Monday, October 14, 2024
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जैसलमेर दुर्ग सोनारगढ़

पीले रंग के जैसलमेरी प्रस्तरों से निर्मित एवं एवं बालू रेत पर खड़ा जैसलमेर दुर्ग जिसे सोनारगढ़ भी कहा जाता है, मरुस्थल की तेज चमकीली धूप में ऐसा प्रतीत होता है मानो भगवान् भुवन भास्कर ने इस दुर्ग को अपनी कांचन किरणों से बनाकर यहाँ प्रकृति के एकान्त में उतार दिया हो।

जैसलमेर दुर्ग के निर्माता एवं नामकरण

जैसलमेर दुर्ग के निर्माता

यदुवंशी राजकुमार जयशाल (जैसल भाटी) ने अपने पिता द्वारा राज्याधिकार न दिये जाने पर अपने पैतृक राज्य लोद्रवा पर आक्रमण किया और लोद्रवा की गद्दी पर आसीन अपने भतीजे भोजदेव को मारकर 12 जुलाई 1155 को लोद्रवा से कुछ दूर अपने लिये एक नई राजधानी और एक नये दुर्ग की स्थापना की। उसने यह दुर्ग 250 फुट ऊंची, त्रिकूटाचल नामक त्रिभुजाकार पहाड़ियों पर बनवाना आरम्भ किया।

राव जैसल के काल में इस दुर्ग का केवल मुख्य द्वार तथा कुछ अंश ही बन पाये थे। बाद में उसके उत्तराधिकारियों ने इसमें निर्माण करवाये। महारावल जयशाल के पुत्र शालिवाहन (द्वितीय) ने इस दुर्ग के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान दिया। मुगलों व अंग्रेजों के समय में यही भट्टी जैसलमेर पर शासन कर रहे थे। उन्हें ‘उत्तर भड़ किंवाड़’ का विरुद प्राप्त था।

जैसलमेर दुर्ग का नामकरण

राव जयशाल द्वारा निर्मित होने के कारण इसे जैसलमेर दुर्ग कहते हैं। पीले रंग के पत्थरों से निर्मित होने के कारण इसे सोनारगढ़ तथा सोनगढ़ भी कहते हैं।

जैसलमेर दुर्ग की सुरक्षा

जैसलमेर दुर्ग की श्रेणी

इस दुर्ग के चारों ओर विशाल मरुस्थल फैला हुआ है। इस कारण यह दुर्ग मरु दुर्ग अर्थात् धान्वन दुर्ग की श्रेणी में आता है। यद्यपि यह 250 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है किंतु इसे गिरि दुर्ग नहीं कहा जा सकता क्योंकि पहाड़ी की दुर्गमता नगण्य है। चूंकि यह पहाड़ी पर स्थित है इसलिये इसे स्थल दुर्ग भी नहीं कहा जा सकता। यह हर प्रकार से धान्वन दुर्ग है। चारों ओर परकोटे से घिरा हुआ होने के कारण इसे पारिघ दुर्ग श्रेणी में रखा जा सकता है।

दुर्ग में प्रवेश

दुर्ग में प्रवेश के लिये चार विशाल द्वारों- अक्षयपोल (अखयपोल), गणेशपोल, सूरजपोल तथा हवापोल से होते हुए दशहरा चौक तक पहुंचना होता है। सभी पोलों के किवाड़ों में कीलें लगी हुई हैं। इन किवाड़ों को तोड़े बिना शत्रु दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता था।

प्राकार एवं बुर्ज

दुर्ग के चारों ओर घाघरानुमा विशाल प्राकार बना हुआ हैै। इस परकोटे को कमरकोट भी कहा जाता है जिसमें स्थान-स्थान पर बुर्ज बने हुए हैं। यह विश्व के सर्वाधिक बुर्जों वाला दुर्ग है। इसमें 99 बुर्ज बने हैं। प्रत्येक बुर्ज लगभग 30 फुट ऊँचा है। दुर्ग की तीन दीवारों में से एक दीवार पहाड़ी को आवृत्त करती है और दूसरी तथा तीसरी दीवार दुर्ग की रक्षा करती हैं।

दीवारों में बने वीरकश, बुर्जियां व पानी निकलने की नालियां सामयिक स्थितियों के अनुसार बनाई गई हैं। सूरजपोल के पास दाहिनी ओर एक भव्य मीनार बनी हुई है। इसके शीर्ष पर अष्टकोणीय ढोलाकार छतरी बनी हुई है। इसे बेरीसाल की बुर्ज कहा जाता है। यहाँ से पहरेदार शत्रुओं की हलचल को बहुत दूर से ही देख लेता था। किले की बुर्जों पर धनुषाकार आकृति में झूलते हुए झरोखों का निर्माण किया गया है जो दूर से बहुत अच्छे लगते हैं।

युद्ध काल में दुर्ग की बुर्जों में तोपें रखकर चलाई जाती थीं। तोपों के निकट बड़े-बड़े गोलाकार एवं बेलनाकार पत्थर रखे जाते थे। शत्रु के परकोटे पर चढ़ने की स्थिति में ये पत्थर उनके ऊपर लुढ़का दिये जाते थे। बुर्जों में भूमिगत कक्ष बने हुए हैं जिनमें बारूद तथा अन्य युद्ध सामग्री रखी रहती थी।

जैसलमेर दुर्ग का स्थापत्य

जैसलमेर दुर्ग 1500 फुट लम्बाई तथा 750 फुट की अधिकतम चौड़ाई में  त्रिकोणीय आकृति में बना है। यह दुर्ग विश्व के मरुस्थलीय दुर्गों में सर्वश्रेष्ठ है। इस दुर्ग का निर्माण पत्थर पर पत्थर रखकर किया गया है, इसमें किसी प्रकार का कोई चूना या योजक मिश्रण काम में नहीं लिया गया है। बिना किसी योजक सामग्री के एक-दूसरे में फंसाए गए पत्थर, तीन से चार कि्ंवटल तक भारी हैं।

दशहरा चौक

दुर्ग में प्रवेश करने के लिये बने चारों द्वारों को पार करने के बाद सबसे पहले दशहरा चौक आता है जहाँ रियासती काल में दशहरा मनाया जाता था। दशहरा के दिन इस स्थान पर महारावल संगमरमर के सिंहासन पर आकर बैठता था तथा उसके राव, उमराव एवं जागीरदार अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार नीचे बनी सीढ़यों पर बैठते थे। दरबार में रूपसी नृत्यांगनाओं का नाच-गाना होता था। दरबार समाप्त होने के बाद देवी को पशुबलि अर्पित की जाती थी।

दुर्ग में स्थित महल

दुर्ग परिसर में स्थित रंग महल, गज विलास, मोती महल, सर्वोत्तम विलास तथा दुर्ग संग्रहालय दर्शनीय हैं। दुर्ग परिसर में अनेक मंदिर एवं आवासीय भवन बने हुए हैं। गज विलास, दशहरा चौक से खड़े होकर देखा जा सकता है। इसका निर्माण महारावल गजसिंह ने ई.1884 में करवाया था।

इसके सुरंगदार स्तंभ, दांतेदार मेहराब, झूलती प्रासादिका, झरोखे, बारियां, आरपार जाली का काम, गुम्बदाकार एवं नोकदार दीवारें सभी कुछ दर्शनीय हैं। इसके प्रमुख झरोखे के नीचे प्रस्तर में उत्कीर्ण मयूर अपनी चोंचों में मोतियों की मालाएं लिये हुए हैं। इसके पास में रनिवास बना हुआ है।

यहाँ इस प्रकार के जाली झरोखे बने हुए हैं कि रानियां महलों के भीतर से बाहर का दृश्य देख सकती थीं किंतु बाहर खड़े व्यक्ति को भीतर का दृश्य दिखाई नहीं देता था। इसके पूर्व में कुंवरपदा बना हुआ है। यहाँ अविवाहित युवराज एवं अन्य राजकुंवर निवास करते थे।

महारावल अखेसिंह (ई.1722-1761) के समय दुर्ग परिसर में सर्वोत्तम विलास नामक महल बनवाया गया। इसमें नीली चौकियों एवं कांच का जड़ाऊ काम किया गया है। इसे शीश महल भी कहा जाता है। हवापोल के ऊपर रंगमहल का निर्माण महारावल मूलराज (द्वितीय) (ई.1761-1819) के समय करवाया गया। इसका दालान स्थापत्य कला की दृष्टि से प्रशंसनीय है। इसी मूलराज के समय में ई.1813 में मोती महल का निर्माण करवाया गया। इसके पत्थर के दरवाजों पर किया गया फूल-पत्तियों का तक्षण कार्य देखने योग्य है।

जैसलमेर दुर्ग का इतिहास

जैसलमेर दुर्ग का इतिहास यदुवंशी भाटियों के मरुस्थल में आने का इतिहास है जो राव जैशल के समय से आरम्भ होता है। जैसलमेर दुर्ग अपनी स्थापना से लेकर भारत को स्वतंत्रता मिलने तक जैसलमेर के भाटी शासकों के अधिकार में रहा किंतु बीच-बीच में कुछ समय के लिए मुसलमानों ने भी इस दुर्ग पर अधिकार किया।

मुसलमानों के अधिकार में

कुछ काल के लिये यह दुर्ग मुसलमानों के अधिकार में भी रहा। अल्लाऊद्दीन खिलजी व फिरोज तुगलक ने इस दुर्ग पर कई वर्ष लम्बे घेरे डाले तथा विजय प्राप्त कर दुर्ग में बने मन्दिरों को नष्ट किया। जब दुर्ग पुनः हिन्दुओं के अधिकार में आया तब नये मन्दिरों का निर्माण किया गया।

दुर्ग में हुए ढाई साके

जैसलमेर दुर्ग ने हिन्दू वीरों के ढाई साके देखे।

जैसलमेर का पहला साका

जैतसिंह भाटी के शासन काल में उसके पुत्र मूलराज तथा रतनसिंह, अल्लाऊदीन खिलजी का खजाना लूटकर जैसलमेर ले आये। जब अल्लाउदीन खिलजी ने मण्डोर पर आक्रमण किया, तब मण्डोर का राजा, जैतसिंह की शरण में जैसलमेर चला आया। इन दोनों बातों से क्रोधित होकर अल्लाऊदीन खिलजी ने जैसलमेर पर आक्रमण किया।

भाटी सरदार युद्ध की तैयारी करके जैसलमेर दुर्ग में बन्द हो गये। म्लेच्छ सेना ने 12 वर्ष तक दुर्ग पर घेरा डाले रखा किंतु उसे विजय नहीं मिल सकी। लगभग आठ वर्ष तक दुर्ग में रहकर युद्ध संचालित करते हुए भाटी राजा जैतसिंह वीर गति को प्राप्त हुआ।

जैतसिंह के बाद मूलराज जैसलमेर का महारावल हुआ। मूलराज ने चार वर्ष तक युद्ध का संचालन किया। इस बीच अल्लाउदीन खिलजी चित्तौड़, सिवाना एवं जालोर से निबट चुका था। इसलिये उसने अपनी पूरी शक्ति जैसलमेर के विरुद्ध लगा दी। जब किले में रसद समाप्त हो गई तो महारावल मूलराज ने अपने छोटे भाई रतनसिंह से सलाह करके, साका करने का निश्चय किया।

साके की पूर्व रात्रि में दो खोखर राजपूत महारावल के पांव दबा रहे थे। उन्हें उदास देखकर महारावल ने उनकी उदासी का कारण पूछा। दोनों राजपूतों ने कहा कि महाराज कल साका है और अभी हमारा विवाह नहीं हुआ। कुमारों को स्वर्ग में स्थान नहीं मिलता इसलिये उदास हैं।

महारावल ने उसी समय अपनी दो राजकुमारियों को बुलाया और उनका विवाह खोखर राजपूतों से कर दिया। विवाह के बाद दोनों राजकुँवरियों ने जौहर का आयोजन किया। अगले दिन हिन्दू वीरों ने केसरिया पहनकर दुर्ग के द्वार खोल दिये। इस युद्ध में दोनों खोखर वीरों ने बड़ी वीरता दिखाई तथा और युद्ध क्षेत्र में ही तिल-तिल कर कट मरे। यह जैसलमेर दुर्ग का पहला और भाटियों का चौथा साका था।

