महाराणा जगतसिंह के बाद 10 अक्टूबर 1652 को राजसिंह, महाराणा हुआ। महाराणा बनने के बाद उसने एकलिंजी जाकर रत्नों का तुलादान दिया। रत्नों के तुलादान का सम्पूर्ण भारत में अब तक यही एक लिखित उदाहरण मिला है। शाहजहाँ ने राजसिंह को राणा का खिताब, पांच हजारी जात, पांच हजार का मनसब, देकर जड़ाऊ जमधन हाथी घोड़े वगैरह भेजे। राजसिंह ने, जगतसिंह के समय आरंभ हए चित्तौड़ दुर्ग के मरम्मत कार्य को तेजी से करवाना आरम्भ किया।
जब शाहजहाँ को ज्ञात हुआ कि गुहिलों द्वारा चित्तौड़ के दुर्ग की मरम्मत की जा रही है तो वह 4 अक्टूबर 1654 को अजमेर की जियारत के लिये रवाना हुआ तथा अपने वजीर सादुल्लाखां को 30 हजार की सेना देकर चित्तौड़ दुर्ग को ढहा देने के लिये भेजा। उसके साथ 1500 बंदूकची भी रवाना किये गये। यह समाचार पाकर राणा ने अपना वकील भेजकर दाराशिकोह के द्वारा क्षमा चाही। बादशाह ने युवराज को शाही दरबार में भेजने और 1000 सवार दक्षिण में रखने की शर्तें रखीं।
महाराणा ने इस समय लड़ाई करना उचित नहीं समझ कर अपने सैनिकों को चित्तौड़ से हटा लिया। सादुल्लाखां 15 दिन चित्तौड़ में रहा तथा वहाँ के बुर्जों और कंगूरों को गिराकर वापस लौट गया। इस कार्यवाही के बाद अजमेर की तरफ के पुर, मांडल, खैराबाद, मांडलगढ़, जहाजपुर, सावर, फूलिया, बनेड़ा, हुरडा तथा बदनौर आदि परगने शाही सीमा में मिला लिये गये।
महाराणा ने परिपक्व राजनीति का प्रदर्शन करते हुए सादुल्लाखां को वहाँ से न केवल सुरक्षित निकल जाने दिया अपितु जब बादशाह अजमेर से आगरा को लौट रहा था तब महाराणा ने अपने कुंवर को उसके पास भेजा। उस समय तक कुंवर का नाम नहीं रखा गया था इसलिये बादशाह ने उसका नाम सौभाग्यसिंह रखा तथा उसे बहुत से उपहार देकर और 6 दिन अपने पास रखकर उदयपुर के लिये विदा किया। महाराणा को यह नाम पसंद नहीं आया और उसने कुंवर का नाम सुल्तानसिंह रखा।
ई.1658 में जब शाहजहाँ बीमार पड़ा और उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ा तो महाराणा राजसिंह ने उपयुक्त समय जानकर शाहजहाँ द्वारा जब्त किये गये अपने परगनों पर अधिकार करने एवं शाही क्षेत्रों को लूटने का निर्णय लिया। सबसे पहले उसने मांडलगढ़ पर आक्रमण कर अपने अधिकार में लिया जिसे शाहजहां ने किशनगढ़ के राजा रूपसिंह को दे दिया था तथा वहाँ रूपसिंह का किलेदार महाजन राघवदास रहा करता था। इसके बाद महाराणा ने दरीबा, मांडल बनेड़ा, जहाजपुर, सावर, फूलिया और केकड़ी को अपने अधिकार में ले लिया।
शाहपुरा यद्यपि मेवाड़ राज्य के अधीन था तथा महाराणा अमरसिंह के छोटे भाई सूर्यमल का पुत्र सुजानसिंह वहाँ का सामंत था किंतु सुजानसिंह, सादुल्लाखां के चित्तौड़ अभियान में सादुल्लाखां के साथ चित्तौड़ गया था इसलिये महाराणा ने शाहपुरा पर आक्रमण करके उसे लूट लिया। सुजानसिंह का भाई वीरमदेव भी सादुल्लाखां के साथ चित्तौड़ गया था इसलिये महाराणा ने वीरमदेव के नगर को जलाकर भस्म कर दिया। महाराणा राजसिंह ने मालपुरा पहुंचकर वहाँ 9 दिन तक रुककर उसे लूटा। यहाँ बहुत बड़ी सम्पत्ति उसके हाथ लगी।
महाराणा के सेनापति फतहचंद ने टोडा पर आक्रमण कर वहाँ के सामंत रायसिंह की माता से 60 हजार रुपये वसूल किये। रायसिंह भी सादुल्लाखां के साथ चित्तौड़ गया था। इसके बाद महाराणा ने शाही अधिकार वाले क्षेत्रों- टोंक, सांभर, लालसोट और चाटसू पर आक्रमण कर वहाँ वालों से दण्ड लिया तथा चातुर्मास के पूर्व ही उदयपुर लौट आया।
इस प्रकार अमरसिंह के समय में जो संधि हुई थी उसकी परवाह किये बिना उसने अपने उन क्षेत्रों पर फिर से बलपूर्वक अधिकार कर लिया जो शाहजहाँ ने उससे छीने थे। महाराणा राजसिंह ने मुगलों के साथ संधि और सुलह की समस्त शर्तें पूरी तरह भंग कर दीं और उसी तरह का पूर्ण स्वतंत्र आचरण किया जिसके लिये गुहिल जाने जाते थे।