गढ़-पैलेस झालावाड़ के चारों ओर एक पराकोटा खींचकर उसके बीच में महल का निर्माण करवाया गया। यह नगर तान्त्रिक पद्धति के आधार पर त्रिकोणाकृति में बसाया गया था किन्तु इसका महल आयताकार बनाया गया।
झाला राजपूत ई.1838 से पहले राजपूताना में किसी स्वतंत्र रियासत के राजा नहीं रहे। ई.1838 में राजराणा मदनसिंह, झालावाड़ राज्य का प्रथम स्वतंत्र राजा बना। उसके पूर्वज झाला जालिमसिंह ने ई.1791 में ‘उम्मेदपुरा छावनी’ नाम से एक नगर बसाया था। मदनसिंह ने इसी उम्मेदपुरा छावनी के एक मील पश्चिम में ‘झालावाड़’ नामक नगर बसाया तथा उसी को अपनी राजधानी बनाकर वहाँ गढ़-पैलेस झालावाड़ का निर्माण आरम्भ करवाया।
गढ़-पैलेस झालावाड़ के चारों ओर एक पराकोटा खींचकर उसके बीच में महल का निर्माण करवाया गया। यह नगर तान्त्रिक पद्धति के आधार पर त्रिकोणाकृति में बसाया गया था किन्तु इसका महल आयताकार बनाया गया। इस महल में प्रवेश हेतु केवल तीन दिशाओं में ही दरवाजे रखे गये, चौथी दिशा में कोई दरवाजा नहीं है। महल में स्थित रंगशालायें, झरोखे, जनानी ड्यौढ़ी, दरीखाना, सभागार एवं शीश-महल दर्शनीय हैं। शीश महल एवं रंगशाला में सुन्दर जालीदार गवाक्ष, अष्टदल कमल की आकृति में उकेरे गये पुष्प, चतुष्कोण, अष्टकोण, वर्गाकृति तथा आयताकार कक्ष एवं बड़े-बड़े हॉल बने हुए हैं।
गढ़-पैलेस झालावाड़ का पूरा महल पांच मंजिला बना हुआ है। महल के अन्दर दो विशाल कुएं ढके हुए हैं। जनानी ड्यौढ़ी महल कक्ष में एक गुप्त सुरंगनुमा मार्ग है। महल के दोनों कोनों पर बुर्ज रूप में अर्द्ध-वृत्ताकार कक्ष बने हुए हैं जो काफी मजबूत हैं। आधार स्तम्भों पर टिकी-व्यवस्था से इसमें फतेहपुर-सीकरी के पंच महल की झलक मिलती है।
महल के कोनों पर अष्टकोणीय छतरियां बनी हुई हैं जिन पर बैठकर वर्षा-ऋतु में घुमड़ते बादलों एवं वन-प्रान्तर की शोभा देखी जा सकती है। इसके कक्षों में राजराणा मदनसिंह से लेकर राजराणा हरिश्चन्द्र सिंह तक की कला शैली का अंकन सिद्धहस्त कलाकारों द्वारा किया गया है।
गढ़-पैलेस झालावाड़ के चित्रों में राजराणा मदनसिंह का शाही सवारी में झालावाड़ आगमन, मंत्री-परिषद तीज-त्यौहारों की मनोहारी शोभा, नृत्य-नाटिका, टोंक नवाब, रास-रंग, छत्तीस भोग, चौबीस-अवतार, शाही इन्द्र विमान की सवारी तथा यहाँ की वैभवशाली हवेलियों एवं प्राकृतिक स्थलों के चित्र हैं।
गढ़-पैलेस झालावाड़ की मजबूत किलेबन्दी एवं दीवार की नींव झाला जालिमसिंह ने डाल दी थी। राजराणा मदनसिंह के समय ई. 1838 में इसके अन्दर के महल बनने आरम्भ हुए जो राजराणा पृथ्वीसिंह के समय में ई.1854 में बनकर पूर्ण हुए। जब ई.1948 में राजस्थान का निर्माण हुआ तब राजराणा हरिश्चंद्र ने यह पैलेस राजस्थान सरकार को दे दिया ताकि यहाँ जिला कलक्टर कार्यालय एवं अन्य जिला स्तरीय कार्यालय खोले जा सकें और झालावाड़ जिला बन सके।
राजस्थान प्रदेश में एक मात्र गढ़-पैलेस झालावाड़ ही ऐसा है जिसके कक्षों में लगभग 98 प्रतिशत सरकारी कार्यालय खोले गये। पैलेस के तीनों द्वारों की ओर क्रमशः पूर्व में बड़ा-बाजार, उत्तर में आजाद-बाजार तथा दक्षिण में मंगलपुरा-बाजार है। गढ़ पैलेस परिसर में गुरुवार को साप्ताहिक ‘हाट’ लगा करता था जो इक्कसीवीं सदी के आरम्भ में भी पूर्ववत् जारी था।
नवलखा दुर्ग
नवलखा दुर्ग में कभी कोई सेना नहीं रही और न ही कोई राजा-महाराजा रहा। राजराणा पृथ्वीसिंह ने ई.1860 में इस दुर्ग का निर्माण करवाना आरम्भ किया था किन्तु यह दुर्ग अधूरा रह गया और फिर कभी पूरा नहीं हो सका। यह दुर्ग झालरापाटन नगर के बाहर झालरापाटन-झालावाड़ सड़क पर स्थित एक पहाड़ी पर खड़ा है। नवलखा दुर्ग का डिजाइन तथा निर्माण पद्धति बहुत महंगी रखी गई थी। इसी कारण इसका नाम नवलखा दुर्ग रखा गया।
नवलखा दुर्ग में केवल चारों ओर की प्राचीर है जिसके भीतर हनुमानजी का भव्य मंदिर एवं उद्यान लगा हुआ है। यहाँ से चारों ओर का दृश्य बड़ा अच्छा दिखाई पड़ता है। झालावाड़ तथा झालरापाटन नगर के चारों ओर स्थित लगभग एक दर्जन बड़े तालाब भी यहाँ से दिखाई पड़ते हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता