Monday, October 14, 2024
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हाड़ौती की संगीत परम्परा

हाड़ौती की संगीत परम्परा प्रारम्भ से ही काफी समृद्ध रही है। इस परम्परा का विकास मूलतः वैष्णव मंदिरों में हुआ तथा बाद में इस परम्परा को विभिन्न रियासातों के राजाओं द्वारा संरक्षण प्राप्त हुआ। इस आलेख में हाड़ौती की संगीत परम्परा का संक्षिप्त परिचय दिया गया है।

कोटा की संगीत परम्परा

कोटा का मंदिर संगीत

गुप्तकाल में हाड़ौती क्षेत्र वैष्णव धर्म से प्रभावित था किंतु गुप्त काल के पश्चात् इस क्षेत्र में शैव धर्म का प्रभाव अधिक रहा। परवर्ती काल में हाड़ा शासकों के वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी हो जाने के कारण इस कारण इस क्षेत्र में वैष्णव मंदिरों का निर्माण हुआ।

इस काल में हाड़ौती क्षेत्र में रामानंदचार्य, माध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य आदि वैष्णव सम्प्रदायों का भी प्रभाव रहा। वल्लभाचार्य के वंशजों द्वारा ब्रज से कोटा लाये गये कृष्ण के विग्रह की, कोटा के मथुरेशजी अथवा मथुराधीशजी के मंदिर में स्थापना हुई।

 वर्तमान में भी कोटा के प्रमुख मंदिरों में वल्लभ सम्प्रदाय की सेवा पूजा पद्धति प्रचलित है। परम्परानुसार आठों प्रहर गायन, वादन, भक्ति भावना का आयोजन होता है। भक्ति में अष्ट छाप कवियों के पदों का गायन निर्धारित राग रागिनियों में ही करने की परम्परा है।

स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व कोटा राज्य के प्रमुख मंदिरों में राज्य की ओर से चार कलाकार- कीर्त्तनकार, मृदंग वादक, सारंगी वादक तथा हारमोनियम वादक नियुक्त किये जाते थे। कोटा के कई मंदिरों में आज भी धु्रपद, धमार, गायन, कीर्त्तन की परम्परा वर्षों से चली आ रही है।

नाथद्वारा के श्रीनाथजी के मंदिर की कीर्त्तन परम्परा की गायकी और कोटा के मंदिरों की गायकी में अंतर है। श्रीनाथजी के मंदिरों में गायन सामूहिक होता है जबकि कोटा के मंदिरों में एकाकी गायन होता है। गायन पद्धति में भी थोड़ा अंतर है।

कोटा महाराव उम्मेदसिंह ने 1770 ई. में राजपाट त्यागकर सन्यास ग्रहण कर लिया और अपना उपनाम श्रीजी रखा। महाराव रामसिंह तथा ईश्वरीसिंह विद्वान एवं कला-प्रेमी शासक हुए।

कोटा का गुणजीजन खाना

कोटा के गुणीजनखाने में दरोगा, भगतण, जांगड़, हारमोनियम वादक, नक्कारची, ढोलणियां, वीणा वादक तथा शायर नियुक्त होते थे जिन्हें रियासत की सरकार की ओर से मासिक वेतन मिलता था। ई.1899 की विगत के अनुसार इन्हें 5 रुपये से लेकर 20 रुपये प्रतिमाह तक वेतन मिलता था।

सर्वाधिक वेतन भगतण को मिलता था। उसे 40 रुपये से लेकर 84 रुपये प्रतिमाह तक वेतन दिया जाता था। ई. 1899 में कोटा के गुणजीन खाने का वार्षिक व्यय 2,927 रुपये था।

कोटा के वर्तमान संगीत कलाकार

कोटा के संगीत कलाकारों की वर्तमान पीढ़ी में महेश चंद्र शर्मा (संगीत विद्यालय), सुधा अग्रवाल (प्रिंसीपल कन्या महाविद्यालय), वशीर अहमद (कलावंत, सीकर निवासी), सोहन भय्या, रामदयाल समधानी, उस्ताद मांगीलाल, गोपीचंद, प्रभुदयाल, मथुरालाल आदि कोटा में संगीत परम्परा को जीवित रखे हुए हैं।

बूंदी की संगीत परम्परा

मथुरा घराने के बेजोड़ सितारवादक मीरबख्श बूंदी दरबार में नियुक्त हुए। मथुरा घराने के ही मेहताब खां के पुत्र मीरबख्श जो गायन तथा सितार वादन दोनों में प्रवीण थे, अपने जीवन के अंतिम समय में बूंदी नरेश बख्तसिंह के दरबार में रहे।

रंगीला घराने के मुहम्मद अली भी कुछ समय बूंदी रहे। गुलाम गौस खाँ (सुल्तानसिंह, राजपूत) बूंदी दरबार में रहे। ये गौहरवाणी में निपुण थे। बूंदी नरेश रामसिंह इन्हें काका कहते थे।

झालवाड़ की संगीत एवं नृत्य परम्परा

बीसवीं शताब्दी में इस क्षेत्र के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञों में झालावाड़ के सादिक अली (वीणा वादक), को 1919 में बनारस में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया। ये देश के नामी कलाकारों में से थे। ये 1925 में अलवर आ गये।

