चौहान साम्राज्य की पूर्वी सीमा चंदेलों के राज्य से मिलती थी। चंदेल राजा परमारदी देव गाहड़वालों से मित्रता रखता था। गाहड़वालों की चौहानों से दुश्मनी थी। इस कारण पृथ्वीराज चौहान का चंदेलों से युद्ध हुआ।
चौहान साम्राज्य की पूर्वी सीमा चंदेलों के राज्य से मिलती थी। चंदेल राजा परमारदी देव गाहड़वालों से मित्रता रखता था। इस कारण पृथ्वीराज चौहान का चंदेलों से युद्ध हुआ।
चौहान साम्राज्य की पूर्वी सीमा चंदेलों के राज्य से मिलती थी। चंदेलों के राज्य में मध्यभारत के बुन्देलखण्ड, जेजाकभुक्ति तथा महोबा के क्षेत्र आते थे। कलिंजर का प्रसिद्ध दुर्ग भी इसी राज्य में स्थित था। राजा पृथ्वीराज का ननिहाल चेदिदेश भी बुंदेलखण्ड का ही हिस्सा था किंतु उस पर कलचुरियों का शासन था। इस प्रकार चंदेलों एवं कलचुरियों के पूरे प्रदेश को मिलाकर बुंदेलखण्ड कहा जाता था।
राजा पृथ्वीराज के समय में चंदेल राजा परमारदी देव महोबा का राजा था जिसे कुछ ग्रंथों में राजा परमाल भी कहा गया है। महोबा राज्य की दूसरी तरफ कन्नौज राज्य स्थित था। माऊ शिलालेख के अनुसार महोबा के चंदेलों और कन्नौज के गाहड़वालों में मैत्री सम्बन्ध था। चंदेलों और गहड़वालों का संगठन, पृथ्वीराज के लिये सैनिक व्यय का कारण बन गया।
चंदेल राजा परमारदी देव राजा पृथ्वीराज चौहान की विस्तारवादी नीति के कारण चौहानों को अपना शत्रु मानता था। इसलिए ई.1182 में राजा परमारदी देव ने पृथ्वीराज चौहान के कुछ घायल सैनिकों को मरवा दिया। उनकी हत्या का बदला लेने के लिये पृथ्वीराज चौहान ने चंदेलों पर आक्रमण किया। चौहान सेनाएं चंदेल राज्य में घुस गईं तथा लूट-पाट करती हुई महोबा की तरफ बढ़ने लगीं। इस प्रकार चंदेलों से युद्ध ठन गया।
पृथ्वीराज की सेना ने उरई के निकट अपना मुख्य शिविर स्थापित किया। चौहान सेना का संचालन काका कन्ह चौहान ने किया। पुण्डरक का राजा चंद्र पुण्डीर पृथ्वीराज की सेना के हरावल में रहा। दक्षिण पक्ष की सेना नेतृत्व पंजवनराय कच्छवाहा ने किया, बाएं पक्ष का संचालन मोहाराय ने किया। राजा पृथ्वीराज एक हाथी पर सवार होकर सेना के मध्य में रहा। प्रधानमंत्री कैमास, सामंत संयमराय तथा कवि चंदबरदाई भी राजा पृथ्वीराज के साथ रहे।
राजा परमारदी देव ने भी बड़ी भारी सेना लेकर चौहान सेनाओं का सामना किया। उसने अपने इतिहास-प्रसिद्ध योद्धाओं आल्हा-ऊदल को पृथ्वीराज की सेनाओं के विरुद्ध रणक्षेत्र में उतारा। इस प्रकार परमारदी देव की तरफ से चंदेलों के साथ-साथ बनाफरों ने भी भाग लिया।
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युद्ध कई दिनों तक चला। कुछ दिनों के युद्ध के बाद चौहानों का पलड़ा भारी पड़ने लगा। तब आल्हा ने अपनी सेना को संभाला। युद्ध के अंतिम दिन युद्ध का रंग बिगड़ते देखकर ऊदल ने अपनी पगड़ी में शालिगरामजी एवं तुलसी बांधी तथा अपने घोड़े से उतरकर भीषण तलवार चलाने लगा। उसके बनाफर एवं चंदेल साथी भी अपने घोड़ों से उतरकर भीषण तलवार चलाने लगे।
