Saturday, July 27, 2024
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महाराणा अमरसिंह का जहांगीर से संघर्ष एवं सुलह – 1

प्रतापसिंह के पश्चात् अमरसिंह (ई.1597-1620) महाराणा हुआ। उसे अपने पिता के द्वारा, मृत्यु के समय दिया गया ताना सदैव स्मरण रहता था।  इसलिये वह प्राणपण से मेवाड़ की स्वतंत्रता बनाये रखने में जुटा रहा। अकबर अब भी मेवाड़ को नहीं भूला था। इसलिये ई.1600 में उसने अपने पुत्र सलीम को मेवाड़ पर आक्रमण करने भेजा। उसेक साथ मानसिंह आदि कई सेनापतियों को बड़ी सेना देकर भेजा गया। सलीम ने मेवाड़ में प्रवेश कर माण्डल, मोही, मदारिया, कोसीथल, बागौर, ऊँटाला आदि स्थानों पर थाने बैठा दिये।

जगह-जगह लड़ाइयां होती रहीं किंतु सलीम ने पहाड़ी प्रदेश में आगे बढ़ने का साहस नहीं किया। उसने ऊँटाले के गढ़ में बड़े सैन्य सहित कायमखां को नियत किया। महाराणा ने शाही थानों पर आक्रमण करने का निश्चय करके ऊंटाले पर चढ़ाई की। दोनों पक्षों में हुए घमासान में मुगल परास्त हो गये। कायमखां सहित अनेक मुगल सरदारों को बंदी बना लिया गया। ऊंटाले पर अधिकार करने के बाद महाराणा, मांडल और बागौर आदि शाही थानों को लूटता हुआ मालपुरा तक पहुंचा गया और उसके आसपास के क्षेत्र को लूटा। कई थानों के अफसर थाने छोड़कर भाग गये।  सलीम भी निराश होकर मेवाड़ से बंगाल चला गया।

ई.1603 में अकबर ने एक बार पुनः सलीम को मेवाड़ पर आक्रमण करने भेजा। कच्छवाहा जगन्नाथ, राय रायसिंह, कच्छवाहा माधोसिंह, राव दुर्गा, राय भोज तथा उसका पुत्र दलपतसिंह, मोटाराजा उदयसिंह के पुत्र विक्रमाजीत और दलपत आदि कई राजपूत सरदार उसके साथ भेजे गये। अकबर के भय से सलीम सेना लेकर वहाँ से चल दिया किंतु फतहपुर में आकर ठहर गया। वहाँ से उसने अपनी सेना तैयार न होने का बहाना करके अकबर के पास अर्जी भेजी कि मुझे अतिरिक्त सेना और खजाने की आवश्यकता है।

अतः ये दोनों बातें स्वीकार की जाएं। अन्यथा मुझे अपनी जागीर इलाहाबाद जाने की आज्ञा दी जाए। अकबर ने सलीम को इलाहाबाद जाने की आज्ञा दे दी और शहजादा खुसरो तथा राणा सगर को मेवाड़ पर भेजने का विचार किया किंतु अकबर बीमार पड़ा और उनका भेजा जाना स्थगित कर दिया गया। इस प्रकार महाराणा प्रतापसिंह के स्वर्गारोहण के आठ साल बाद तक अकबर जीवित रहा किंतु वह मेवाड़ को नहीं जीत सका। 15 अक्टूबर 1605 को आगरा के महलों में अकबर की मृत्यु हुई।

मुगलों की राजनीति में मेवाड़ एक कांटे की तरह गड़ गया था जिसे निकालकर फैंकना असंभव सी बात हो गई थी किंतु उसकी तरफ से दृष्टि भी नहीं हटाई जा सकती थी। अकबर के बाद सलीम, जहांगीर के नाम से मुगलों के तख्त पर बैठा। उसने तुजुके जहांगीरी में लिखा है- ‘मेरी गद्दीनशीनी के समय सब अमीर अपनी-अपनी सेना सहित दरबार में उपस्थित थे। मैंने सोचा कि इस सेना को शहजादे परवेज की अध्यक्षता में राणा पर भेजा जाये जो हिन्दुस्तान के दुष्टों और कट्टर काफिरों में है। मेरे पिता के समय में भी कई बार उस पर सेनाएं भेजी गई थीं किंतु उसने हार नहीं खाई थी।’

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जहांगीर ने अपने पुत्र परवेज की अध्यक्षता में 20 हजार सवारों तथा आसफखां वजीर, अब्दुर्रजाक मामूरी, मुख्तारबेग, राजा भारमल के पुत्र जगन्नाथ, राणा सगर, कच्छवाहा मानसिंह के भाई माधवसिंह, रायसल शेखावत, शेख रुकनुद्दीन, पठान शेरखां, अबुलफजल के पुत्र अब्दुर्रहमान, राजामानसिंह के पोते महासिंह, सादिकखां के पुत्र जाहिदखां, वजीन जमील, कराखां तुर्कमान, मनोहरसिंह शेखावत आदि अफसरों को मेवाड़ पर भेजा और शहजादे से कहा कि यदि राणा तथा उसका ज्येष्ठ पुत्र कर्ण तुम्हारे पास उपस्थित हो जाये और सेवा स्वीकार कर ले तो उसके मुल्क को मत बिगाड़ना।