दुर्ग पर पुनः भाटियों का अधिकार

जैसलमेर दुर्ग पर अधिकार करने के बाद खिलजी सेना दुर्ग पर ताला लगाकर दिल्ली लौट गई। खिलजियों के चले जाने के कुछ दिन बाद, दूदा और तिलोकसी ने जैसलमेर दुर्ग के ताले तोड़कर उस पर अधिकार कर लिया। दूदा (दुर्जनशाल) तथा तिलोकसी (त्रिलोकसिंह) भाटी राजवंश से ही थे।

आय का कोई अन्य स्रोत नहीं होने के कारण इन्होंने मुस्लिम शासकों के खजानों पर डाके डालना आरम्भ कर दिया। ये अजमेर, रेवाड़ी तथा सिन्ध तक डाके डालते तथा मरुस्थल की गोद में बने जैसलमेर दुर्ग में आकर छिप जाते। इन दोनों भाटी सरदारों ने मूलराज तथा रतनसिंह के साथ ही साका करने की शपथ ली थी किन्तु किसी कारण युद्ध में काम नहीं आ सके थे। अतः इन्होंने मुस्लिम सेना को तंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

जैसलमेर का दूसरा साका

इस बीच दिल्ली सल्तनत से खिलजियों का शासन समाप्त हो गया और तुगलक वंश ने सत्ता पर अधिकार जमा लिया। मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी सेनाएं जैसलमेर पर आक्रमण करने भेजी। छः वर्ष तक घेरा रखने पर भी तुगलक सेना, दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सकी। जब किले में रसद समाप्त होने लगी तो शत्रु को चकमा देने के लिये दूदा ने दूध की खीर बनवाकर उसे दुर्ग से बाहर जाने वाली नालियों में बहाया।

शत्रुओं ने यह सोचकर दुर्ग से घेरा उठाने का विचार किया कि अभी तो दुर्ग में दूध-खीर की नदियां बह रही हैं। अतः रसद समाप्त होने वाला नहीं है किन्तु एक गद्दार लालची हिन्दू द्वारा भेद खोल दिये जाने के कारण मुस्लिम सेनाओं ने घेरा उठाने का विचार त्याग दिया।

कोई अन्य उपाय न देखकर दूदा और तिलोकसी ने साका करने का निश्चय किया। इस पर रनिवास की समस्त स्त्रियों ने जौहर का आयोजन किया। अगले दिन जसहड़ भाटी भारी वीरता का प्रदर्शन करके सैकड़ों म्लेच्छों को यमघाट उतार कर वीर लोक पहुंचा। वीर शिरोमणि उत्तेराव सिर कट जाने के बाद भी लड़ता रहा।

उसके कबन्ध पर नीला रंग डालकर शान्त किया गया। उत्तेराव को झूंझार हुआ जान दूदा और तिलोकसी भी समरांगण में उतरे और शत्रुओं का संहार करते हुए वीरलोक पहुंचे। जब दूदा की रानी को यह समाचार मिला तो उसने हूंफा चारण से अपने पति का सिर लाने को कहा।

हूंफा ने मुस्लिम सेनापति के पास जाकर अपने स्वामी का सिर मांगा। मुस्लिम सेनापति ने कहा कि सिर ले जाओ, यदि पहचान सको तो। हूंफे ने कहा कि मैं समरांगण में जाकर कविता पढ़ूंगा। मेरे स्वामी का कटा हुआ सिर मेरे छन्द सुनकर मुस्कुराने लगेगा। मुस्लिम सेनापति के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब हूँफा के छन्द सुनकर दूदा का कटा सिर मुस्कुराने लगा। इस सम्बन्ध में एक दोहा कहा जाता है-

शादू हूंफे सेवियो साहब दुर्जन सल्ल

बिड़दो माथो बोलियो गीतों दूहों गल्ल।

रानी, दूदा का सिर अपनी गोद में रखकर सती हो गई। किले पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। कुछ दिन बाद मूलराज के भाई रत्नसिंह के पुत्र घड़सी ने मुस्लिम किलेदार को मारकर पुनः दुर्ग पर अधिकार कर लिया। महारावल घड़सी की हत्या उसके सरदारों में से ही किसी ने छलपूर्वक की।

