महाराणा अमरसिंह की मृत्यु का समाचार सुनकर जहांगीर ने कर्णसिंह के लिये राणा की पदवी का फरमान और राज्यतिलक के उपलक्ष्य में खिलअत, हाथी, घोड़ा आदि के साथ राजा कृष्णसिंह को महाराणा अमरसिंह की मृत्यु की मातमपुरसी करने और महाराणा कर्णसिंह के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में बधाई देने उदयपुर भेजा। कर्णसिंह ने अपने राज्यकाल में शांति और समय का उपयोग राज्यव्यवस्था सुधारने में किया। जहांगीर के पास आने-जाने से उसे काफी अनुभव हो गया था तथा अपने पिता के समय से ही वह राज्य का समस्त कार्य करता था। अतः मेवाड़ में चारों ओर व्यवस्था और शांति व्याप्त हो गई जिससे व्यापार और कृषि की उन्नति हुई।
सिरोही का राव राजसिंह, कर्णसिंह का भान्जा था। सिरोही राज्य में राव राजसिंह के समय में देवड़ा पृथ्वीराज, राव राजसिंह का विरोधी हो गया और उसको मारने की ताक में लगा रहता था। महाराणा कर्णसिंह ने दोनों को उदयपुर बुलाया तथा उनमें मेल कराने का प्रयास किया। महाराणा ने अपने कुछ अधिकारी भी राजसिंह की रक्षा के लिये सिरोही भेज दिये।
एक दिन पृथ्वीसिंह ने रात के समय महल में घुसकर राव राजसिंह को मार डाला। राव राजसिंह का पुत्र अखैराज उस समय दो वर्ष का था, उसकी धाय ने उसे बचा लिया। महाराणा कर्णसिंह के अधिकारियों ने पृथ्वीराज का पीछा किया। वह पालड़ी चला गया। जब कर्णसिंह को यह समाचार मिला तो उसने अपनी सेना सिरोही भेज दी तथा अखैराज को सिरोही का राजा बनाने एवं पृथ्वीसिंह को देश से निकालने में सहायता दी।
अकबर के समय से ही मुगल शहजादों द्वारा अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करके मुगलिया तख्त पर अधिकार जमाने का प्रयास करने की परम्परा स्थापित हो गई थी। जहांगीर ने अकबर के जीवित रहते ही कई बार विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। जब जहाँगीर बीमार पड़ा तो खुर्रम में, तख्त प्राप्त करने की आतुरता बढ़ गई। नूरजहाँ, अपने जामाता शहरियार के पक्ष में अपने प्रभाव का प्रयोग कर रही थी। ई.1622 में फारस के शाह ने कन्दहार पर अधिकार कर लिया।
जहाँगीर ने खुर्रम को आज्ञा दी कि वह दक्षिण से सेनाओं के साथ कन्दहार के लिये प्रस्थान करे। चूँकि राजधानी में खुर्रम के शत्रु षड्यन्त्र रच रहे थे, इसलिये खुर्रम ने राजधानी से बहुत दूर जाना हितकर नहीं समझा। वह माण्डू चला आया और वहीं से बादशाह को, कन्दहार जाने के लिये अपनी शर्तें लिख भेजीं। शहजादे ने मांग की कि रणथम्भौर का दुर्ग उसे दे दिया जाय, जिसमें वह अपने परिवार को रख दे। पंजाब का प्रान्त उसे दे दिया जाय, जिसे वह अपना आधार बना ले और वर्षा ऋतु माण्डू में ही व्यतीत करने की अनुमति दी जाए। जहाँगीर को खुर्रम की तीनों शर्तें मान्य नहीं हुईं। इसलिये कन्दहार की सुरक्षा का काम शहरियार को सौंप दिया गया।
खुर्रम ने जहाँगीर से प्रार्थना की थी कि आगरा के निकट स्थित धौलपुर की जागीर उसे दे दी जाये परन्तु बादशाह ने यह जागीर शहरियार को दे दी तथा शहरियार ने उस पर अपना अधिकार जमा लिया था। जब खुर्रम को इसकी सूचना मिली तो उसने अपने आदमियों को धौलपुर भेजकर वहाँ से शहरियार के आदमियों को मार भगाया और बलपूर्वक धौलपुर तथा नूरजहाँ की जागीर के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया।