इधर परवेज मेवाड़ की तरफ बढ़ा और उधर महाराणा ने देसूरी, बदनोर, मांडलगढ़, मांडल और चित्तौड़ की तलहटी में स्थित मुगल सेनाओं पर आक्रमण किया। परवेज अपनी समस्त सेनाएं एकत्रित करके ऊंटाला और देबारी के बीच आ गया। महाराणा ने इस सेना पर आक्रमण करके इसे बुरी तरह परास्त किया जिसके कारण परवेज मांडल की तरफ चला गया। इससे महाराणा को संभलने का अवसर मिल गया।

जहांगीर ने परवेज से नाराज होकर उसे युवराज पद से खारिज कर दिया और शाही अफसरांे को अलग-अलग पत्र लिखे जिनमें उनका दोष बताया गया था।  जहांगीर ने परवेज को मेवाड़ पर भेजते समय महाराणा अमरसिंह के चाचा सगर को चित्तौड़ का दुर्ग और शाही अधिकार वाला अधिकांश मेवाड़ प्रदेश दे दिया था ताकि मेवाड़ के सरदार राणा अमरसिंह को छोड़कर सगर की सेवा में चले जाएं किंतु महाराणा के स्वामिभक्त सरदारों पर इसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ा और कुछ ही वर्षों बाद सगर को राणा की पदवी छोड़कर फिर रावत की पदवी धारण करने का अपमान सहन करना पड़ा तथा चित्तौड़ के किले से भी हाथ धोना पड़ा।

परवेज के असफल सिद्ध हो जाने पर जहांगीर ने महाबतखां को 12 हजार सवार, 500 अहदी सैनिक , 2000 बंदूकची, 70-80 तोपें तथा 20 लाख रुपये देकर मेवाड़ पर चढ़ाई करने भेजा। जफरखां, शुजाअतखां, राजा वीरसिंह बुंदेला, मंगलीखां, कच्छवाहा नारायणदास, अलीकुली दरमन, हिजब्रखां, बहादुरखां, बख्शी मुहज्जुलमुल्क और किशनसिंह राठौड़ आदि अमीरों और सरदारों को महाबतखां के साथ भेजा।

महाबतखां का मनसब बढ़ाकर 3000 जात तथा 2500 सवार कर दिया।  महाबतखां 28 जुलाई 1608 को मेवाड़ के लिये रवाना हुआ।  जब महाबतखां मोही में था तब उससे किसी ने कहा कि महाराणा का खजाना मारवाड़ राज्य में छिपा हुआ है। इस पर महाबतखां ने मारवाड़ राज्य का सोजत परगना महाराजा सूरसिंह से छीनकर राठौड़ करमसेन को दे दिया। उस समय सूरसिंह मुगलों की तरफ से दक्षिण के मोर्चे पर जा रहा था और वह कुछ नहीं कर सका। महाबतखां स्थान-स्थान पर शाही थाने बैठाता हुआ ऊंटाले पहुंचा।

 महाराणा के आदेश से रावत मेघसिंह ने 5000 राजपूतों के साथ रात के समय शाही फौज पर आक्रमण करके उसके बहुत से सैनिकों को मार डाला। महाबतखां अपनी सेना सहित भाग निकला। मेघसिंह की सेना ने शाही फौज का सामान लूट लिया। 

महाबतखां के असफल रहने पर जहांगीर ने उसे वापस बुला लिया और उसके स्थान पर अब्दुल्लाखां को फीरोजजंग का खिताब देकर मेवाड़ के लिये रवाना किया और बख्शी अब्दुलरज्जाक को भेजकर सब मनसबदारों से कहलवाया कि वे फीरोजजंग की आज्ञा का उल्लंघन न करें और उसका कहना मानें। कुछ दिनों बाद जहांगीर ने उसकी सहायता के लिये 370 अहदी सवारों के अतिरिक्त शाही अस्तबल के 100 घोड़े भी इस अभिप्राय से भेजे कि जिन मनसबदारों और अहदियों को अब्दुल्लाखां मुनासिब समझे, उन्हें वे दे दिये जाएं। 

अब्दुल्लाखां ने महाराणा के विरुद्ध कुछ सफलता प्राप्त की जिसकी सूचना मिलने पर जहांगीर ने उसका मनसब पांच हजारी कर दिया तथा अब्दुल्लाखां की सिफारिश पर अन्य अधिकारियों के पद में भी वृद्धि की।  मुगलों की सामग्री, रसद और खजाना आगरा से दक्षिण की तरफ आते-जाते थे जिन्हें महाराणा प्रताप के समय से ही मेवाड़ के सैनिक लूट लेते थे।

इसलिये अब्दुल्लाखां ने मोही में मारवाड़ राज्य के राजकुमार गजसिंह को बुलाकर कहा कि महाराजा सूरसिंह तो दक्षिण के मोर्चे पर है यदि तुम नाडोल थाने पर रहना स्वीकार करो तो सोजत का परगना तुम्हें मिल सकता है। गजसिंह ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा कुंवर गजसिंह, भाटी गोइंददास सहित 2400 सवार और 200 तोपचियों के साथ सोजत के थाने पर रहने लगा।