उसकी रानी ने मूलराज के पौत्र देवराज के पुत्र राणा रूपसिंह के दौहित्र केहर को छायण अथवा मण्डोर से बुलाकर जैसलमेर की गद्दी पर बैठाया। इसके समय में जैसलमेर के प्रसिद्ध वैष्णव मन्दिर एवं लक्ष्मीनाथ मन्दिर का निर्माण हुआ। उसके समय से ही लक्ष्मीनाथजी को राज्य का वास्तविक अधिकारी एवं महारावल को उनका दीवान माना गया। यह जैसलमेर दुर्ग का दूसरा तथा भाटियों का पांचवा साका था।

जैसलमेर का आधा साका

महारावल लूणकर्ण को कान्धार के पठान अमीर अली ने पगड़ी बदल भाई बनाया था। एक बार वह कान्धार से जैसलमेर आया तथा उसने जैसलमेर का राज्य हथियाने के लिये एक षड़यन्त्र रचा। अमीर अली ने महारवल से कहा कि बेगमें आपकी रानी के दर्शन करना चाहती हैं।

महारावल की आज्ञा प्राप्त कर उसने बेगमों की डोलियां दुर्ग में भिजवाईं किंतु उनमें बेगमों के स्थान पर हथियार बन्द योद्धाओं को बैठा दिया। दुर्ग के एक पहरेदार को डोलियों में से पुरुषों की आवाज सुनाई दी तो उसने तलवार से पर्दा हटाया। बेगमों के स्थान पर मुसलमान सैनिकों को देखकर वहीं मारकाट आरम्भ हो गई। दुर्ग में मौजूद समस्त हिन्दू पुरुषों ने पठानों से युद्ध आरम्भ कर दिया।

महारावल को अमीर अली के षड़यंत्र की सूचना मिली। महारवल के आदेश से दुर्ग में रणभेरी बजने लगी। राजमहल के द्वार बन्द कर दिये गये तथा साके की घोषणा हो गई। जौहर के लिये अग्नि जलाने का समय नहीं था। इसलिये रानिवास की समस्त कुल वधुओं और हिन्दू ललनाओं ने अपने सिर आगे कर दिये। महारावल ने अपनी तलवार से उनके सिर विच्छेद कर दिये।

रक्तरंजित तलवार लेकर महारावल रनिवास से बाहर निकला और अपने अंगरक्षकों तथा अन्य कर्मचारियों सहित अली पठान से जूझकर स्वर्ग में अपनी रानियों से जा मिला। इस साके में महारावल के चार भाई, तीन पुत्र तथा चार सौ योद्धा काम आये। थार मरुस्थल में यह घटना आधे साके के नाम से जानी जाती है। वस्तुतः यह जैसलमेर का तीसरा और भाटियों का छठा साका था।

इस घटना के समय युवराज मालदेव शिकार खेलने जंगल में गया हुआ था। जब उसने रणभेरी की आवाज सुनी तो वह दुर्ग को लौटा। उसने अमीर अली को बन्दी बनाकर चमड़े के बोरे में बन्द कर दिया और तोप के गोले से उड़ा दिया।

जैसलमेर दुर्ग परिसर के मंदिर

दुर्ग परिसर में कई मन्दिर हैं जिनमें से कुछ वैष्णवों के तथा कुछ जैनियों के हैं। वैष्णवों के मन्दिरों में टीकमरायजी का मन्दिर सबसे प्राचीन है। जैन मन्दिर पार्श्वनाथ, संभवनाथ, शीतलनाथ, शान्तिनाथ, अष्टपद, ऋषभदेव, महावीर स्वामी तथा चन्द्रप्रभ स्वामी के हैं। महारावल वैरिसिंह अथवा वीरसिंह ने अपनी रानियों के नाम पर सूर्यमन्दिर, रत्नेश्वर महादेव महामन्दिर तथा दो कुएं बनवाये।

