Saturday, July 27, 2024
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महाराणा जगतसिंह द्वारा संधि एवं सुलह युग का अंत

मार्च 1628 में महाराणा कर्णसिंह का निधन हो गया उसका पुत्र जगतसिंह महाराणा बना। शाहजहाँ ने जगतसिंह को पांच हजारी जात, पांच हजार का मनसब, राणा का खिताब तथा बहुत से उपहार भिजवाये। उसके गद्दी पर बैठते ही देवलिया के रावत जसवंतसिंह ने मेवाड़ राज्य से अलग होने का प्रयास किया। महाराणा ने जसवंतसिंह तथा उसके पुत्र को मरवा दिया और राठौड़ रामसिंह को भेजकर देवलिया लूट लिया। जसवंतसिंह का छोटा पुत्र हरिसिंह तुरंत शाहजहाँ की सेवा में पहुंचा। शाहजहाँ के आदेश से देवलिया राज्य, मेवाड़ से स्वतंत्र हो गया।

महाराणा प्रताप के समय से ही डूंगरपुर राज्य, मेवाड़ की अधीनता त्यागकर, मुगलों की अधीनता में चला गया था। महाराणा जगतसिंह ने डूंगरपुर को फिर से मेवाड़ के अधीन करने के लिये अपने मंत्री अक्षयराज की अध्यक्षता में एक सेना डूंगरपुर भेजी। अक्षयराज के आते ही रावल पुंजा, डूंगरपुर छोड़कर पहाड़ों में चला गया। अक्षयराज ने शहर को लूटकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया तथा महलों के चंदन का गवाक्ष गिरा दिया।  डूंगरपुर राज्य पर आक्रमण करके महाराणा जगतसिंह ने मुगल राजनीति में अमरसिंह युग के अंत होने का संकेत दिया तथा मेवाड़ पुनः अपनी स्वतंत्र राजनीति के लिये कटिबद्ध हो गया। संभवतः शाहजहां द्वारा महाराणा कर्णसिंह के उपकारों को भुलाकर, मेवाड़ के विरुद्ध देवलिया को सहायता दिये जाने एवं देवलिया को मेवाड़ राज्य से स्वतंत्र कर देने की प्रतिक्रिया में महाराणा ने यह कदम उठाया।

सिराही का राव अखैराज भी, महाराणा कर्णसिंह के उपकार भुलाकर महाराणा जगतसिंह के विरुद्ध आचरण करने लगा। इस पर महाराणा जगतसिंह ने सेना भेजकर उसका प्रदेश लूटा और तोगा बालेचा का, जो अखैराज की अधीनता स्वीकार कर चुका था, इलाका छीन लिया।

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देवलिया और डूंगरपुर की तरह बांसवाड़ा का राजा समरसी भी शाही हिमायत के बल पर महाराणा की उपेक्षा करने लगा। इसलिये महाराणा ने अपने प्रधान भागचंद को सेना सहित उस पर भेजा। समरसी पहाड़ों में भाग गया। भागचंद वहाँ 6 मास तक रहा और नगर को लूटा। समरसी अपने प्रदेश की ऐसी बरबादी देखकर वहाँ आया और 2 लाख रुपये दण्ड देकर क्षमा मांगी तथा महाराणा की अधीनता स्वीकार कर ली। 

महाराणा द्वारा देवलिया (प्रतापगढ़), सिरोही, डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा पर आक्रमण करने की सूचना पाकर शाहजहाँ नाराज हुआ। महाराणा को जब बादशाही अप्रसन्नता का समाचार मिला तो उसने झाला कल्याण को बादशाह के पास भेजा। कल्याण ने महाराणा की तरफ से एक हाथी और एक अर्जी पेश की। डेढ़ माह तक कल्याण बादशाह के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा करता रहा।

लगभग डेढ़ माह बाद बादशाह ने उसे खिलअत और घोड़ा दिया तथा महाराणा के लिये बहुमूल्य खिलअत, सोने-चांदी की जीनवाले दो खासा घोड़े, एक हाथी और जड़ाऊ कंठी देकर उसे विदा किया।  स्पष्ट है कि शाहजहां, मेवाड़ से दुबारा टकराव नहीं चाहता था। इसलिये उसने पूर्व की तरह मित्रवत् व्यवहार करना आरम्भ कर दिया। जब ई.1643 में शाहजहाँ अजमेर आया तब महाराणा ने कुंवर राजसिंह को उससे मिलने के लिये भेजा। यहाँ भी उपहारों और खिलअतों का आदान-प्रदान हुआ।

जहांगीर के समय में हुई संधि में यह निश्चित हुआ था कि महाराणा चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत नहीं करायेगा किंतु महाराणा जगतसिंह ने चित्तौड़ दुर्ग में मरम्मत कार्य आरम्भ कर दिया। महाराणा जगतसिंह का यह कार्य, महाराणा अमरसिंह के काल में हुई संधि का स्पष्ट उल्लंघन था। इसे मुगल राजनीति में अमरसिंह युग का अंत भी कहा जा सकता है। 10 अप्रेल 1652 को महाराणा जगतसिंह का निधन हो गया।

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