पिछली कड़ी में हमने पृथ्वीराजा रासो में दिए गए विवरण के आधार पर राजा पृथ्वीराज चौहान की गजनी में मृत्यु होने की चर्चा की थी किंतु आधुनिक अनेक मध्यकालीन एवं आुधनिक इतिहासकार पृथ्वीराज रासौ के इस विवरण को सही नहीं मानते।
हम्मीर महाकाव्य में पृथ्वीराज को कैद किए जाने और अंत में मरवा दिए जाने का उल्लेख है। विरुद्ध-विधि-विध्वंस में पृथ्वीराज का युद्ध स्थल में काम आना लिखा है। पृथ्वीराज प्रबन्ध का लेखक लिखता है कि विजयी शत्रु पृथ्वीराज को अजमेर ले आये और उसे एक महल में बंदी के रूप में रखा गया। इसी महल के सामने मुहम्मद गौरी अपना दरबार लगाता था जिसे देखकर पृथ्वीराज को बड़ा दुःख होता था।
एक दिन राजा पृथ्वीराज ने मंत्री प्रतापसिंह से धनुष-बाण लाने को कहा ताकि वह अपने शत्रु का अंत कर दे। मंत्री प्रतापसिंह ने राजा पृथ्वीराज को धनुष-बाण लाकर दे दिये तथा उसकी सूचना मुहम्मद गौरी को दे दी।
राजा पृथ्वीराज की परीक्षा लेने के लिये गौरी की मूर्ति एक स्थान पर रख दी गई जिसको पृथ्वीराज ने अपने बाण से तोड़ दिया। अंत में गौरी ने पृथ्वीराज को गड्ढे में फिंकवा दिया जहाँ पत्थरों की चोटों से उसका अंत कर दिया गया।
पृथ्वीराज चौहान के दो समसामयिक लेखक यूफी तथा हसन निजामी राजा पृथ्वीराज को कैद किये जाने का उल्लेख तो करते हैं किंतु निजामी यह भी लिखता है कि जब बंदी पृथ्वीराज जो इस्लाम का शत्रु था, सुल्तान के विरुद्ध षड़यंत्र करता हुआ पाया गया तो उसकी हत्या कर दी गई। हसन निजामी पृथ्वीराज की मृत्यु के स्थान का उल्लेख नहीं करता।
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मिनहाज उस सिराज पृथ्वीराज के भाग जाने पर पकड़े जाने और फिर मरवाए जाने का उल्लेख करता है। फरिश्ता भी इसी कथन का अनुमोदन करता है। इलियट ने भी मिन्हास उस सिराज तथा फरिश्ता द्वारा लिखे गए मत को स्वीकार किया है। अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में लिखा है कि पृथ्वीराज को सुलतान गजनी ले गया जहाँ पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई।
उपरोक्त सारे लेखकों में से केवल यूफी और निजामी समसामयिक हैं, शेष लेखक बाद में हुए हैं किंतु यूफी और निजामी पृथ्वीराज के अंत के बारे में अधिक जानकारी नहीं देते। निजामी लिखता है कि पृथ्वीराज को कैद किया गया तथा किसी षड़यंत्र में भाग लेने का दोषी पाये जाने पर मरवा दिया गया। यह विवरण पृथ्वीराज प्रबन्ध के विवरण से मेल खाता है।
समस्त विवरणों को पढ़ने के बाद यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पृथ्वीराज को युद्ध क्षेत्र से पकड़कर अजमेर लाया गया तथा कुछ दिनों तक बंदी बनाकर रखने के बाद अजमेर में ही उसकी हत्या की गई। इस अनुमान की पुष्टि पृथ्वीराज चौहान के उन सिक्कों से भी होती है जिन्हें मुहम्मद गौरी ने एक तरफ अपने नाम का खुतबा लिखवाकर फिर से जारी करवाया। ऐसा एक सिक्का अजमेर से मिला है।
ई.1192 में चौहान पृथ्वीराज (तृतीय) की मृत्यु के साथ ही भारत का इतिहास मध्यकाल में प्रवेश कर जाता है। इस समय भारत में दिल्ली, अजमेर तथा लाहौर प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे और ये तीनों ही मुहम्मद गौरी और उसके गवर्नरों के अधीन जा चुके थे।
चौहान शासक पृथ्वीराज (तृतीय) ने भारत पर चढ़कर आये मुहम्मद गौरी को कई बार छोटे-बड़े युद्धों में परास्त किया। पृथ्वीराज वीर तो था किंतु अदूरदर्शी भी था। उसने हाथ में आये शत्रु को कई बार जीवित छोड़ दिया। वह इस्लामी आक्रमणों की शक्ति एवं उनकी गंभीरता को नहीं समझ सका।
उसने अपने स्वजातीय बंधुओं महोबा नरेश परमारदी चंदेल, कन्नौज नरेश जयचंद गाहड़वाल, अन्हिलवाड़ा नरेश भोला भीम, जम्मू नरेश विजयराज अथवा चक्रदेव आदि को अपना शत्रु बना लिया। उसका सेनापति स्कंद, मंत्री प्रतापसिंह एवं सोमेश्वर भी उसके प्रति समर्पित नहीं थे। इन सब कारणों से ई.1192 में पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी के हाथों परास्त हुआ और मारा गया।
पृथ्वीराज चौहान का जीवन शौर्य और वीरता की अनुपम कहानी है। वह वीर, विद्यानुरागी, विद्वानों का आश्रयदाता तथा प्रेम में प्राणों की बाजी लगा देने वाला था। उसकी उज्जवल कीर्ति भारतीय इतिहास के गगन में धु्रव नक्षत्र की भांति दैदीप्यमान है। आज सवा आठ सौ साल बाद भी वह कोटि-कोटि हिन्दुओं के हदय का सम्राट है।
उसे भारत का अन्तिम हिन्दू सम्राट भी कहा जाता है। उसके बाद इतना पराक्रमी हिन्दू राजा इस धरती पर नहीं हुआ। उसके दरबार में विद्वानों का एक बहुत बड़ा समूह रहता था। उसे छः भाषायें आती थीं तथा वह प्रतिदिन व्यायाम करता था। वह उदारमना तथा विराट व्यक्तित्व का स्वामी था।
चितौड़ का स्वामी समरसिंह राजा पृथ्वीराज चौहान का सच्चा मित्र, हितैषी और शुभचिंतक था। पृथ्वीराज का राज्य सतलज नदी से बेतवा तक तथा हिमालय के नीचे के भागों से लेकर आबू तक विस्तृत था। जब तक संसार में शौर्य जीवित रहेगा तब तक पृथ्वीराज चौहान का नाम भी जीवित रहेगा।
जिनपलोदय, खतरगच्छ गौरवावली में लिखा है कि राजा पृथ्वीराज की सभा में धार्मिक एवं साहित्यक चर्चाएं होती थीं। उसके शासनकाल में अजमेर में खतरगच्छ के जैन आचार्य जिनपति सूरि तथा उपकेशगच्छ के आचार्य पद्मप्रभ के बीच शास्त्रार्थ हुआ।
ई.1190 में पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि कश्मीरी पण्डित जयानक ने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘पृथ्वीराजविजय महाकाव्यम्’ की रचना की। डा. दशरथ शर्मा के अनुसार, अपने गुणांे के आधार पर पृथ्वीराज चौहान योग्य एवं रहस्यमय शासक था।
अगली कड़ी में देखिए- पृथ्वीराज चौहान की पराजय से उत्तर भारत में हा-हाकार मच गया!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता