जब ई.1817 में कोटा राज्य और अंग्रेजों के बीच सहायता एवं सुरक्षा की अधीनस्थ संधि हुई। ई.1818 में अंग्रेजों ने उस संधि में दो गोपनीय शर्तें जोड़ दीं जिनके बारे में कोटा राज्य के फौजदार झाला जालिमसिंह को तो जानकारी थी किंतु कोटा के महाराव उम्मेदसिंह को उन शर्तों से अनभिज्ञ रखा गया। जब महाराव उम्मेदसिंह के पुत्र किशोरसिंह ने महाराव बनने पर झाला जालिमसिंह को नौकरी से निकालना चाहा तो अंग्रेजों ने किशोरसिंह से कहा कि राज्य का वास्तविक स्वामी झाला जालिमसिंह है, इसलिए महाराव किशोरसिंह जालिमसिंह को उसके पद से नहीं हटा सकता।
इस पर महाराव किशोरसिंह अपने भाई पृथ्वीसिंह तथा जालिमसिंह की मुस्लिम पत्नी से उत्पन्न गोरधनदास को साथ लेकर कोटा से रंगबाड़ी चला गया और वहाँ से जालिमसिंह पर हमला करने की तैयारियां करने लगा। पोलिटिकल एजेण्ट ने जालिमसिंह से पूछा कि अब वह क्या करेगा?
इस पर जालिमसिंह ने उत्तर दिया कि मैं नाथद्वारा जाकर सन्यासी हो जाउंगा किंतु अपने स्वामी पर हथियार नहीं उठाउंगा। इस उत्तर को सुनकर एजेण्ट रंगबाड़ी गया और महाराव किशोरसिंह को समझा-बुझा कर फिर से कोटा ले आया जहाँ महाराव का नए सिरे से राज्याभिषेक किया गया। जालिमसिंह के पुत्र गोरधनदास को कोटा से निकाल दिया गया। उसे दिल्ली में रहने के लिए एक घर दे दिया गया।
वस्तुतः सारे विवाद की जड़ महाराव किशोरसिंह तथा दीवान माधोसिंह के मध्य चल रहा शक्ति परीक्षण था। दर्शकों को स्मरण होगा कि माधोसिंह झाला जालिमसिंह की हिन्दू पत्नी से उत्पन्न पुत्र था।
महाराव किशोरसिंह की शिकायत थी कि दीवान माधोसिंह मेरे साथ आदर से व्यवहार नहीं करता। जबकि दीवान माधोसिंह, कोटा राज्य पर उसी तरह निर्बाध शासन करना चाहता था जैसा कि उसके पिता जालिमसिंह ने किया था। महाराव किशोरसिंह चाहता था कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी ई.1917 में हुई उस संधि का पालन करे जिसमें कोटा राज्य को आंतरिक विद्रोह तथा सामंतों की अनुशासनहीनता को दबाने में सहायता किए जाने का प्रावधान था, अतः माधोसिंह को हटाया जाए।
जबकि माधोसिंह चाहता था कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी इस संधि में ई.1918 में जोड़ी गई उन दो गुप्त धाराओं पर दृढ़ रहे जिनमें झाला जालिमसिंह और उसके वंशजों को सदैव के लिए सम्पूर्ण अधिकार युक्त प्रधानमंत्री बने रहने का अधिकार दिया गया था।
कम्पनी सरकार की धारणा थी कि कोटा राज्य का वास्तविक शासक झाला जालिमसिंह है न कि महाराव किशोरसिंह। इसलिए कम्पनी सरकार दीवान माधोसिंह के विरुद्ध किसी तरह की कार्यवाही नहीं करना चाहती थी। परिस्थतियों से क्षुब्ध होकर कुछ दिन बाद महाराव किशोरसिंह ने फिर से झाला जालिमसिंह को मारने का षड़यंत्र किया। उसने जालिमसिंह से मिलने का समय मांगा ताकि वह स्वयं अपने हाथों से जालिमसिंह को मार सके।
