Monday, January 13, 2025
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राजस्थानी भाषा का साहित्य

परम्परागत रूप से राजस्थानी भाषा का साहित्य मुख्यतः चारण कवियों, जैन मुनियों, ब्राह्मणों एवं संत कवियों द्वारा लिखा गया है। यह साहित्य राजस्थान के अनेक ग्रंथागारों में सुरक्षित है। अध्ययन की सुविधा के लिए रचनाकारों की दृष्टि से राजस्थानी भाषा का साहित्य 5 वर्गों में बांटा जा सकता है – (1) चारण साहित्य, (2) जैन साहित्य, (3) संत साहित्य, (4) ब्राह्मण साहित्य तथा (5) लोक साहित्य।

चारण साहित्य

चारण साहित्य राजस्थानी भाषा का सबसे महत्त्वपूर्ण साहित्य है। सामान्यतः चारण कवियों द्वारा लिखित होने से इसे चारण साहित्य कहते हैं किंतु भाट, ढाढ़ी आदि अन्य विरुद जातियों के लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य भी शैली की समानता होने के कारण इस श्रेणी में आता है।

चारण साहित्य मुख्यतः वीर रसात्मक है। शृंगार रस वीर रस का सहचर होने के कारण चारण साहित्य में स्वतः ही महत्त्वपूर्ण स्थान पा गया है। भक्ति रस और शांत रस भी चारण साहित्य में प्रचुरता से मिलता है। यह साहित्य प्रबंध काव्यों, गीतों, दोहों, सोरठों, दोहों, कुण्डलियों, छप्पयों, सवैयों आदि छन्दों में उपलब्ध है। जइतसी रऊ छंद, अचलदास खींची री वचनिका, पृथ्वीराज रासो, सूरज प्रकाश, वंश भास्कर, बांकीदास ग्रंथावली आदि चरण साहित्य के प्रमुख ग्रंथ हैं।

जैन साहित्य

जैन मुनियों द्वारा लिखित साहित्य जैन साहित्य के अंतर्गत आता है। वज्रसेन सूरि रचित ‘भरतेश्वर बाहुबलि घोर’ राजस्थानी का प्राचनीतम ग्रंथ है। यह वीर रस एवं शांत रस का 46 पदों का लघु ग्रंथ है। संवत् 1241 में शालिचंद्र सूरि कृत ‘भरतेश्वर बाहुबलिरास’ भी प्राचीन राजस्थानी का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। तेरहवीं शती में लिखित ग्रंथों में बुद्धिरास, जंबूस्वामी चरित, स्थूलिभद्र रास, रेवंतगिरि रासो, आब रास, जीवदया रासु तथा चंदनबाला रास आदि उल्लेखनीय ग्रंथ हैं।

संत साहित्य

राजस्थान का संत साहित्य विश्व का सर्वाधिक समृद्ध साहित्य है। राजस्थान के भक्ति आंदोलन में वैष्णव भक्तों, दादू पंथियों तथा राम स्नेही साधुओं ने विपुल मात्रा में संत साहित्य का सृजन किया। भक्ति, अध्यात्म, नीति एवं तत्व विवेचन इस साहित्य का प्रमुख आधार है।

मीरांबाई

मेड़ता के राव दूदा के बेटे रतनसिंह की पुत्री मीरांबाई बचपन से ही कृष्ण भक्ति में लीन थीं। उनका विवाह मेवाड़ के राणा सांगा के बेटे भोजराज से हुआ था जो अपने कुंवर पदे में ही मारा गया था। मीरां बाई ने कृष्ण भक्ति को समर्पित हजारों पद लिखे। इन पदों में हिंदी, डिंगल, पिंगल, ब्रज, संस्कृत, सधुक्कड़ी मिश्रित भाषाओं का प्रयोग हुआ है।

महाकवि वृंद

वृंद का जन्म संवत 1700 में मेड़ता नामक नगर में हुआ। कवि वृंद द्वारा वृंद सतसई, यमक सतसई, भाव पंचाशिका, शृंगार शिक्षा, वचनिका, सत्य स्वरूप, पवन पचीसी, समेत सिखर छंद, हितोपदेशाष्टक, भारतकथा, हितोपदेश आदि ग्रंथों की रचना डिंगल एवं पिंगल भाषाओं में की गयी। इनके दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं।

