झाला जालिमसिंह 21 वर्ष की आयु से कोटा राज्य की रक्षा और सेवा करता आ रहा था। ई.1764 में महाराव शत्रुशाल (द्वितीय) के समय में झाला जालिमसिंह ने कोटा राज्य को जयपुर के दांतों में पिस जाने से बचाया था। इस कारण महाराव शत्रुशाल (द्वितीय) झाला जालिमसिंह पर जान छिड़कते थे। जब महाराव शत्रुशाल का पुत्र गुमानसिंह कोटा का महाराव हुआ तो वह भी झाला जालिमसिंह पर निर्भर रहने लगा।
यही कारण था कि सामंत लोग ईर्ष्या-वश जालिमसिंह के विरुद्ध महाराव गुमानसिंह के कान भरने लगे। सामंतों के कहने पर महाराव गुमानसिंह ने झाला जालिमसिंह को देश निकाला दे दिया।
झाला जालिमसिंह के कोटा से चले जाने के बाद जब कोटा के महाराव गुमानसिंह ने कोटा को मराठों के मुँह में जाते हुए देखा तो उसने फिर से जालिमसिंह को कोटा बुलवाया। कोटा को संकट में जानकर झाला जालिमसिंह पुरानी बातों को भूलकर पुनः कोटा आ गया।
जालिमसिंह ने कोटा को न केवल मराठों की दाढ़ में जाने से रोका, अपितु पिण्डारियों से भी कोटा राज्य की जनता को सुरक्षित किया तथा ई.1817 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कंधे से कंधा मिलाकर पिण्डारियों का सफाया करवाया।
इस समय गुमानसिंह का पुत्र उम्मेदसिंह कोटा का महाराव था। झाला जालिमसिंह ने महाराव उम्मेदसिंह की भी कई विपत्तियों से रक्षा की थी। जब जसवंतराव होलकर कोटा पर चढ़ बैठा तो झाला जालिमसिंह ने होलकर जैसे दुर्दांत मराठा सरदार को केवल तीन लाख रुपये देकर कोटा राज्य को बचा लिया था।
जिस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी राजपूताने में पैर फैला रही थी, उस समय झाला जालिमसिंह राजपूताने का सर्वाधिक समझदार और सामर्थ्यवान राजपुरुष था। वह राजा नहीं था किंतु अनेक राजा उसके समक्ष झुकते थे और उससे मित्रता करने को उत्सुक रहते थे, यहाँ तक कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी भी झाला जालिमसिंह से मित्रता करने को उत्सुक थी।
यद्यपि विगत लगभग एक शताब्दी से जयपुर और मेवाड़ रियासतें कोटा राज्य पर आक्रमण करते रहते थे तथापि जालिमसिंह, मराठों को राजपूताने से बाहर निकलने के लिए इतना तत्त्पर रहता था कि जब कभी भी मराठे जयपुर या मेवाड़ पर आक्रमण करते थे, जालिमसिंह कोटा राज्य की सेना को जयपुर या मेवाड़ की सहायता के लिए भेजता था।
एक बार मराठों ने चारों ओर से मेवाड़ को घेर लिया। तब झाला जालिमसिंह स्वयं सेना लेकर मराठों से जा भिड़ा और उन्हें मार भगाया। जब पठानों ने उदयपुर के महाराणा भीमसिंह पर नंगी तलवारें लेकर आक्रमण किया तो झाला जालिमसिंह भी अपनी तलवार लेकर महाराणा तथा पठानों के बीच में आ गया। उसने अपनी तलवार के बल पर पठानों को शांत किया।
पाठक भूले नहीं होेंगे कि एक बार मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए झाला जालिमसिंह को मराठों ने कैद कर लिया था तब जालिमसिंह के मित्र एवं मराठा सरदार इंगले ने 60 हजार रुपये देकर जालिमसिंह को मराठों की कैद से मुक्त करवाया था। उस ऋण को उतारने के लिए जालिमसिंह मेवाड़, जैसे प्रबल राज्य से भी टकराने में नहीं हिचकिचाया। यह उसके उज्ज्वल चरित्र की पराकाष्ठा थी।
एक बार मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह ने मराठा सरदार इंगले के भाई भालेराव को कैद कर लिया। जालिमसिंह ने भालेराव को छुड़वाना अपना परम कर्तव्य समझा और वह मेवाड़ आया। जालिमसिंह ने महाराणा से प्रार्थना की कि भालेराव को मुक्त कर दिया जाए। महाराणा ने भालेराव को छोड़ने से मना कर दिया। इस पर जालिमसिंह ने कोटा राज्य की सेना लेकर, मेवाड़ राज्य पर आक्रमण कर दिया।