रंगीला फैयाज हुसैन, इब्राहिम खां, सुरैया बाई, नवलकिशोर राव, बेगम अख्तर, प्यारे इमामुद्दीन, मूलकचंद, मुरलीधर, उस्ताद देवीलाल, धन्नालाल, मथुरालाल (मृदंग-तबला), उस्ताद मुनीर खां, नृत्यांगना कूकी, रामनाथ (सारंगीवादक) आदि नाम उल्लेखनीय हैं।

रामनाथ ने सारंगी के स्थान पर सिणगार नामक वाद्य का निर्माण किया। सारंगी के साधारण ध्वनि बॉक्स के स्थान पर मयूराकृति में नवीन प्रकार का बॉक्स लगाकर नीचे धातु का हॉर्न लगा दिया। वे सारंगी के स्थान पर इसे ही बजाया करते थे। नृत्यांगना कूकी अत्यंत प्रवीण नर्तकी थी।

महाराजा की सवारी के समय पर हाथी की सूंड पर खड़ी होकर खूबसूरती से नाच लेती थी। झालावाड़ के फर्शी बैण्ड की दूर तक ख्याति थी जिसमें कई अच्छे वादक कलाकार नियुक्त थे। अतरौली घराने के फिदा हुसैन, इनके पुत्र इब्राहीम तथा शिष्या सुरैया एवं माणक बाई, ने भी प्रसिद्धि पाई।

उस्ताद फैय्याज खां, पूरण खां (आकाशवाणी अहमदाबाद), राजेश बिब्बो, हीरालाल, अमरलाल, श्रीलालजी, प्रभुजी, जयकिशन (सारंगी), उस्ताद छीतरजी, काले भय्या, गोपीचंद, मोतीलाल भुजवाले, केसरीलाल गंधर्व, कोटा के करम इलाही, शिवदानजी, पखावजियों में गणपतजी, टप्पा गायक मुमताज वहीदन, शकूरन, गोपीचंद, मोतीलाल कुनाड़ी वाले, उस्ताद मांगीलाल, बूंदी के तबला वादक मोडूलाल, उस्ताद काले खां, भंवरलाल, बारां के उस्ताद रामनारायण, धोकलजी, सुकदेव, छोटूलाल आदि हाड़ौती के प्रसिद्ध कलाकार हुए।

झालावाड़ के कई कलाकार कोटा रियासत गये। इसलिये कोटा तथा झालवाड़ के कलाकर एक दूसरे के गुरु एवं शिष्य रहे।

संगीत विद्यालय झालावाड़

झालावाड़ में मई 1940 में राजा राजेन्द्रसिंह ने संगीत विद्यालय की स्थापना की। रियासत के गुणीजन खाने के कलाकार नवकिशोर राव (गायन), धन्नालाल पुत्र मथुरालाल, (तबला वादक) तथा छोटे खां पुत्र अल्ला बख्श एवं भंवरलाल पुत्र द्वारकालाल दोनों सारंगी वादकों को इस विद्यालय में नियुक्त किया गया।

जून 1945 में नन्हे खां पुत्र गेंदा खां, गफूर बख्श पुत्र जहूर बख्श (गायन एवं नृत्य), शम्भूदयाल पुत्र पुरुषोत्तमलाल, भट्ट गंगाधर पुत्र रणछोड़ लाल, मुरलीधर शर्मा पुत्र श्रीनाथ, मोहम्मद बख्श पुत्र अमीर बख्श तथा धन्नजी को संगीत शिक्षक नियुक्त किया गया।

देश की स्वतंत्रता के पश्चात् यह विद्यालय राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग के अधीन आ गया। जुलाई 1959 में इस विद्यालय से नवलकिशोर राव, मुरलीधर शर्मा, रामदयाल तथा अमीरबख्श को कोटा में नया संगीत विद्यालय स्थापित करके स्थानान्तरण कर दिया गया और रिक्त स्थानों की पूर्ति अन्य कलाकारों से की गई।

ये विद्यालय प्रारम्भ में गंधव विद्यालय से सम्बद्ध रहे। इस प्रकार कोटा एवं झालावाड़ के संगीत विद्यालयों में नियुक्त प्रारम्भिक गायक तथा वाद झालावाड़ रियासत के नामवर कलाकार थे। ये न केवल दरबारी कलाकार थे अपितु कई कार्य करते थे। ये भवानी नाट्यशाला के नाटकों में भी काम करते, म्यूजिक बैण्ड में भी भाग लेते, महाराजा की कोठी स्थित श्रीकृष्ण भगवान के मंदिर में भी सुबह शाम गायन हेतु इनकी ड्यूटी लगती थी।

झालावाड़ की नाट्य परम्परा

झालावाड़ रियासत में संगीतज्ञों के लिये गुणीजन खाना स्थापित किया गया। महाराजा भवानीसिंह (1899-1929), राजेन्द्रसिंह (1929-43), हरीश्चन्द्र (1943-1949) विद्वान तथा कलाप्रेमी शासक थे। महाराजा भवानीसिंह स्वयं कवि तथा नाट्यकार थे और नाटकों में अभिनय करते थे। झालावाड़ में एक अस्थाई नाट्यशाला थी, महाराजा भवानीसिंह ने 1921 ई. में तीन मंजिला भवानी नाट्यशाला बनवाई। झालावाड़ में संगीत नृत्य विद्यालय की स्थापना 1940 ई. में हुई।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हाड़ौती की संगीत परम्परा आज भी किसी न किसी रूप में जीवित है।

-डॉ मोहनलाल गुप्ता

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