नाभादास

अग्रदास के शिष्य नाभादास के द्वारा भक्तमाल, अष्टयाम और रामचरित्र आदि ग्रंथों की रचना की गयी। नाभादास का भक्त माल एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है जो वैष्णव भक्तों के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालता है।

पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल)

बीकानेर नरेश रायसिंह के अनुज तथा अकबर के दरबारी कवि पृथ्वीराज का जन्म सं.1606 में बीकानेर में हुआ था। इन्हें पीथल के नाम से ख्याति प्राप्त थी। ये रणकुशल योद्धा, ईश्वर के भक्त तथा वीररस के कवि थे। इन्होंने ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ की रचना की। इसे राजस्थानी भाषा का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता है। इसमें किया गया नख-शिख वर्णन, षड्ऋतु वर्णन तथा वयः संधि वर्णन भारतीय साहित्य में अपनी अलग पहचान रखता है।

वे संस्कृत, डिंगल, पिंगल, दर्शन, ज्योतिष, काव्य शास्त्र, संगीत एवं युद्ध कला में पारंगत थे। टैस्सिटोरी ने इन्हें डिंगल का ‘होरेस’ कहा है। उनकी अन्य रचनाओं में ठाकुर जी रा दूहा, गंगाजी रा दूहा, दसम आगवत रा दूहा, फुटकर पद, गीत आदि प्रमुख हैं। कर्नल टॉड ने पीथल के लिये कहा था कि इनके काव्य में दस सहस्र घोड़ों का बल है।

नाभादास ने इनकी गणना भक्तमाल में की है। दुरसा आढ़ा ने ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ को पाँचवा वेद कहा है। महाराणा प्रताप ने अपनी प्रजा को कष्ट पाते हुए देखकर अकबर से मित्रता करनी चाही तो प्रताप ने पीथल से राय मांगी। पीथल ने उन्हें कहलवाया कि ईश्वर की इच्छा के अधीन रहें, म्लेच्छ राजा से मित्रता न करें अन्यथा हिंदुआनी तेज का सूर्य सदैव के लिये नष्ट हो जायेगा। प्रताप ने पीथल का पत्र पाकर अकबर से मित्रता का विचार त्याग दिया। इनकी रानी चंपादे परम सुंदरी एवं कला मर्मज्ञ थी।

सुंदर कुंवरि

किशनगढ़ के राजा राजसिंह की पुत्री सुंदर कुंवरि का जन्म संवत् 1791 में किशनगढ़ में हुआ। इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथों में नेह निधि, वृंदावन गोपी माहात्म्य, संकेत युगल, रंगझर, गोपी माहात्म्य, रस पुंज, प्रेम संपुट, सार संग्रह, भावना प्रकााश्, राम रहस्य, पद तथा स्फुट कवित्त सम्मिलित हैं।

सुंदरदास

सुंदरदास ने दादू पंथ के दार्शनिक सिद्धांतों को ज्ञानमार्गी पद्वति में पद्यबद्ध किया। दौसा जिले के गेटोलाव में दादूदयाल का मंदिर एवं सुंदरदास का स्मारक बना हुआ है। (आर.ए.एस.मुख्य परीक्षा 1994, सामान्य ज्ञान, 15 शब्दों में स्पष्ट कीजिये- सुंदरदास।)

जांभोजी

विश्नोई संप्रदाय के प्रवर्तक जांभोजी ने भी विपुल संत साहित्य की रचना की। ये रचनाएं पद्य में हैं। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा, 1988-इतिहास, भक्ति आंदोलन में राजस्थान के भक्त कवियों के योगदान की समीक्षा कीजिये।)

लोक साहित्य

जिस रचना के लेखक का पता नहीं हो और जो लिखित अथवा अलिखित रूप से दीर्घकाल से समाज में प्रचलित हो, उसे लोक साहित्य कहते हैं। राजस्थान का लोक साहित्य अत्यंत समृद्ध साहित्य है। बहुत सा लोक साहित्य मीरां व कबीर आदि कवियों के नाम का उल्लेख करके लिखा गया। वस्तुतः वह भी लोक साहित्य का ही हिस्सा है।