टीकमरायजी का मन्दिर

इस मन्दिर की नींव, दुर्ग की नींव रखने से भी पहले महारावल जयशाल ने ई.1155 में रखवाई। इसमें यादवों के प्राचीन आदिनारायण देव की मूर्ति स्थापित है। जैसलमेर के भाटियों की कुल देवी तथा मेघाडम्बर छत्र भी इसी मन्दिर में स्थापित हैं। खिलजी तथा तुगलक सैनिकों ने इस मन्दिर को तोड़ दिया था किन्तु ई.1753 में महारावल जसवन्त सिंह ने इसका जीणोंद्धार करवाया।

लक्ष्मीनाथ मन्दिर

भगवान विष्णु का यह मन्दिर ई.1434 में रावल लक्ष्मण के शासन काल में बना। यह मन्दिर दुर्ग के ऊपर जैसलू कुएं के पास बना हुआ है। इसके सामने रत्नेश्वर महादेव तथा आदि विनायक गणेशजी का मन्दिर बना हुआ है। मन्दिर का निर्माण प्रतिहार कालीन मन्दिर पद्धति से किया गया है। मन्दिरों के तोरणद्वारों, सभा मण्डपों, स्तम्भों तथा शिखरों पर प्रतिहार कालीन कला की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। मन्दिर एक ऊंचे चबूतरे पर बनाया गया है। इसके दो मुख्य द्वार हैं। पहला द्वार कुण्ड पाड़े की तरफ तथा दूसरा जैसलू कुएं की तरफ है।

सभामण्डप की चित्रकारी, जलोट के ऊपर का चान्दी का तोरण, चान्दी की दीवारों तथा सोने के किवाड़ों को देखकर मन्दिर की समृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। भगवान लक्ष्मीनाथ मारवाड़ी सेठ के ठाठ में विराजमान हैं। भगवान केसरिया पाग और रक्तवर्णी बागा धारण कर तथा वाम भाग में विश्व की सबसे बड़ी सेठानी देवी लक्ष्मी को साथ लेकर, गरुड़ की पीठ पर आसीन हैं।

लक्ष्मीनाथ एवं लक्ष्मीजी दोनों ने हीरों तथा पन्नों से जगमगाते आभूषण धारण कर रखे हैं। मन्दिर में संवत् 1491 (ई.1434) का एक शिलालेख भी लगा है जिसमें मन्दिर के निर्माताओं का उल्लेख है। दीवान नथमल की तवारीख में कहा गया है कि भगवान लक्ष्मीनाथ की मूर्ति मेड़ता से लाई गई थी जहाँ यह पृथ्वी में से स्वतः प्रकट हुई थी। जैसलमेर के महारावल लक्ष्मीनाथजी को राज्य का स्वामी तथा स्वयं को उनका दीवान मानकर शासन करते थे।

रत्नेश्वर महादेव

लक्ष्मीनाथ मन्दिर के सामने ऊंचे चबूतरे पर रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर स्थित है। इसका निर्माण ई.1441 में महारावल वैरिसिंह ने अपनी रानी रत्ना के नाम पर करवाया था। मन्दिर में शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित है। महारावल शालिवाहन सिंह (द्वितीय) के काल में मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया गया।

सूर्य मन्दिर

यह मन्दिर ई.1441 में महारावल वैरिसिंह ने अपनी दूसरी रानी सूर्यकंवर की स्मृति में बनवाया। मन्दिर व्यास पाड़े के पास ऊंचे चबूतरे पर बनाया गया है जिसमें भगवान भुवन भास्कर की लगभग 500 साल पुरानी मूर्ति रथ में स्थापित है। सूर्य देवता के साथ अन्य देवी-देवता भी मन्दिर में विराजमान हैं।

खुशाल राज-राजेश्वरी मन्दिर

यह मन्दिर ठाकुर राज खुशाल सिंह की रानी ने बनवाया था। इसकी कला अमर सागर स्थित आदीश्वर मन्दिर तथा पटुवों की हवेली से मिलती जुलती है।

गिरधारी व बांके बिहारी के मन्दिर

राजप्रासाद के निचले भाग में वल्लभ कुल सम्प्रदाय के गिरधारी एवं बांके बिहारी के ग्यारह मन्दिर बने हुए हैं। इन मन्दिरों का निर्माण ई.1778 में महारावल मूलराज ने करवाया था।