राजा पृथ्वीराज चौहान, काका कन्ह चौहान, सामंत पंजवनराय, प्रधानमंत्री कैमास तथ अन्य चौहान सैनिक भी मरने-मारने के संकल्प के साथ अपने घोड़ों से उतर गए तथा तलवार चलाने लगे।
उन दिनों हिन्दू वीरों में यह परम्परा थी कि जब वे युद्ध क्षेत्र में प्राण न्यौछावर करने का निर्णय लेते थे तो अपने घोड़े से उतर कर शत्रु पर भीषण प्रहार करते थे ताकि अपने शरीर की सम्पूर्ण ऊर्जा का अधिकतम उपयोग किया जा सके।
दोनों पक्षों में हुए भीषण युद्ध में ऊदल काका कन्ह चौहान के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। राजा पृथ्वीराज भी मृत्यु के मुख तक जा पहुंचा। आल्ह-खण्ड आदि सहित अपने प्राचीन पुस्तकों में युद्ध की भयानकता का वर्णन किया गया है। यह युद्ध इतना भयंकर था कि दोनों पक्षों के योद्ध अपने-अपनी साथियों की सुधि लेना भी भूल गए।
यहाँ तक कि राजा पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल होकर युद्ध के मैदान में गिर गया। उसके शरीर पर गिद्ध आकर बैठ गया और उसकी छाती का मांस नौंचकर खाने लगा। पृथ्वीराज का सामंत संयमराय राजा पृथ्वीराज के निकट ही धरती पर पड़ा हुआ था।
संयमराय ने अपने राजा की यह हालत देखी तो उसने अपने शरीर से मांस काटकर गिद्ध की तरफ उछाला। गिद्ध ने राजा पृथ्वीराज को छोड़ दिया तथा संयमराय के शरीर के मांस के टुकड़ों को खाने लगा।
इसी बीच कुछ और चौहान सामंतों की दृष्टि अपने मूर्च्छित राजा की देह पर पड़ी। वे पृथ्वीराज तथा संयमराय की देह को उठाकर ले गए। उन दोनों का उपचार किया गया। राजा तो बच गया किंतु वीर कुलभूषण संयमराय त्याग एवं समर्पण के अनंत उज्जवल पथ पर चला गया।
अंत में चंदेल राजा परमारदी देव की पराजय हो गई। ई.1182 के मदनपुर लेख के अनुसार राजा पृथ्वीराज चौहान ने जेजाकभुक्ति के प्रदेश को नष्ट कर दिया। इस शिलालेख के मिलने से पहले इतिहासकार महोबा के युद्ध को काल्पनिक समझा करते थे किंतु मदनपुर के इस छोटे से शिलालेख ने भारत के इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय को बदलकर रख दिया।
जैन ग्रंथ शारंगधर पद्धति और प्रबंध चिंतामणि नामक ग्रंथों के अनुसार राजा परमारदी ने मुख में तृण लेकर पृथ्वीराज से क्षमा याचना की।
युद्ध समाप्त होने के पश्चात् धसान नदी के पश्चिमी भाग अर्थात् सागर, ललितपुर, ओरछा, झांसी, सिरस्वागढ़ सहित महोबा राज्य का बहुत सा भू-भाग पृथ्वीराज चौहान के हाथ लगा। उसने अपने सामंत पंजवनराय को विजित क्षेत्र का प्रांतपति नियुक्त किया। महोबा राज्य पर विजय प्राप्त करने के बाद राजा पृथ्वीराज के राज्य की सीमाएं कन्नौज राज्य से जा लगीं।
यद्यपि चंदेलों से युद्ध में राजा परमारदी देव परास्त हो गया किंतु उसका राज्य नष्ट नहीं हुआ। वह ई.1203 तक अपने महोबा पर राज्य करता रहा। ई.1203 में मुसलमानों ने उसका राज्य नष्ट हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता