Thursday, July 25, 2024
spot_img

गोरा हट जा – बीस: मराठों ने धन प्राप्ति की आशा में बांसवाड़ा का महल खोद डाला!

अंग्रेजों के भारत में आगमन के समय मेवाड़ राजवंश धरती भर के राजवशों में सबसे पुराना था। राजपूताना के डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा राज्य भी पहले मेवाड़ के ही हिस्से थे जो अलग-अलग समय पर एवं अलग-अलग कारणों से मेवाड़ से अलग होकर पृथक् रियासतों के रूप में अस्तित्व में आए थे।

बारहवीं शताब्दी ईस्वी में मेवाड़ के महाराणा सामंतसिंह के वंशजों ने मेवाड़ राज्य छिन जाने के कारण मेवाड़ से भागकर वागड़ राज्य की स्थापना की थी। इसकी राजधानी वटपद्रक थी जो बड़ौदा कहलाती थी।

यह बड़ौदा अब भी डूंगरपुर जिले में छोटे से गाँव के रूप में स्थित है। वागड़ के राजा डूंगरसिंह ने ई.1358 में डूंगरपुर नगर की स्थापना की। मुगल बादशाह बाबर के समय में उदयसिंह वागड़ का महारावल था जिसने मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह के साथ मिलकर खानुआ के मैदान में खुरासान से आए जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का मार्ग रोका था।

महारावल उदयसिंह के दो पुत्र थे- पृथ्वीराज तथा जगमाल। उदयसिंह ने अपने जीवन काल में ही वागड़ राज्य के दो हिस्से कर दिए। माही नदी को सीमा मानकर पश्चिम का भाग छोटे पुत्र जगमाल के लिए स्थिर कर दिया तथा पूर्व का भाग बड़े पुत्र पृथ्वीराज को दे दिया।

इस प्रकार डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा नाम से दो राज्य अस्तित्व में आए। इन राज्यों के शासक अपने आपको पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न शासक मानते थे किंतु मेवाड़ के महाराणा दोनों राज्यों को अपने अधीन मानते थे। इस कारण प्रायः मेवाड़ राज्य इन राज्यों से कर लेने, राज्यारोहण के समय होने वाले टीके की रस्म की राशि वसूलने तथा अन्य विवादों के कारण इन पर आक्रमण करते रहते थे।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK ON IMAGE.

इन आक्रमणों में प्रायः बड़ी संख्या में सैनिकों का रक्तपात होता था जिससे मेवाड़, डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा तीनों ही राज्य कमजोर होते जा रहे थे। चूंकि डूंगरपुर और बांसवाड़ा ने अकबर के समय, मुगलों का संरक्षण प्राप्त कर लिया था इसलिए मेवाड़ के महाराणा चाहकर भी इन राज्यों को पूर्ण रूप से मेवाड़ में नहीं मिला पाते थे।

जब मुगलों का राज अस्ताचल को चला गया और मराठों का परचम लहराने लगा तो इन तीनों ही राज्यों को मराठों ने कुचल कर धर दिया। मराठों ने बांसवाड़ा राज्य का जीना हराम कर रखा था। ई.1737 में उन्होंने बांसवाड़ा नगर में घुसकर लूटमार मचाई।

उस समय बांसवाड़ा का शासक उदयसिंह मात्र 4 साल का था तथा राज्यकार्य अर्थूणा का ठाकुर गुलालसिंह चौहान चलाता था जो उदयसिंह का मामा भी था। बांसवाड़ा के सरदार महारावल उदयसिंह को लेकर भूतवे की पाल में चले गए। मराठों ने धन प्राप्ति की आशा में बांसवाड़ा का पूरा राजमहल खोद डाला किंतु उनके हाथ कुछ नहीं लगा।

कुछ स्वामि-भक्त लोगों ने राज्य की प्रतिष्ठा बचाने की चेष्टा की तथा परिवार सहित कट मरे। मात्र साढ़े तेरह वर्ष की आयु में महारावल उदयसिंह मर गया तथा उसका छोटा भाई पृथ्वीसिंह बांसवाड़ा का शासक हुआ। उसी समय मराठे फिर से बांसवाड़ा में घुस आए और जबर्दस्त लूटमार करने लगे।

इस पर सरदार लोग महारावल को लेकर पहाड़ों में चले गए। मराठा सरदार आनन्दराव ने बांसवाड़ा के लोगों से निर्दयता पूर्वक 25 हजार रुपये वसूल किए तथा शेष राशि की वसूली हेतु राज्य के प्रतिष्ठित लोगों को पकड़ कर मालवा क्षेत्र में स्थित ‘धार’ नगर में ले गया। इसी बीच मराठा सरदार आनन्दराव मर गया और उसका पुत्र जसवंतराव (प्रथम) धार का स्वामी हुआ।

उसने अपने सेनानायक मेघश्याम बापूजी को पुनः बांसवाड़ा भेजा। मेघश्याम ने अगला-पिछला कुल 72 हजार रुपया तय किया तथा रुपये प्राप्त होने पर ही राज्य के प्रतिष्ठित लोगों को छोड़ने का निर्णय सुनाया। इस पर महारावल पृथ्वीसिंह सितारा जाकर राजा शाहू से मिला और मराठा सरदारों की ज्यादती की शिकायत की। शाहू ने पृथ्वीसिंह को आदेश दिया कि वह चौथ की सारी रकम नियमित रूप से सितारा भेजे।

इस प्रकार बांसवाड़ा को मराठों के आतंक से कुछ मुक्ति मिली। मराठों से निरंतर लड़ते रहने के कारण राज्य में राजपूत सैनिकों की कमी हो गई। इस पर महारावल ने बाहर से मुसलमानों को बुलाकर सेना में भरती किया। ई.1800 में मराठों ने फिर से बांसवाड़ा राज्य को घेर लिया।

उस समय महारावल विजयसिंह (ई.1786-1816) बांसवाड़ा का शासक था। उसने मराठों का जमकर मुकाबला किया और उन्हें मार भगाया। बांसवाड़ा की सेना ने मराठों की सेना के झण्डे और तोपें छीन लिए। जब ई.1817 में पिण्डारी करीम खाँ बांसवाड़ा राज्य में लूटमार करने लगा तो ई.1818 में महारावल ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से दोस्ती कर ली।

मुगल बादशाह जहांगीर के समय, मेवाड़ राज्य में देवलिया नामक ठिकाना हुआ करता था। जहांगीर के सेनापति महावत खाँ के उकसाने पर ई.1626 में देवलिया के ठिकानेदार सिंहा ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। महाराणा उसे दबाने में असफल रहा। 8 अप्रेल 1627 को सिंहा की मृत्यु हो गई और उसका बड़ा पुत्र जसवंतसिंह, देवलिया का रावत बना।

7 नवम्बर 1627 को जहांगीर भी मर गया। रावत जसवंतसिंह ने मेवाड़ के मोड़ी गाँव पर आक्रमण करके बहुत से मेवाड़ी सैनिकों को मार डाला। महाराणा जगतसिंह (प्रथम) ने जसवंतसिंह को समझाने के लिए उदयपुर बुलवाया। जब जसवंतसिंह महाराणा की बात मानने को तैयार नहीं हुआ तो मेवाड़ की सेना ने उसे तथा उसके एक हजार आदमियों को चम्पाबाग में घेरकर मार डाला।

जसवंतसिंह का छोटा पुत्र हरिसिंह देवलिया का रावत हुआ। शाहजहां ने हरिसिंह को देवलिया का स्वतंत्र शासक स्वीकार कर लिया। इस प्रकार ई.1628 में देवलिया राज्य अस्तित्व में आया जिसका कुल क्षेत्रफल 889 वर्ग मील था।

ई.1659 में औरंगजेब ने डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा देवलिया के राज्य मेवाड़ के महाराणा राजसिंह को जागीर के रूप में दे दिए। इस पर देवलिया का रावत हरिसिंह दर-दर भटकने लगा। हरिसिंह की माता ने हरिसिंह को एक हाथी, एक हथिनी तथा 50 हजार रुपये देकर महाराणा की सेवा में भेजा। महाराणा ने उसे अपना सामंत स्वीकार कर लिया।

ई.1673 में रावत हरिसिंह मर गया तथा उसका पुत्र प्रतापसिंह देवलिया का जागीरदार हुआ। ई.1698 में महाराणा जयसिंह की मृत्यु होने पर अमरसिंह (द्वितीय) मेवाड़ का महाराणा हुआ किंतु इस अवसर पर डूंगरपुर के रावल खुमानसिंह, बांसवाड़ा के रावल आबसिंह तथा देवलिया के रावत प्रतापसिंह ने उपस्थित होकर टीके का दस्तूर प्रस्तुत नहीं किया। इस पर महाराणा ने तीनों राज्यों पर आक्रमण करके उनसे टीका वसूल किया।

ई.1699 में देवलिया के रावत प्रतापसिंह ने डोडेरिया का खेड़ा नामक स्थान पर प्रतापगढ़ नामक नगर बसाया और उसे अपनी नई राजधानी बनाया। तब देवलिया ठिकाणा, प्रतापगढ़ राज्य के नाम से जाना जाने लगा। प्रतापगढ़ का रावत सालिमसिंह (ई.1756-74) प्रतापी राजा हुआ। मल्हार राव होलकर जैसा प्रबल शत्रु भी उससे चौथ वसूल नहीं कर पाया। सालिमसिंह ने मुगल बादशाह शाहआलम से सिक्का ढालने की स्वीकृति प्राप्त की।

इसे सालिमशाही सिक्का कहा गया। प्रतापगढ़ राज्य मुगलों को 15 हजार मुगलिया रुपये वार्षिक कर दिया करता था। सालिमसिंह के पुत्र सामंतसिंह (ई.1774-1818) ने मुगलों को कर देना बंद करके, मराठा सरदार जसवंतराव होलकर को 72 हजार 720 सालिमसाही सिक्के चौथ के रूप में देने स्वीकार कर लिए।

ई.1804 में रावत सामंतसिंह ने कर्नल मरे के माध्यम से ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि की तथा जो राशि चौथ के रूप में मराठों को दी जाती थी वह खिराज के रूप में अंग्रेजों को देनी स्वीकार की किंतु लॉर्ड कार्नवालिस ने इसे स्वीकार नहीं किया तथा अगले 14 वर्ष तक प्रतापगढ़ राज्य दुःख के सागर में गोते खाता रहा।

5 अक्टूबर 1818 को प्रतापगढ़ राज्य तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच दूसरा समझौता हुआ। संधि की अन्य शर्तों के साथ-साथ यह भी तय हुआ कि प्रतापगढ़ राज्य ने अब तक मराठों को 1 लाख 24 हजार 657 रुपये छः आने नहीं चुकाये हैं, अतः नियमित खिराज (72,700 रुपये वार्षिक) के साथ-साथ यह बकाया राशि भी प्रतापगढ़ द्वारा कम्पनी को दी जाएगी।

संधि में प्रावधान किया गया कि प्रतापगढ़ राज्य अरबी सैनिकों तथा मकरानियों को नौकर नहीं रखेगा। इस संधि के होने से पूर्व प्रतापगढ़ राज्य की औसत वार्षिक आय दो लाख रुपये थी। संधि के बाद राज्य की आय में पहले साल 42 हजार रुपये तथा दूसरे साल 50 हजार रुपये की वृद्धि हुई। डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ की तरह शाहपुरा राज्य भी मेवाड़ राज्य के हिस्से थे। शाहपुरा राज्य की स्थापना महाराणा अमरसिंह के द्वितीय पुत्र सूरजमल के वंशजों ने शाहजहाँ के समय में की थी।

डॉ. मोहन लाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source