आईनाथ मन्दिर

जैसलमेर के भाटी शासकों की कुल देवी आईनाथजी अथवा स्वांगिया (स्वांग्रहाणी) कहलाती है। आई का अर्थ माता होता है। कहा जाता है कि जरासन्ध से परास्त होने के बाद, यादव वीरों ने कृष्णजी से जरासंध की पराजय का उपाय पूछा।

कृष्णजी ने कहा कि जरासंध के पास देवी से प्राप्त एक भाला है जिसे प्राप्त किए बिना जरासंध को कोई नहीं जीत सकता। यादवों ने तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया और उससे जरासन्ध का भाला मांगा। देवी ने जरासंध को आदेश दिया कि वह अपना भाला यादवों को दे दे। जरासंध ने देवी का आदेश नहीं माना तो देवी को उससे युद्ध करना पड़ा। युद्ध में भाला कुछ मुड़ गया।

भाले को स्वांग भी कहते हैं। इसी कारण देवी का नाम स्वांगग्रहाणी पड़ा जो कालान्तर में बिगड़ कर स्वांगिया हो गया। भाटियों की कुल देवी के हाथ में मुड़ा हुआ भाला ही दिखाया जाता है। इसी मुड़े हुए भाले वाली देवी की कृपा से जैसलमेर के इन यादव वीरों (भाटी शासकों) ने उत्तर पश्चिम से आने वाले यवन, शक, कुषाण, हूण, मंगोल, तथा अन्य आक्रान्ताओं से सहस्राब्दियों तक लोहा लिया।

गजनी, अफगानिस्तान, सिन्ध, पंजाब, भटनेर, देरावल, तनोट, मूमलवाहन (बहावलपुर), मारोठ, लोद्रवा आदि जो भी स्थान भाटियों के अधीन रहे, वहाँ स्वांगिया देवी की प्रतिमाएं हजारों की संख्या में मिलती हैं। भाटी, देवी की सात शक्तियों की पूजा करते हैं।

जैसलमेर दुर्ग में स्थित राजप्रासाद में भी स्वांगिया देवी का मन्दिर है जिसमें निराकार काठ की प्रतिमाएं तथा सात शक्तियों की पाषाण प्रतिमाएं स्थापित हैं। दशहरे पर देवी के आगे बकरे एवं भैंसे की बलि दी जाती है। मन्दिर में महारावल गजसिंह द्वारा स्थापित आईनाथजी का ठाळा भी है।

दुर्ग संग्रहालय

दुर्ग के भीतर दशहरा चौक में स्थित गज विलास एवं अन्य प्रासादों के परिसर में संग्रहालय बनया गया है। इसका संचालन गिरिधर स्मारक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। संग्रहालय में देश की स्वतंत्रता के समय स्थित राजपूताना की 22 रियासतों से सम्बन्धित स्टाम्प एवं डाक टिकटों का अनूठा संग्रह है।

इस सामग्री को कांच की आलमारियों में प्रदर्शित किया गया है। संग्रहालय में रियासत कालीन पालकियां एवं दैनिक जीवन के लिए उपयोगी अन्य सामग्री संग्रहित की गई है। लकड़ी से निर्मित ‘डेजर्ट कूलर’ भी दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र है। इस काष्ठ कूलर को उस समय नौकर-चाकर हत्था घुमाकर चलाते थे।

संग्रहालय में प्राचीन शयन कक्ष को साकार रूप में प्रदर्शित किया गया है जिसमें रियासती काल में राज-पुरुषों के लिए शयन की व्यवस्था की जाती थी। कपड़े से निर्मित एक बड़ा पंखा भी लटक रहा है। इस पंखे की डोरी शयन कक्ष से बाहर एक घिर्री पर लगी हुई है। कक्ष के बाहर बैठा सेवक रात भर इस पंखे को झलता रहता था।

प्रासादों में उत्कीर्ण प्रस्तर निर्मित किवाड़, पशु-पक्षियों, मोतियों की मालाओं को चोंच में धारण किए मयूर, बेल-बूटे एवं पुष्पों को बहुत खूबसूरती के साथ उकेरा गया है। आर-पार जाली का काम, झूलते हुए झरोखों तथा आकाश को छूते गवाक्ष सभी कुछ दर्शनीय हैं।