बहुत सी साहित्यक रचनाएं लोक साहित्य में प्रचलित मान्यताओं के आधार पर ही प्रकाश में आई हैं। लोकगीत, लोक कथा, लोकोक्ति तथा लोक नाट्य, लोक साहित्य की विधाएं हैं। तीज, त्यौहार, विवाह, जन्म, देव पूजन, मेले एवं लोकनृत्यों के आयोजन आदि के अवसर पर गाये जाने वाले अधिकांश गीत लोक साहित्य का ही हिस्सा हैं। विधा की दृष्टि से राजस्थानी साहित्य का वर्गीकरण दो भागों- (1) पद्य साहित्य एवं (2) गद्य साहित्य में किया जा सकता है।

ब्राह्मण साहित्य

ब्राह्मण साहित्य पंडितों, विद्वानों एवं ब्राह्मण कवियों द्वारा रचा गया। वैद्यक, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, पुराण, शास्त्र आधारित टीकाएं इस साहित्य का हिस्सा हैं। विभिन्न राजाओं द्वारा अपने राज्य में अधिकांश शिलालेख संस्कृत भाषा में लिखवाये गये। ये शिलालेख भी ब्राह्मण साहित्य का प्रमुख हिस्सा हैं। सातवीं शताब्दी का ‘सोमाली अपराजित का शिलालेख’मेवाड़ में संस्कृत भाषा की समृद्धि का परिचायक है।

शिलालेखों की परंपरा के साथ-साथ जब कागज का आविष्कार हुआ तो आठवीं शताब्दी में शिशुपाल वध (रचयिता-महाकवि माघ) जैसी रचनाएं सामने आईं। केवल ब्राह्मण जाति के लेखकों की रचनाओं को ही ब्राह्मण साहित्य के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। अन्य जातियों के लेखकों, राजाओं उनके दरबारी कवियों एवं विद्वानों ने ब्राह्मण साहित्य को समृद्ध बनाया। महाराणा कुंभा, बीकानेर के राजा रायसिंह एवं अनूपसिंह की रचनाएं भी इस श्रेणी में आती हैं।

ब्राह्मण साहित्य की प्रमुख रचनाएं एवं उनके लेखक

ग्रंथ का नामलेखकग्रंथ का नामलेखक
अजितोदयभट्ट जगजीवनअमरकाव्य वंशावलीरणछोड़ भट्ट
अमरसागरपं. जीवाधारएकलिंग महाकाव्यमहाराणा कुंभा
कर्मचंद वंशोत्कीर्तनक काव्यम्जयसोमपृथ्वीराज विजयजयानक
प्रबंध कोषराजशेखरप्रबंध चिंतामणिमेरुतुंग
पार्श्वनाथ चरित्रश्रीधर।भट्टि काव्यभट्टि
राज वल्लभमण्डनराज विनोदभट्ट सदाशिव
राज रत्नाकरसदाशिववृहत्कथा कोषहरिसेन
सुर्जन चरित्रचंद्रशेखरहम्मीर महाकाव्यनयनचंद सूरि

(आर.ए.एस.प्रारम्भिक परीक्षा 2012, पृथ्वीराज विजय का लेखक कौन है- 1. चंद बरदाई, 2. पृथ्वीराज चौहान, 3. जयानक, 4. नयनचंद सूरि।)

पद्य साहित्य

राजस्थानी पद्य साहित्य दूहा, सोरठा, गीत, कुण्डलियां, छंद, छप्पय आदि में विस्तृत है।

महाकाव्य

जिस प्रबंध काव्य में आठ से अधिक सर्ग हों उसे महाकाव्य कहा जाता है। इसके अन्य लक्षणों में धीरोदात्त नायक, शृंगार रस, शांत रस अथवा वीर रस में से किसी एक रस की प्रधानता, प्रकृति चित्रण, देश, काल आदि का यथा स्थान वर्णन को सम्मिलित किया जाता है। महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग में अलग-अलग छंद होते हैं। प्रत्येक सर्ग का अंतिम छंद नये सर्ग का छंद होता है।

रासो: जिस काव्य में युद्ध और नायक की वीरता का वर्णन हो उसे रासो कहा जाता है। पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो, विजयपाल रासो तथा खुमाण रासो प्रसिद्ध रासो ग्रंथ हैं।

दूहा

दूहा अथवा दोहा राजस्थान का सर्वाधिक प्राचीन एवं लोकप्रिय छंद है। इसमें सभी रसों एवं विषयों की व्यंजना हुई है। यह अपभ्रंश साहित्य से राजस्थानी भाषा में आया है। दोहे में चार चरण होते हैं। इसके प्रथम तथा तृतीय चरण में 13-13 मात्राएं होती हैं और दूसरे तथा चौथे चरण में 11-11 मात्राएं होती हैं।

सोरठा

दोहे की मात्राओं को यदि उलटा कर दिया जाये तो उसे सोरठा कहते हैं। इस प्रकार सोरठे के प्रथम तथा तृतीय चरण में ग्यारह-ग्यारह मात्राएं होती हैं और दूसरे तथा चौथे चरण में 13-13 मात्राएं होती हैं। सोरठा दोहों के 21 भेदों में से एक है। गुजराती और राजस्थानी भाषा में इसे सोरठिया दूहा कहते हैं।

गद्य साहित्य

राजस्थानी गद्य को वात, वचनिका, ख्यात, दवावैत, वंशावली, पट्टावली, पीढ़ियावली, दफ्तर, विगत एवं हकीकत आदि के रूप में लिखा जाता था।

वात

वात अथवा वार्ता कहानी को कहते हैं। चूंकि कहानियों एवं किस्सों को लोकानुरंजन के लिये कह कर सुनाया जाता था तथा कम से कम एक व्यक्ति हुंकारा (स्वीकरोक्ति) देने वाला होता था, इसलिये कहानी अथवा किस्से के लिये वात एवं वार्ता शब्द काम में लिया जाता था।

इसे प्रायः चम्पू शैली में तैयार किया जाता था। अर्थात् गद्य और पद्य का क्रम एक के बाद एक चलता रहता था। अजगदेव पंवार री बात, जगमाल मालावत री वात आदि कथाएं वात साहित्य की प्रमुख रचनाएं हैं।

(आर.ए.एस. प्रारम्भिक परीक्षा 1012, राजस्थान साहित्य की कौनसी श्रेणी कहानी या कथा विधा से सम्बन्धित है- 1. वात, 2. वेलि, 3. वचनिका, 4. विगत)

वचनिका

गद्य-पद्य मिश्रित रचना को वचनिका कहते हैं। इस विधा में प्रत्येक वचन या वाक्य तुकांत होता है। यह विधा संस्कृत साहित्य से राजस्थानी साहित्य में आयी है। संस्कृत साहित्य में इस विधा को चंपू कहते हैं। वचनिका के दो भेद हैं- पद्य बंध और गद्य बंध।

सिवदास गाडण लिखित अचलदास खींची री वचनिका, खड़िया जग्गा लिखित ‘राठौड़ रतनसिंह महेस दासौत री वचनिका’, शांतिसागर सूरि की वचनिका तथा जिन समुद्रसूरि की वचनिका वचनिका साहित्य की प्रमुख रचनाएं हैं।

ख्यात

मध्य कालीन राजस्थानी साहित्य में गद्य विधा में इतिहास वृत्त लिखने के लिये ख्यात का संकलन अथवा लेखन किया जाता था। ख्यात शब्द ख्याति शब्द से बना है जिसका अर्थ है वे बातें जो प्रसिद्ध हो चुकी हैं। इसमें गद्य साहित्य के रूप में वात, वार्ता, हकीकत, वंशावली, वंशवृक्ष, विगत आदि लिखे जाते हैं।

राजस्थान की ख्यात लेखन परम्परा में मूथा नैणसी की ख्यात को पहली ख्यात माना जाता है तथा दयालदास की ख्यात को अंतिम ख्यात माना जाता है। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1994, निम्न के बारे में आप क्या जानते हैं- ख्यात?)

दवावैत

तुकांत गद्य को दवावैत कहते हैं। जिन सुख सरि दवावैत, जिननाम सूरि दवावैत, नरसिंहदास गौड री दवावैत इस वर्ग की प्रमुख रचनाएं हैं।

वेलि

संस्कृत के वल्ली शब्द से अपभ्रंश होकर वेलि शब्द का निर्माण हुआ है। वेलि साहित्य 15वीं शती से लेकर 19वीं शती में रचा गया। इन वेलि ग्रंथों में राजाओं एवं सामंतों की ऐतिहासिकता की रक्षा, वीरता, स्वामिभक्ति, विद्वता, उदारता, प्रेम भावना, नायक की वंशावली, आदि का उल्लेख होता है। इनकी भाषा डिंगल है। धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों की कथाओं को भी वेलि साहित्य का आधार बनाया गया है।

राजस्थानी साहित्य में राष्ट्रीय धारा

प्राचीन काल से ही राजस्थानी साहित्य धर्म, राष्ट्र और मानवीय मूल्यों के प्रति सत्यनिष्ठा को समर्पित रहा है। प्राचीन राजस्थानी साहित्य एवं मध्य कालीन राजस्थानी साहित्य में कवि एवं साहित्यकार अपने सरंक्षक राजा द्वारा निज राज्य की रक्षा को ही राष्ट्रहित मानता था किंतु बीजोलिया आंदोलन के साथ ही राजस्थान के काव्य में राष्ट्रीय धारा का अलग अर्थ में विकास होता हुआ।

1857 के सैन्य विद्रोह को भी इसी काल में स्वतंत्रता संग्राम कहकर पुकारा गया। देशी राज्यों में उत्तरदायी शासन की मांग को लेकर चले संघर्ष को भी इस युग के साहित्य में प्रखरता से वाणी प्राप्त हुई।

जयनारायण व्यास, गणेशलाल व्यास उस्ताद, नाथूदान, गोकुलभाई भट्ट, हीरालाल शास्त्री जैसे स्वतंत्रता सेनानी स्वयं भी अच्छे गीतकार एवं कवि थे जो अपने गीतों के माध्यम से जन साामान्य को राष्ट्रीय स्वातंत्र्य में कूद पड़ने की प्रेरणा देते थे। सूर्यमल्ल मिश्रण की वीर सतसई, केसरीसिंह बारहठ की चेतावणी का चूंगटिया, सागरमल गोपा की जैसलमेर में गुण्डाराज्य तथा कन्हैयालाल सेठिया की पाथळ और पीथळ राजस्थानी साहित्य में राष्ट्रीय धारा की प्रमुख रचनाएं कही जा सकती हैं।

 स्वतंत्रता के अंतिम चरण में रांगेय राघव, चंद्र देव तथा मेघराज मुकुल जैसे रचनाकारों की रचनाओं में भी राष्ट्रीय विचार धारा के दर्शन होते हैं। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1994, राजस्थानी साहित्य में राष्ट्रीय धारा पर एक आलेख लिखिये।)

प्रगतिशील काव्य चेतना

राजस्थान की राष्ट्रीय साहित्य धारा से ही राजस्थानी साहित्य में प्रगतिशील काव्य चेतना का विकास हुआ। आजादी के बाद जन सामान्य की समस्याओं और अभावों को साहित्य में स्थान मिलने लगा। इसी साहित्य को प्रगतिशील साहित्य कहा जाता है। कन्हैयालाल सेठिया, रेवतदान चारण, गजानन वर्मा, भीम पंड्या, खीमराज प्रदीप, मनुज देपावत, सुमनेश जोशी, गणपति चंद्र भण्डारी आदि प्रमुख प्रगतिशील राजस्थानी साहित्यकार हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि राजस्थानी भाषा का साहित्य परम्परागत रूप से अत्यंत समृद्ध है। आधुनिक समय में भी राजस्थानी भाषा के प्रति राजस्थान के लोगों का लगाव कम नहीं हुआ है किंतु अब राजस्थानी भाषा में स्तरीय रचना करने वाले बहुत कम रचनाकार उपलब्ध हैं।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक राजस्थान ज्ञानकोश से।

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