झाला जालिमसिंह ने किशोरसिंह के इरादों को भांपकर अपने चारों ओर पहरा बैठा दिया तथा महाराव से मिलने से मना कर दिया। इस पर भी महाराव नहीं माना तो जालिमसिंह ने नगर के दरवाजे बंद करवा दिए और सूरजपोल के कोट की तोपों के मुँह गढ़ की ओर फेर दिए जहाँ महाराव किशोरसिंह निवास कर रहा था।
कोटा राज्य की तोपें सायंकाल से लेकर मध्य रात्रि तक कोटा के गढ़ पर गोले बरसाती रहीं। आधी रात के बाद महाराव गुप्त मार्ग से निकला और नाव में बैठकर चम्बल के पार निकल गया। उसके साथ उसका छोटा भाई पृथ्वीसिंह, कुंवर रामसिंह, कुछ विश्वस्त साथी एवं नौकर थे।
जालिमसिंह उस समय नगर से बाहर के डेरे में रहा करता था। जब उसने सुना कि महाराव अपने भाई एवं पुत्र के साथ कोटा का गढ़ छोड़कर भाग गया तो जालिमसिंह गढ़ में आया। उसने गढ़ में उपस्थित लोगों के शस्त्र छीन लिए। भण्डारों तथा अंतःपुर का यथोचित प्रबन्ध किया तथा कोटा की राजगद्दी पर महाराव किशोरसिंह की खड़ाऊँ मंगवाकर स्थापित कर दीं। जालिमसिंह ने घोषणा की कि कुछ बदमाश, मेरे स्वामी को बहकाकर ले गए हैं। अतः उनके लौटने तक यही खड़ाऊँ शासन करेंगी।
किशोरसिंह कोटा के महलों से निकलकर बूंदी गया। बूंदी के शासक महाराव विष्णुसिंह ने महाराव का स्वागत किया। वस्तुतः कोटा राज्य, बूंदी राज्य से ही अलग हुआ था तथा कोटा का राजवंश, बूंदी के राजवंश की कनिष्ठ शाखा थी। कुछ दिनों बाद झाला जालिमसिंह का दुष्ट पुत्र गोरधनसिंह भी महाराव किशोरसिंह से आ मिला किंतु अंग्रेजों के दबाव के कारण गोरधनसिंह पुनः दिल्ली चला गया।
अंग्रेजों ने बूंदी नरेश को संदेश भेजा कि वह किशोरसिंह को सेना एकत्र न करने दे तथा किशोरसिंह का अधिक समय तक बंूदी में रहना वांछनीय नहीं है। इस कारण कुछ समय बाद किशोरसिंह बूंदी से वृंदावन चला गया। कुछ दिन वृंदावन में बिताकर किशोरसिंह भी दिल्ली पहुंचा और वहाँ जाकर रेजीडेंट से मिला।
रेजीडेंट ने किशोरसिंह से कहा कि वह कोटा लौट जाए किंतु किशोरसिंह यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ कि वह नाम मात्र का राजा बनकर रहे तथा जालिमसिंह का पुत्र माधोसिंह वास्तविक राजा रहे। अतः किशोरसिंह पुनः कोटा पर आक्रमण करने के उद्देश्य से चम्बल के तट पर आ ठहरा।
किशोरसिंह ने समस्त हाड़ा राजपूतों को अपनी ओर से लड़ने के लिए आमंत्रित किया। सारे हाड़ा सरदार किशोरसिंह से आ मिले तथा 3000 हाड़ा राजपूत बाणगंगा के तट पर झाला जालिमसिंह पर हमला करने के लिए डट कर खड़े हो गए। इस पर जालिमसिंह ने पोलिटिकल एजेण्ट से सहायता मांगी।
जालिमसिंह का संदेश पाकर कर्नल जेम्स टॉड नीमच से कम्पनी सरकार की दो पलटनें, नौ रिसाले, एक तोपखाना तथा लेफ्टीनेंट क्लार्क, लेफ्टीनेंट मिलन और लेफ्टीनेंट कर्नल रिज को अपने साथ लेकर कोटा पहुँचा। जालिमसिंह की निजी आठ पलटनें, चौदह रिसाले और तेईस तोपें पहले से ही तैयार खड़ी थीं। झाला जालिमसिंह और कर्नल टॉड की संयुक्त सेनाओं ने महाराव किशोरसिंह की सेनाओं पर आक्रमण कर दिया।
