महाराणा राजसिंह वीर, बुद्धिमान और प्रतिष्ठित राजा था। उसमें राजनीतिक चातुर्य कूट-कूट कर भरा था। अवसर को पहचानने और उसका लाभ उठाने की उसमें अद्भुत क्षमता थी। जब उसने देखा कि मुगल शहजादे परस्पर संघर्ष में उलझ गये हैं तथा शाहजहां को बंदी बना लिया गया है तब उसने मेवाड़ के उन क्षेत्रों को पुनः प्राप्त कर लिया जो शाहजहां के काल में मेवाड़ से छीन लिये गये थे। जिस समय उसे लगा कि उत्तराधिकार के संघर्ष में औरंगजेब का पलड़ा भारी पड़ रहा है तो उसने औरंगजेब से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का निश्चय किया।
औरंगजेब से मित्रता की स्थापना
जब औरंगजेब समूनगर की लड़ाई में विजयी होकर आगरा आया तब 11 जून 1658 को सलीमपुर में महाराणा के कुंवर सुल्तानसिंह ने अपने चाचा अरिसिंह सहित औरंगजेब के समक्ष उपस्थित होकर उसे बधाई दी। दोनों ओर से बहुमूल्य उपहारों का आदान-प्रदान किया गया। औरंगजेब ने महाराणा का मनसब बढ़ाकर छः हजार जात और 6 हजार सवार का कर दिया। औरंगजेब ने इस अवसर पर पांच लाख रुपये, हाथी एवं हथिनी इनाम के तौर पर महाराणा को भेजे। साथ ही बदनोर, मांडलगढ़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, बसावर और गयासपुर के इलाके भी महाराणा को दे दिये।
मुगल शहजादों की राजनीति में सक्रिय भागीदारी
औरंगजेब तथा शुजा के बीच हुई लड़ाई में भी महाराणा का कुंवर सरदारसिंह शाही सेना में पहुंचा। उसे भी औरंगजेब ने अनेक उपहार दिये। इधर औरंगजेब महाराणा राजसिंह को अपने पक्ष में रखने के लिये उस पर उपहारों और परगनों की बरसात कर रहा था और उधर दारा शिकोह भी महाराणा की सहायता का आकांक्षी था। 15 जनवरी 1659 को उसने महाराणा राजसिंह के नाम एक निशान भेजा जिसमें अपने सिरोही आने का उल्लेख करते हुए लिखा कि हमने अपनी लाज राजपूतों पर छोड़ी है और हम, सब राजपूतों के मेहमान होकर आये हैं। महाराणा तमाम राजपूतों का सरदार है।
हमें इन दिनों ज्ञात हुआ कि महाराणा का बेटा औरंगजेब के पास से चला आया है। ऐसी अवस्था में हम उस उत्तम राजा से आशा करते हैं कि वह हमसे मिलकर आला हजरत (शाहजहाँ) को कैद से छुड़ाने में हमारी सहायता करे। यदि वह स्वयं न आ सके तो किसी रिश्तेदार को दो हजार सवारों सहित हमारे पास भेज दे। महाराणा ने दारा शिकोह के पत्र पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। क्योंकि महाराणा तो पहले से ही औरंगजेब का पक्ष लेता था और जब वह दारा शिकोह से लड़ने के लिये अजमेर की तरफ आ रहा था, उस समय फतहपुर में महाराणा की ओर से उसके पास दो तलवार जड़ाऊ सामान सहित और मीनाकारी के कामवाला बर्छा पहुंच गया था।
डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ पर अधिकार
औरंगजेब द्वारा भेजे गये फरमान के अनुसार महाराणा ने डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ आदि राज्यों पर अधिकार करने के लिये अपनी सेनाएं भेजीं। बांसवाड़ा के रावल समरसिंह ने महाराणा के प्रधान फतहचंद को एक लाख रुपया, दस गांव, चुंगी का अधिकार, एक हाथी और एक हथिनी देकर महाराणा की अधीनता स्वीकार की। महाराणा ने उसे दस गांव, देशदाण और बीस हजार रुपये छोड़ दिये। महाराणा राजसिंह स्वयं बड़ी सेना लेकर बसावर (बसाड़, मंदसौर का एक भाग) पर चढ़ा जिससे महारावत हरिसिंह की हिम्मत टूट गई।
महाराणा ने फतहचंद को बांसवाड़ा से देवलिया पर भेजा। रावत हरिसिंह भागकर औरंगजेब के पास चला गया। हरिसिंह की माता ने अपने पौत्र प्रतापसिंह को फतहचंद के पास भेजा और पांच हजार रुपये सहित एक हथिनी दण्ड में दी। फतहचंद प्रतापसिंह को महाराणा के पास ले आया। जब हरिसिंह को बादशाह से सहायता न मिली तब उसने महाराणा के सरदारों की सहायता से महाराणा की शरण ग्रहण की तथा 50 हजार रुपये, एक हाथी और एक हथिनी नजर की। इसी तरह डूंगरपुर के रावल गिरिधर ने भी महाराणा की सेवा स्वीकार कर ली।
राठौड़ राजकुमारी चारुमति से विवाह
ई.1660 में औरंगजेब ने किशनगढ़ के राजा मानसिंह की बहिन चारुमती से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। अल्पवयस्क राजा मानसिंह को औरंगजेब का प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा। चारुमती भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थी। जब उसने सुना कि उसका विवाह मुसलमान बादशाह से होने वाला है तो उसने महाराणा राजसिंह के पास अर्जी भेजी कि आप मेरे साथ विवाह करके मेरे धर्म की रक्षा करें। इस पर महाराणा ससैन्य किशनगढ़ पहुंचा और चारुमती से विवाह करके उसे अपने यहाँ ले आया। इस पर औरंगजेब ने क्रुद्ध होकर बसावर और गयासपुर के परगने पुनः हरिसिंह को दे दिये।
सिरोही राज्य को सहायता
ई.1663 में सिरोही के राजकुमार उदयभान ने अपने पिता राव अखैराज को बंदी बना लिया और स्वयं सिंहासन पर बैठ गया। महाराणा राजसिंह ने जब यह सुना तो अखैराज के साथ पुराने सम्बन्ध होने से, अपनी सेना भेजकर उदयभान को सिरोही से निकाल दिया तथा अखैराज को फिर से सिरोही का राजा बनाया। ई.1677 में जब सिरोही के राव वैरीसाल के शत्रु उसको राज्यच्युत करने लगे तब महाराणा ने उसकी सहायता कर उसका राज्य स्थिर किया और उसके बदले में एक लाख रुपया और कोरटा आदि 5 गांव लिये।
औरंगजेब की नाराजगी
औरंगजेब, महाराणा की इन सब कार्यवाहियों के कारण महाराणा से अप्रसन्न हो गया। इसलिये महाराणा के विरुद्ध कार्यवाही करने के विचार से औरंगजेब ई.1679 में अजमेर पहुंचा। बादशाह की मंशा जानकर महाराणा ने अपना वकील उसके पास भेजा। बादशाह ने महाराणा के नाम फरमान भेजकर कुंवर को भेजने के लिये लिखा तो महाराणा ने उत्तर दिया कि आपकी तरफ से किसी आदमी के आने पर मैं कुंवर को भेज दूंगा।