भित्तिचित्र

जैसलमेर दुर्ग में स्थित राजप्रसादों में भित्तिचित्रों का अंकन किया गया है। इन चित्रों में जैसलमेरी चित्रकला के अनुरूप भावों की सजीवता दर्शनीय है। जैसलमेरी वस्त्र, झुकी हुई पाग, सोने-चांदी के रंगों का प्रयोग, अत्यन्त चित्ताकर्षक है।

भित्ति कक्ष में दशहरा की सवारी में महिलाओं एवं पुरुषों के तीखे-नाक नक्श, महिलाओं का ढका हुआ भाल, पुरुषों की पगड़ी तथा नोकदार साफे दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। राजमहिषियों की Üृंगार मुद्राओं एवं शिकार के दृश्य भी दर्शनीय हैं।

जिनभद्र सूरि ज्ञान भण्डार

जैसलमेर दुर्ग स्थित जिनभद्र सूरि ज्ञान भण्डार में भी प्राचीन ग्रन्थों, ताड़-पत्रों एवं भोज-पत्रों का अद्भुत संग्रह है। ज्ञान भण्डार में संग्रहीत 12 वीं शताब्दी के ताड़ पत्रों पर अत्यंत कलात्मक चित्रांकन किया गया है। इन पर जैन तीर्थकरों से सम्बन्धित चित्रों का अंकित किया गया है।

तत्कालीन जन-जीवन की झलक भी इन चित्रों में देखी जा सकती है। पट्टिकाओं पर जिराफ तथा गेंडे का भी चित्रांकन मिलता है जो सम्भवतः भारतीय चित्रकला में पहली बार चित्रित किया गया है। इन पुस्तकों के साथ ही इस ज्ञान भण्डार में नीलम, स्फटिक, पन्ना, सोने तथा चांदी के तीर्थकरों की मूर्तियां सचमुच दर्शनीय हैं।

जैसलमेर दुर्ग से सम्बन्धित विशिष्ट तथ्य

दुर्ग में स्थित कुएं

जनश्रुति है कि जैसलमेर दुर्ग में स्थित जैसलू कुएं का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से किया था। कहा जाता है कि एक बार भगवान श्रीकृष्ण अपने सखा अर्जुन के साथ घूमते हुए यहाँ आये। उन्होंने अर्जुन से कहा कि आगे चलकर मेरे वंशज यहाँ राज करेंगे। उनके लिये श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से गोलाकार कुएं का निर्माण किया। महारावल वैरिसिंह अथवा वीरसिंह ने दुर्ग में दो कुएं बनवाये। बूलीसर एवं राणीसर कुएं उसी काल के हैं।

आज भी निवास करती है जनता

राजस्थान में मुख्यतः दो दुर्ग ऐसे हैं जिनमें आज भी बड़ी संख्या में लोग निवास करते हैं। उनमें से एक चित्तौड़ का दुर्ग है तथा दूसरा जैसलमेर का दुर्ग है।

फिल्मों में भी उतरा जैसलमेर दुर्ग

जैसलमेर दुर्ग में अनेक फीचर फिल्मों की शूटिंग की जाती रही है। स्वयं इस दुर्ग पर भी सत्यजीत रे द्वारा ‘सोन्नार किला’ शीर्षक से फिल्म का निर्माण किया गया।

कविताओं में जैसलमेर दुर्ग

जैसलमेर की ख्यात में इस दुर्ग की प्रशंसा में लिखा है-

लंका ज्यु अगजीत है घणा घाट से घेर।

रिधु रहीसी भाटियां मही पर जैसलमेर।।

जैसलमेर दुर्ग के बारे में ये दोहे भी कहे जाते हैं-

गढ़ दिल्ली गढ़ आगरो, अधगढ़ बीकानेर।

भलो चिणायो भाटियां, सिरै तो जैसलमेर।।

भड़ किंवाड़ उतराध रा, भाटी झालण भार।

वचन राखा ब्रिजराज रा, समहर बांधो सार।।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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