ई.1611 में अब्दुल्लाखां ने राणपुर की घाटी के पास मेवाड़ी सेना पर आक्रमण किया। इस युद्ध में अब्दुल्लाखां परास्त हो गया तथा बादशाही अधिकार वाले गोड़वाड़ प्रदेश पर फिर से महाराणा का अधिकार हो गया। कुछ दिन बाद केलवा गांव के पास भी दोनों पक्षों में लड़ाई हुई जिसमें पुनः अब्दुल्लाखां की हार हुई। इस पर जहांगीर ने अब्दुल्लाखां को मेवाड़ से हटाकर गुजरात भेज दिया तथा उसकी जगह बासु को मेवाड़ पर भेजा गया।  बासु मेवाड़ की सीमा पर शाहाबाद में मर गया।

अब जहांगीर के पास कोई उपाय नहीं बचा था सिवाय इसके कि मेवाड़ अभियान का दायित्व वह स्वयं ले। अकबर के जीवित रहते, जहांगीर जिस मेवाड़ की तरफ मुंह करके भी नहीं सोता था, वही मेवाड़ अब जहांगीर को आगरा से बाहर खींच रहा था। जहांगीर, ज्योतिषियों से मुहूर्त निकलवाकर 7 सितम्बर 1613 को आगरा से प्रस्थान कर 8 नवम्बर 1613 को अजमेर पहुंचा।

जहांगीर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘मेरी इस चढ़ाई के दो अभिप्राय थे, एक तो ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की जियारत करना और दूसरा बागी राणा को जो हिन्दुस्तान के मुख्य राजाओं में से है और जिसकी तथा जिसके पूर्वजों की श्रेष्ठता और अध्यक्षता यहाँ के सब राजा स्वीकार करते हैं, अधीन करना।

जहांगीर मेवाड़ पर विजय का श्रेय तो लेना चाहता था किंतु पराजय के कलंक से दूर रहना चाहता था। इसलिये वह स्वयं तो अजमेर में रुक गया तथा अपने पुत्र खुर्रम को इनाम इकराम से उत्साहित कर मेवाड़ पर भेजा। जहांगीर ने मुगल सल्तनत की सम्पूर्ण शक्ति एक साथ ही मेवाड़ के विरुद्ध झौंकने का निर्णय लिया। खुर्रम के साथ मुगल राज्य के समस्त प्रसिद्ध राजा, अमीर और सेनापति मेवाड़ के लिये रवाना किये गये।

इनमें जोधपुर का राजा सूरसिंह, किशनगढ़ का राजा किशनसिंह, बूंदी का राव रत्न हाड़ा, तंवरों के राजा बासु के पुत्र सूरजमल तंवर और जगतसिंह तंवर, बुंदेलखण्ड का राजा वीरसिंह बुंदेला तो थे ही, साथ ही दक्षिण के मोर्चे पर लड़ रहे समस्त प्रमुख मुगल सेनापति एवं गुजरात तथा मालवा आदि सूबों में नियुक्त सूबेदार भी बुला लिये गये। इस प्रकार इस बार मेवाड़ की तरफ इतनी बड़ी सेना रवाना की गई जितनी बड़ी पहले कभी नहीं थी।

 इस विशाल सेना को रसद एवं युद्धसामग्री पहुंचाने तथा उसके मार्ग में लूट लिये जाने से बचाने के विशेष प्रबंध किये गये। महाराणा की नाकाबंदी करने के लिये मांडल, कपासन, ऊंटाला, नाहर मगरा, डबोक, देबारी के थानों पर बड़ी सेनाएं नियुक्त की गईं।

मुगलों की इस सेना के मुकाबले में महाराणा की सेना अत्यंत अल्प रह गई। महाराणा सांगा की मृत्यु के समय से ही मेवाड़ी सेना की संख्या लगातार कम होती जा रही थी। महाराणा रत्नसिंह, विक्रमसिंह, उदयसिंह, प्रतापसिंह तथा अमरसिंह के समय में भी निरंतर युद्ध चलते रहे थे जिनसे मेवाड़ का सैन्यबल दिन प्रति दिन छीज रहा था। फिर भी महाराणा की सेवा में गुहिलों के साथ-साथ अन्य राजपूत वंशों के सामंत रहते थे जिस कारण मेवाड़ की सेना में झाला, सोलंकी, डोडिया, पंवार, राठौड़, चौहान आदि सैनिक भरती होते रहते थे। महाराणा को अपने सैनिकों के युद्ध कौशल एवं वीरत्व पर भरोसा था। इस कारण महाराणा में अब भी मुगलों की प्रबल सत्ता के विरुद्ध टिके रहने का साहस शेष था। महाराणा ने अपने सामंतों को आज्ञा दी कि जहाँ अवसर मिले, पहाड़ों में लड़ाई की जाये और शाही फौज की रसद लूट ली जाए।

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