जब जहाँगीर को इसकी सूचना मिली तो उसने खुर्रम को दण्ड देने की धमकी दी और खुर्रम से दोआब तथा हिसार फिरोजा की जागीर छीनकर शहरियार को दे दी। इस प्रकार खुर्रम के प्रतिद्वन्द्वी शहरियार को प्रोत्साहन मिलने लगा। इससे खुर्रम का धैर्य भंग हो गया और उसने खुल्लमखुल्ला विरोध करने का निश्चय कर लिया।
ई.1622 में खुर्रम ने अपने पिता जहांगीर से विद्रोह किया तथा दक्षिण से चलकर सैन्य सहित आगरा की ओर बढ़ने लगा। मार्ग में वह उदयपुर में महाराणा के पास आया। वह कुछ दिन तक देलवाड़ा की हवेली और जग मंदिर में ठहरा। यह वही खुर्रम था जिसने गुहिलों को मुगलों से संधि एवं सुलह करने पर विवश कर दिया था और आज वह अपने पिता से तख्त छीनने के लिये गुहिलों की सहायता मांगने आया था।
विदा होते समय उसने महाराणा कर्णसिंह के साथ पगड़ी बदल कर उससे भाईचारा स्थापित किया। खुर्रम की यह पगड़ी उदयपुर में अब तक सुरक्षित है। मुगलों से संधि कर शांति प्राप्त करने की कीमत चुकाने का समय आ गया था। खुर्रम, किसी भी तरह बादशाह बनना चाहता था और इस कार्य में वह मेवाड़ से मदद लेना चाहता था। महाराणा ने अपने सेनापति भीमसिंह को उसके साथ कर दिया।
खुर्रम उदयपुर से माण्डू, असीरगढ़, बुरहानपुर, गोलकुण्डा होता हुआ उड़ीसा और बंगाल पहुंच गया। वहाँ ढाका और अकबरनगर आदि की लड़ाइयों में विजय प्राप्त कर उसने बंगाल पर अधिकार कर लिया। इन युद्धों में भीमसिंह ने बड़ी वीरता दिखाई जिससे प्रसन्न होकर खुर्रम ने उसे 2 लाख रुपये पुरस्कार में दिये। इसके बाद खुर्रम ने भीमसिंह को पटना पर आक्रमण करने भेजा। पटना पर उस समय परवेज की तरफ से मुखलिसखां नियुक्त था। भीमसिंह के आते ही मुखलिसखां पटना छोड़कर भाग गया।
टोंस नदी के किनारे कम्पत में शाही सेना खुर्रम से लड़ने आई। शाही सेना के 40 हजार सैनिकों ने खुर्रम को तीनों ओर से घेर लिया। जोधपुर का राजा गजसिंह तथा आंबेर का राजा जयसिंह भी शाही सेना में सम्मिलित थे। अब्दुल्लाखां ने खुर्रम को सलाह दी कि शाही सेना से लड़े बिना ही यहाँ से निकल जाना चाहिये किंतु भीमसिंह ने तुरंत शाही सेना पर धावा बोलने की सलाह दी। खुर्रम ने भीमसिंह की सलाह मानकर शाही सेना पर धावा बोल दिया।
भीमसिंह स्वयं हरावल में रहा। उसके सामने तोपखाना रखा गया तथा दायीं और बाईं ओर दर्याखां तथा पहाड़सिंह बुंदेला को नियुक्त किया गया। शाही सेना ने खुर्रम का तोपखाना छीन लिया। यह देखकर दायीं और बायीं तरफ खड़ी दर्याखां और पहाड़सिंह बुंदेला की सेना भाग गई। इस पर भी भीमसिंह ने हिम्मत नहीं हारी और तेजी से धावा बोलकर आंबेर और जोधपुर की सेनाओं को तितर-बितर करता हुआ परवेज तक जा पहुंचा।
इस समय जो कोई उसके सामने आया वह तलवार और भालों से मारा गया। अंत में भीमसिंह युद्धक्षेत्र में काम आया किंतु उसने अपने हाथ से तलवार नहीं छोड़ी। भीमसिंह के गिरते ही खुर्रम पटना होता हुआ दक्षिण को लौट गया।
अक्टूबर 1627 में जहांगीर का निधन हो गया। उस समय खुर्रम दक्षिण में था। वह तुरंत आगरा के लिये रवाना हो गया और गुजरात होता हुआ गोगूंदा आया। यहाँ पर महाराणा ने खुर्रम का स्वागत किया और अपने भाई अर्जुनसिंह को खुर्रम के साथ कर स्वयं उदयपुर चला गया। उदयपुर पहुंचकर महाराणा बीमार पड़ गया। उधर खुर्रम आगरा पहुंचकर शाहजहाँ के नाम से बादशाह बनने में सफल हो गया।