के बाद शेरशाह सूरी ने अलवर दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। उसके पुत्र सलीमशाह के नाम पर दुर्ग में स्थित एक जलाशय अब भी सलीम सागर कहलाता है।

अकबर से औरंगजेब तक

मुगल बादशाह जहाँगीर इस दुर्ग में तीन साल तक रहा। इस कारण इसे सलीम महल भी कहते हैं। औरंगजेब ने यह दुर्ग कुछ समय के लिये आम्बेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह को दिया किंतु शीघ्र ही वापस ले लिया।

जाटों के अधिकार में

जब मुगल साम्राज्य अस्त होने लगा तब जाट राजा सूरजमल ने इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने यहाँ कुछ निर्माण भी करवाये।

प्रतापसिंह के अधिकार में

ई.1767 में मांवडा के युद्ध से कच्छवाहा राजकुमार प्रतापसिंह का अभ्युदय हुआ। वह जयपुर तथा भरतपुर राज्यों के दुर्गों पर अधिकार करने लगा। ई.1775 तक अलवर का दुर्ग भरतपुर राज्य के अधीन था किंतु दुर्गपति नवलसिंह फौजदार तथा चूड़ामणि रामसिंह लम्बे समय से वेतन नहीं मिलने के कारण जाट राजा से असंतुष्ट थे।

फौजदार नवलसिंह ने प्रतापसिंह से अनुरोध किया कि यदि प्रतापसिंह अलवर दुर्ग में स्थित सेना का बकाया वेतन चुका दे तथा आगे भी समय पर वेतन देने का वचन दे तो अलवर दुर्ग प्रतापसिंह की अधीनता स्वीकार कर लेगा। प्रतापसिंह ने उसकी बात मान ली तथा अलवर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। 25 दिसम्बर 1775 को प्रतापसिंह ने दुर्ग में प्रवेश किया।

प्रतापसिंह के वंशज बख्तावरसिंह ने अलवर दुर्ग में प्रतापसिंह का स्मारक बनवाया जो आज भी देखा जा सकता है। प्रतापसिंह के नाम पर ही प्रताप-बंध बनाया गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source