Thursday, November 21, 2024
spot_img

68. जयपुर का पलटवार

जयपुर नरेश प्रतापसिंह से मरुधरानाथ विजयसिंह की पौत्री ब्याही थी। इसलिये मरुधरानाथ अपनी ओर से उसका पूरा सम्मान करता आया था और उसे अपने विश्वास में रखने का प्रयास भी करता आया था। वैसे भी मरुधरानाथ उत्तर भारत की राजनीति को नया मोड़ देने के लिये जी तोड़ प्रयास कर रहा था। वह हरामखोर गुलाम कादिर, बददिमाग अली गौहर, दो कौड़ी के स्त्रैण नजफकुली तथा लालची तैमूरशाह जैसे लोगों से भी मित्रता का प्रयास करके उन्हें मराठों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास करता रहा था। इसलिये स्वाभाविक ही था कि वह अपने जमाता, स्वजाति बंधु और राजपूताने के सबसे प्रबल शासक को भी अपने पक्ष में रखने का पूरा प्रयास करता किंतु कच्छवाहों ने कभी भी मन से मरुधरपति का साथ नहीं दिया। यहाँ तक कि तुंगा के मैदान में उन्होंने राठौड़ों को मराठों के सामने मरने के लिये अकेला छोड़ दिया था।

महाराजा प्रतापसिंह को यह अच्छा नहीं लगता था कि उत्तर भारत की राजनीति कच्छवाहों को छोड़कर राठौड़ों के चारों ओर घूमे। उसे यह भी अच्छा नहीं लगता था कि मराठे जितना भय राठौड़ों से खाते थे उतना भय वे कच्छवाहों से नहीं दिखाते थे। प्रतापसिंह को यह भी अच्छा नहीं लगता था कि उत्तर भारत की राजनीति में अब जयपुर का वैसा सम्मान नहीं रहा था जैसा कि दिवंगत महाराजा सवाई जयसिंह के समय हुआ करता था। इसीलिये उसने तुंगा के मैदान में राठौड़ों को मराठों के समक्ष असहाय छोड़ दिया था। यद्यपि तुंगा के मैदान में राठौड़ कच्छवाहों की सहायता के लिये आये थे फिर भी प्रतापसिंह ने मन ही मन चाहा था कि राठौड़ पराजित हो जायें, पर ऐसा हुआ नहीं। इससे प्रतापसिंह राठौड़ों से और अधिक खीझ गया। महाराजा प्रतापसिंह का यह विकृत चिंतन उस युग की ईर्ष्यालु राजनीति का जीता जागता उदाहरण था। वह यह जानता हुआ भी राठौड़ों की पराजय चाहता था कि मराठे जिस तरह राठौड़ों के शत्रु हैं, उसी तरह कच्छवाहों के भी।

तुंगा के मैदान से चले जाने के बाद महादजी पूरे तीन साल तक जयपुर राज्य से खण्डनी की मांग करता रहा था किंतु जयपुर ने महादजी को फूटी कौड़ी नहीं भिजवाई। इस पर महादजी ने जयपुर के विरुद्ध अभियान करने का निश्चय किया। वैसे भी महादजी को तुंगा के मैदान में खो चुकी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करनी थी। उसने कच्छवाहों के राजा को या तो तुरंत तीन साल की बकाया खण्डनी भेजने या फिर युद्ध के लिये तैयार रहने की अंतिम चेतावनी भेज दी।

जब मराठों ने जयपुर पर आँखें गर्म कीं तो प्रतापसिंह को अपना वकील मनसाराम तिवाड़ी गुप्त वार्त्ता करने के लिये जोधपुर भेजना पड़ा। इस पर मरुधरानाथ के सामंतों- महेशदास कूँपावत तथा दलेलसिंह ने महाराजा को सलाह दी कि कच्छवाहों की बातों में आकर उनकी कोई सहायता नहीं करें। क्योंकि वे विश्वास करने योग्य नहीं हैं। वे युद्ध के मैदान से भाग जाते हैं। यदि मराठों के विरुद्ध जयपुर की कोई भी सहायता की तो हमारे ही आदमी अधिक मरेंगे। इसलिये जयपुर की सेना जयपुर रियासत के भीतर मराठों से अपनी रक्षा करे। यदि मराठे जयपुर को जीतकर जोधपुर राज्य की ओर बढ़ते हैं तो हम उनका सामना करें। अभी मराठों से वैर बढ़ाना ठीक नहीं है। सब मराठा एक हैं। वे सब महादजी की सहायता करेंगे। हमें मराठों से दूर रहना चाहिये, इसीमें भलाई है।

सामंतों की सलाह मरुधरानाथ की नीति के ठीक उलटी थी। फिर भी मरुधरानाथ ने अली गौहर तथा तैमूरशाह से प्राप्त निराशाजनक परिणामों को देखते हुए अपने सलाहकारों की सलाह मानने का निश्चय किया। ऐसा करने का एक कारण और भी था। तुंगा में जयपुर नरेश के निराशाजनक प्रदर्शन पर मरुधरानाथ ने इतना बुरा नहीं माना था जितना कि जयपुर और जोधपुर की संयुक्त सेना में से केवल जोधपुर के साढ़े चार हजार सैनिकों के मारे जाने पर माना था। उसे यह सोचकर दुःख और आश्चर्य होता था कि मारवाड़ के साढ़े चार हजार सैनिक हैजे से मर गये और जयपुर का एक भी सैनिक नहीं मरा। जबकि हैजा तो पूरी सेना में फैला था! इस कारण तब से मरुधरपति प्रतापसिंह से पहले जैसा प्रेम नहीं मानता था।

अगले दिन जब कच्छवाहों का वकील दरबार में हाजिर हुआ तो महाराजा ने उसे सलाह दी कि हम तो मराठों के विरुद्ध जयपुर की सहायता के लिये हर समय तैयार ही हैं किंतु केवल हमारी सहायता से कुछ नहीं होगा। जयपुर दरबार को चाहिये कि वे इस्माईल बेग को अपने साथ लें। उसे जयपुर में बड़ी जागीर दें और जागीर को जमाने के लिये खर्च होने वाला पैसा भी दें। इससे उन्हें इस्माईल बेग की सहायता भी प्राप्त हो जायेगी। फिर हम तो जयपुर के साथ हैं ही। कच्छवाहों के वकील को मरुधरानाथ के इस उत्तर से बहुत निराशा हुई।

जब महाराजा प्रतापसिंह ने देखा कि उसका वकील जोधपुर से असफल होकर लौट आया है, तब उसने महादजी से संधि करने का विचार किया और उसे तीन साल की बाकी खण्डनी भिजवा दी। उधर महादजी राजपूताना में बड़े अभियान की पूरी तैयारी कर चुका था। इसलिये उसने जयपुर नरेश को प्रस्ताव भिजवाया कि यदि वह राठौड़ों के विरुद्ध हमारी सहायता करे तो तुंगा की लड़ाई से पूर्व कच्छवाहों से लेने तय हुए बावन लाख रुपये छोड़े जा सकते हैं। महाराजा प्रतापसिंह ने महादजी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source