यह युद्ध बड़ा भयानक सिद्ध हुआ। इसमें महाराव का छोटा भाई पृथ्वीसिंह, लेफ्टीनेंट क्लार्क, लेफ्टीनेंट रीड तथा दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए। कुंवर पृथ्वीसिंह ने मरते समय अपना खंजर तथा अपने गले की मोतियों की माला पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल जेम्स टॉड को दे दीं तथा उससे निवेदन किया कि मेरे पुत्र रामसिंह को याद रखना।
महाराव किशोरसिंह पराजय स्वीकार करके नाथद्वारा चला गया। उसके साथ पृथ्वीसिंह का पुत्र कुंवर रामसिंह भी था। किशोरसिंह ने पाँच विवाह किए थे। केवल एक रानी के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। जो चार वर्ष का होकर मर गया था। अतः महाराव किशोरसिंह अपने भतीजे रामसिंह को ही अपना पुत्र मानता था।
महाराव किशोरसिंह नाथद्वारा में श्रीनाथजी के चरणों में बैठकर भजन करता रहा और उसकी खड़ाऊँ कोटा में शासन करती रहीं। वह लगभग 9 माह तक नाथद्वारा में रहा। अंत में उसे श्रीनाथजी की पादसेवा का फल प्राप्त हुआ और मेवाड़ महाराणा के प्रयत्नों से किशोरसिंह तथा जालिमसिंह में समझौता हो गया।
ई.1822 में किशोरसिंह कोटा लौट आया। झाला जालिमसिंह तथा पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल टॉड ने कोटा से 6 किलोमीटर बाहर आकर महाराव किशोरसिंह का स्वागत किया। कोटा में भारी खुशियां मनायी गईं। जालिमसिंह ने महाराव को फिर से गद्दी पर बैठाकर उसे 25 स्वर्ण मोहरें भेंट कीं।
कर्नल टॉड के कहने पर महाराव किशोरसिंह तथा फौजदार जालिमसिंह का पुत्र दीवान माधोसिंह गले मिले तथा दोनों ने पिछली बातों के लिए एक दूसरे के प्रति खेद प्रकट किया। सारे गड़बड़ झाले के लिए झाला जालिमसिंह ने अपने आप को तो धिक्कारा ही, साथ ही अपने पुत्र माधोसिंह से भरे दरबार में कहा कि यह सब तेरे कुकृत्यों का फल है जो मेरे स्वामी को इतना कष्ट हुआ और मुझे इतनी लज्जा उठानी पड़ी।
ई.1824 में 85 वर्ष की आयु में जालिमसिंह की मृत्यु हुई। यद्यपि सूर्यमल्ल मिश्रण, कर्नल टॉड तथा मथुरालाल शर्मा ने झाला जालिमसिंह की स्वामिभक्ति पर अंगुली उठायी है किंतु इतिहास की नंगी सच्चाई यह है कि वह युग जो दुनिया भर की मक्कारियों से भरा हुआ था, उसमें जालिमसिंह जैसा वीर, लड़ाका, बुद्धिमान, नेक और स्वामिभक्त फौजदार मिलना मुश्किल था।
वह अपने पिता झाला हिम्मतसिंह का दत्तक पुत्र था। उसने कोटा रियासत को जयपुर, मेवाड़, मराठों तथा पिण्डारियों से बचाया था। अन्यथा कोटा राज्य को इनमें से कोई न कोई शक्ति निगल चुकी होती और किशोरसिंह जैसे अयोग्य, अदूरदर्शी राजा का कोई निशान भी नहीं मिलता। वस्तुतः महाराव किशोरसिंह उस युग की अभिशप्त राजनीति से ग्रस्त राजा था जो चापलूसों की भीड़ में घिरे रहकर केवल अपने अधिकार को भोगने के लिए लालायित रहते थे। उसमें अपने परदारा शत्रुशालसिंह (द्वितीय) तथा दादा गुमानसिंह जैसी दूरदर्शिता नहीं थी। यदि उसके स्थान पर कोई अन्य बुद्धिमान राजा होता तो वह जालिमसिंह जैसे सेनापति की सेवाओं का उपयोग अपने और अपने राज्य के भाग्य को संवारने में लगाता।