इस पर औरंगजेब ने कामबख्श के बख्शी मुहम्मद नईम को मेवाड़ भेजा। महाराणा ने उसके साथ कुंवर जयसिंह को बादशाह के पास भेज दिया। मेवाड़ के भी कई सरदार, कुंवर की सेवा में गये। जब बादशाह दिल्ली के पास पहुंचा तब, नागौर का राव इंद्रसिंह कुंवर को लेकर औरंगजेब के दरबार में गया। औरंगजेब ने कुंवर को ढेर सारे उपहार हाथी, घोड़े और नगद रुपये देकर मेवाड़ के लिये विदा किया।
द्वारिकाधीश एवं श्रीनाथजी के विग्रहों की मेवाड़ में स्थापना
ई.1669 में औरंगजेब ने हिन्दुओं के समस्त मंदिरों एवं पाठशालाओं को तोड़ने का आदेश जारी किया। हिन्दुओं को धार्मिक ग्रंथ पढ़ने पर मनाही हो गई। सोमनाथ (काठिायावाड़), विश्वनाथ (बनारस), केशवराय (मथुरा), आदि के प्रसिद्ध मंदिर भी उसके हाथों से नहीं बचे। भारत में सम्पूर्ण मंदिरों को नष्ट करने के लिये स्थान-स्थान पर मुगल अधिकारी नियुक्त किये गये। उनके ऊपर उनके कार्य का निरीक्षण करने के लिये उच्च अधिकारी नियुक्त किये गये।
इस प्रकार हिन्दुओं के हजारों मंदिर और हजारों मूर्तियां तोड़ दी गईं। हिन्दू प्रजा में हाहाकार मच गया किंतु मेवाड़ के महाराणा को छोड़कर किसी अन्य हिन्दू राजा की हिम्मत नहीं हुई कि औरंगजेब के इस कुकृत्य का विरोध कर सके। गोवर्धन की मुख्य मूर्तियों को तोड़ने की आज्ञा हुई तब द्वारिकाधीश की मूर्ति मेवाड़ में लाई गई तथा कांकरोली में उसकी प्रतिष्ठा की गई। गुसाईं दामोदर गोवर्धन में स्थित श्रीनाथजी की मूर्ति को लेकर राजपूताना चला आया।
वह मूर्ति को लेकर बूंदी, कोटा, पुष्कर, किशनगढ़ तथा जोधपुर राज्यों में गया किंतु किसी भी राजा ने औरंगजेब के भय से उस मूर्ति को अपने राज्य में रखना स्वीकार नहीं किया। इस पर गुसाईं दामोदर का काका गोपीनाथ महाराणा राजसिंह के पास गया। महाराणा ने उससे कहा कि आप प्रसन्नतापूर्वक श्रीनाथजी को ले आइये। मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कट जाने के बाद औरंगजेब, श्रीनाथजी की मूर्ति के हाथ लगा सकेगा। मूर्ति को सीहाड़ (नाथद्वारा) गांव में प्रतिष्ठित कराया गया। महाराणा के इस कदम से औरंगजेब बुरी तरह तिलमिला गया किंतु कुछ भी न कर सका।
औरंगजेब द्वारा जजिया लगाये जाने पर महाराणा का विरोध
ई.1679 में बादशाह ने समस्त हिन्दुओं पर जजिया नामक अपमानजनक कर लगा दिया। जब यह आज्ञा प्रचलित हुई तो दिल्ली तथा आगरा के आसपास से हजारों हिन्दू यमुना किनारे बादशाह के दर्शन के झरोखे के नीचे एकत्र होकर उस कर को माफ करने के लिये प्रार्थना करने लगे किंतु औरंगजेब ने कुछ ध्यान नहीं दिया। जब दूसरे शुक्रवार को बादशाह जुमामस्जिद में नमाज पढ़ने जाने लगा तो किले से मस्जिद तक हिंदुओं की भीड़ लग जाने से उसे आगे का रास्ता नहीं मिला।
औरंगजेब के आदेश पर भी भीड़ नहीं हटी। इस पर उसके आदेश से हाथियों को निरीह मनुष्यों पर हूल दिया गया और बहुत संख्या में हिन्दू कुचलकर मार दिये गये। इस पर भी औरंगजेब ने जजिया नहीं हटाया। जजिया के नाम पर सरकारी कारिंदों ने लोगों पर जुल्म ढाना आरम्भ कर दिया।
किसी भी हिन्दू को पकड़ लिया जाता था और उस पर यह आरोप लगाया जाता था कि इसने जजिया देने से मना कर दिया है तथा दूसरों को भी जजिया नहीं देने के लिये बहकाता है। देश की जनता चीत्कार कर उठी किंतु औरंगजेब की चाकरी कर रहे हिन्दू राजाओं पर इसका असर नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में एक बार पुनः देश भर के हिन्दुओं की आवाज बनकर मेवाड़ सामने आया। महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब को कठोर भाषा में एक पत्र लिखकर उसकी लानत-मलानत की।
महाराणा ने लिखा- ‘…….मैंने सुना है कि मुझ शुभचिंतक के विरुद्ध कार्यवाही करने की जो तदबीर हो रही है उसमें आपका बहुत रुपया खर्च हो गया है। इस काम में खजाना खाली हो जाने के कारण उसकी पूर्ति के लिये आपने एक कर (जजिया) लगाने की आज्ञा दी है। आप जानते हैं कि आपके पूर्वज अकबर ने 52 वर्ष तक न्याय पूर्वक शासन कर प्रत्येक जाति को आराम और सुख पहुंचाया। चाहे वे ईसाई, मूसाई, दाऊदी, मुसलमान, ब्राह्मण और नास्तिक हों, उन सब पर उनकी समान रूप से कृपा रही…….आपके समय में बहुत से प्रदेश आपकी अधीनता से निकल गये हैं और अब अधिक अत्याचार होने से अन्य इलाके भी आपके हाथ से जाते रहेंगे। आपकी प्रजा पैरों के नीचे कुचली जा रही है और आपके साम्राज्य का प्रत्येक प्रांत कंगाल हो गया है। आबादी घटती और आपत्तियां बढ़ती जाती हैं। जब गरीबी बादशाह और शहजादों के घर तक पहुंच गई है, तो अमीरों का क्या हाल होगा। सेना असंतोष प्रकट कर रही है, व्यापारी शिकायत कर रहे हैं, मुसलमान असंतुष्ट हैं, हिन्दू दुःखी हैं और बहुत से लोग तो रात को भोजन तक न मिलने के कारण क्रुद्ध और निराश होकर रात-दिन सिर पीटते हैं। ऐसी कंगाल प्रजा से जो बादशाह भारी कर लेने में शक्ति लगाता है, उसका बड़प्पन किस प्रकार स्थिर रह सकता है। पूर्व से पश्चिम तक यह कहा जा रहा है कि हिन्दुस्तान का बादशाह हिन्दुओं के धार्मिक पुरुषों से द्वेष रखने के कारण ब्राह्मण, सेवड़े, जोगी, वैरागी और सन्यासियों से जजिया लेना चाहता है……..आपने हिन्दुओं पर जो कर लगाया है वह न्याय और सुनीति के विरुद्ध है क्योंकि उससे देश दरिद्र हो जायेगा। वह हिन्दुस्तान के कानून के खिलाफ बात है। यदि आपको अपने ही धर्म के आग्रह ने इस पर उतारू किया है तो सबसे पहले रामसिंह से, जो हिन्दुओं का मुखिया है, जजिया वसूल करें उसके बाद मुझ खैरख्वाह से, क्योंकि मुझसे वसूल करने में आपको कम दिक्कत होगी परंतु चींटी और मक्खियों को पीसना वीर और उदारचित्त वाले पुरुष के लिए अनुचित है। आश्चर्य की बात है कि आपको यह सलाह देते हुए आपके मंत्रियों ने न्याय और प्रतिष्ठा का कुछ भी खयाल नहीं किया।’
निश्चित रूप से औरंगजेब इस पत्र को पढ़कर तिलमिलाया होगा किंतु वह कुछ कार्यवाही करता इससे पहले, वैमनस्य बढ़ने का एक और कारण उत्पन्न हो गया।
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