इस युद्ध में मेवाड़ बुरी तरह परास्त हुआ। महाराणा को जालिमसिंह से संधि करनी पड़ी और भालेराव को मुक्त कर देना पड़ा। इस युद्ध में हुए व्यय को पूरा करने के लिए जालिमसिंह ने मेवाड़ राज्य से जहाजपुरा का दुर्ग तथा जहाजपुरा का परगना छीन लिए एवं युद्ध में हुई हानि की भरपाई के लिए महाराणा से ईंटोदा, सकरगढ़, कोटड़ी तथा हस्तड़ा परगनों के पट्टे प्राप्त किए। इस सब के बदले में झाला जालिमसिंह ने महाराणा को 71 लाख रुपये का कर्जा ब्याज पर दिया। ई.1814 में कर्नल टॉड ने ये परगने जालिमसिंह के अधीनस्थ बिशनसिंह से प्राप्त कर पुनः मेवाड़ में मिलाए।
कोटा राज्य के बहुत सारे सामंत एवं सरदार, जालिमसिंह के दबदबे से ईर्ष्या रखते थे और उसके प्राणों के शत्रु बने हुए घूमते थे। उनका कहना था कि जालिमसिंह ने बलपूर्वक कोटा पर अधिकार कर रखा है। इन शत्रुओं से बचने के लिए जालिमसिंह शिकार पर जाते समय, नहाते समय, भोजन करते समय तथा सोते समय विशेष ध्यान रखता था। फिर भी उस पर अनेक बार प्राण घातक हमले हुए किन्तु वह प्रत्येक हमले में बच निकला।
एक बार उसे मारने के लिए महाराव उम्मेदसिंह की दासियों ने षड़यंत्र रचा और उसे किसी बहाने से बुलाकर महल के जनाने हिस्से में ले गईं। एक दासी ने जालिमसिंह को जनाना महल में देखा तो वह जोर से चिल्लाई- ‘तू यहाँ कहाँ आ गया, मारा जाएगा। जान प्यारी है तो भाग जा।’ जालिमसिंह तुरंत खतरे को भांप गया और बाहर भाग आया। जालिमसिंह लोहे के पिंजरे को भीतर से बंद करके सोया करता था ताकि कोई उसे शस्त्रहीन अवस्था में न मार डाले। फिर भी जान जाने का भय बना ही रहता था।
जब ई.1817 में कोटा राज्य और अंग्रेजों के मध्य संधि हुई तो जालिमसिंह ने उस संधि में अपने लिए कुछ नहीं लिखवाया। उसकी स्वामि-भक्ति देखकर अंग्रेजों को बड़ा विस्मय हुआ। वे तो झाला जालिमसिंह को ही कोटा का वास्तविक शासक समझते थे। इसलिए अंग्रेजों ने अपनी ओर से संधिपत्र में दो शर्तें बढ़ा दीं जिनके अनुसार महाराव उम्मेदसिंह और उसके वंशज कोटा राज्य के निर्विवाद राजा माने गए तथा झाला जालिमसिंह और उसके वंशज स्थाई रूप से कोटा राज्य के सम्पूर्ण अधिकार युक्त मंत्री माने गए। ये शर्तें गुप्त रखी गईं।
इस संधिपत्र में कुछ और भी शर्तें थीं, जो सम्भवतः महाराव उम्मेदसिंह को भी ज्ञात नहीं हो सकीं। ई.1817 में जब कर्नल टॉड पहली बार झाला जालिमसिंह की सेवा में उपस्थित हुआ, उस समय तक जालिमसिंह की आयु 75 वर्ष के लगभग हो चुकी थी। उसकी दोनों आँखें चली गई थीं। ई.1819 में महाराव उम्मेदसिंह की मृत्यु हो गई तथा उम्मेदसिंह का पुत्र किशोरसिंह महाराव हुआ। झाला जालिमसिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा राज्य का दीवान बनाया गया।
झाला जालिमसिंह की एक मुस्लिम उपपत्नी थी जिससे गोरधनदास नाम का पुत्र था। वह बड़ा ही नमक हराम किस्म का व्यक्ति था। जब उसने देखा कि जालिमसिंह ने अपनी हिन्दू पत्नी से उत्पन्न पुत्र माधोसिंह को कोटा का दीवान नियुक्त किया है तो उसने अपने बाप जालिमसिंह के विरुद्ध महाराव किशोरसिंह के कान भरे।
गोरधनदास के भड़काने पर महाराव किशोरसिंह ने कम्पनी सरकार को लिखा कि वह जालिमसिंह को उसके पद से हटा रहा है। इस पर कम्पनी के पोलिटिकल एजेण्ट ने जवाब दिया कि महाराव तो कोटा का नाम मात्र का शासक है, वास्तविक शासक तो जालिमसिंह है। कोटा का महाराव किशोरसिंह, अपने आप को सतारा के राजा तथा मुगल बादशाह से अधिक अच्छी स्थिति में न समझे।
इस पर किशोरसिंह, पृथ्वीसिंह तथा गोरधन दास ने जालिमसिंह के विरुद्ध सैनिक अभियान करने का निर्णय किया। कहने को तो किशोरसिंह कोटा राज्य का महाराव था किंतु वास्तविकता यह थी कि विगत 50 वर्षों से कोटा राज्य झाला जालिमसिंह की छत्रछाया में ही पल रहा था। अतः महाराव किशोरसिंह तथा उसके साथियों की गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए पोलिटिकल एजेण्ट ने राजमहल पर पहरा बैठा दिया। इस पर महाराव किशोरसिंह, उसका छोटा भाई पृथ्वीसिंह तथा जालिमसिंह की मुस्लिम पत्नी से उत्पन्न गोरधन दास कोटा का राजमहल छोड़कर भाग गए और रंगबाड़ी पहुँच कर झाला जालिमसिंह पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता