Sunday, October 13, 2024
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रणथम्भौर दुर्ग

रणथम्भौर दुर्ग सवाईमाधोपुर से लगभग 10 किलोमीटर दूर अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ पार्वत्य दुर्ग है। इसका निर्माण 9वीं शताब्दी में अजमेर के चौहान शासकों द्वारा करवाया गया था। यह दुर्ग विषम आकार वाली सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है। बीच-बीच में गहरी खाइयां और नाले हैं। ये सारे नाले चम्बल एवं बनास नदियों में जाकर मिलते हैं। रणथम्भौर दुर्ग ऊंचे गिरि शिखर पर बना हुआ है।

अपने निर्माण के समय यह दुर्ग घने जंगलों से घिरा हुआ था। दिल्ली से निकटता तथा मालवा और मेवाड़ के मध्य स्थित होने के कारण मध्यकाल में दिल्ली पर चैन से शासन करने के लिये यह लगभग आवश्यक सा हो गया था कि इस दुर्ग पर अधिकार जमाया जाये। यही कारण है कि बारहवीं शताब्दी में पृथ्वीराज चौहान के पतन के बाद से लेकर अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आगमन से पहले तक इस दुर्ग पर लगातार भीषण आक्रमण होते रहे।

रणथम्भौर दुर्ग के निर्माता एवं नामकरण

निर्माता

माना जाता है कि इस दुर्ग को चौहान शासकों ने बनवाया किंतु हम्मीर महाकाव्य, हम्मीर रासो आदि काव्य ग्रंथों, कतिपय जैन ग्रंथों, राजाओं की वंशावलियों एवं विरुदावलियों के आधार पर इसके निर्माण के सम्बन्ध में चार प्रमुख मत स्थापित किए जा सकते हैं-

1. इसे सातवीं शताब्दी में चंद्रवंशी राजा रतिदेव ने बनवाया था जिसका राज्य चम्बल के निकट था।

2. इसे राजा जैतराव ने आठवीं शताब्दी में पद्मऋषि से वरदान प्राप्त करके भीलों एवं मीणों की सहायता से बनवाया था।

3. इसे गौड़ राजपूतों ने चौहानों के इस क्षेत्र में आने से पहले बनवाया था।

4. सांभर के राजा रणथंभन ने वि.सं.944 (ई.887) में यह दुर्ग बनवाया। अधिकतर विद्वान इस दुर्ग को चौहानों द्वारा निर्मित मानते हैं।

नामकरण

कहा जाता है कि इस दुर्ग का वास्तविक नाम रणतःपुर है जिसका अर्थ होता है- ‘रण की घाटी में स्थित नगर।’ इस दुर्ग का प्रचलित नाम रणथम्भौर है जो रण तथा थंभ नामक दो पहाड़ियों के नाम पर है। रण उस पहाड़ी का नाम है जो किले से ठीक नीचे स्थित है तथा थंभ उस पहाड़ी का नाम है जिस पर यह दुर्ग स्थित है।

रणथम्भौर दुर्ग का भौतिक स्वरूप

यह दुर्ग जिस पहाड़ी पर बना हुआ है, उसकी समुद्र तल से ऊँचाई 1578 फुट है। दुर्ग लगभग 500 फुट ऊंचा है। दुर्ग की परिधि लगभग 12 किलोमीटर तथा कुल क्षेत्रफल लगभग 11.45 वर्ग किलोमीटर है। पहाड़ी पर बना होने से यह गिरि दुर्ग, वन क्षेत्र से घिरा होने से एरण दुर्ग, कोट से घिरा हुआ होने से पारिघ दुर्ग तथा सैनिकों से सुरक्षित होने के कारण यह सैन्य दुर्ग की श्रेणी में आता है।

दुर्गों से घिरा हुआ दुर्ग

रणथम्भौर दुर्ग के 60 किलोमीटर के घेरे में खंडार, तिमनगढ़, मंडरायल, बहादुरपुर आदि तीन दर्जन से अधिक गढ़ एवं गढ़ैयाएं हैं जिन्हें रणथम्भौर का सहाय दुर्ग कहा जा सकता है।

दुर्ग का मार्ग

यह दुर्ग सवाईमाधोपुर से लगभग 13 किलोमीटर दूर, ऊँंची-नीची सात पहाड़ियों के बीच स्थित है। इस दुर्ग तक पहुँचने के लिये संकरी घुमावदार घाटियों से होकर जाने वाले मार्ग से गुजरना पड़ता है। मार्ग में गहरी खाइयां तथा बरसाती नाले स्थित हैं जो चम्बल तथा बनास में जाकर मिलते हैं। हम्मीरायण में लिखा है कि रण और थंभ के बीच खाई है या नीची भूमि है।

अबुल फजल ने लिखा है कि यह दुर्ग पहाड़ी प्रदेश के बीच में है। इसलिये लोग कहते हैं कि और दुर्ग नंगे हैं किंतु यह बख्तरबंद है। कविराजा श्यामलदास ने वीर विनोद में लिखा है कि रणथम्भौर के हर तरफ गहरे और पेचदार नाले एवं पहाड़ हैं जो तंग रास्तों से गुजरते हैं। ऊपर जाकर पहाड़ी की बुलन्दी एकदम सीधी है।

गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि रणथम्भौर का किला अंडाकृति वाले एक ऊँचे पहाड़ पर बना है जिसके प्रायः चारों ओर विशाल पहाड़ियां आ गई हैं जिनको किले की रक्षार्थ कुदरती दीवारें कहा जा सकता है। नाथावतों का इतिहास में लिखा है कि पहाड़ों के परकोटों तथा जंगली जानवरों से युक्त बीहड़ वन में उच्च पर्वत शिखर पर बना यह दुर्ग शिवपिण्ड पर रखे हुए बीलपत्र की भांति फैला हुआ सुशोभित होता है।

मिश्रधरा से दुर्ग का मार्ग आरम्भ होता है। यहाँ एक विशाल दरवाजा है जिसके दाईं तरफ सीधी पहाड़ी एवं उसके नीचे एक छोटा सा कुण्ड एवं चबूतरा बना हुआ है। दरवाजे के बाईं तरफ एक जलस्रोत है जिसमें एक गौमुख से पानी गिरता है। यहाँ से आगे बढ़ने पर घने जंगल एवं संकरे मार्ग से गुजरना होता है।

यह किले के मुख्य द्वार तक जाता है जिसे नौलखा दरवाजा कहते हैं। हाथी पोल, गणेश पोल तथा सूरज पोल को पार करते हुए आगे बढ़ने पर तीन दरवाजों का समूह आता है जिसे चौहानों के शासन काल में तोरणद्वार, मुसलमानों के समय में अंधेरी दरवाजा तथा कच्छवाहों के शासनकाल में त्रिपोलिया कहा जाता था। इसके पास से एक सुरंग महलों तक गयी है। इन दरवाजों के ऊपर सैनिकों की कोठरियां बनी हुई हैं।

यहाँ से आगे चलने पर 32 खम्भों की छतरी आती है जो 50 फुट ऊँची है। इसे हम्मीर ने अपने पिता जैत्रसिंह की समाधि पर बनाया था। छतरी के गुम्बद पर सुन्दर नक्काशी की गई है तथा कुछ आकृतियां भी उत्कीर्ण की गई हैं। छतरी के गर्भगृह में बाईं ओर भूरे रंग के पत्थर से निर्मित एक शिवलिंग है। इस छतरी के पास ही लाल पत्थर की एक अधूरी छतरी भी बनी हुई है।

रणथम्भौर दुर्ग का स्थापत्य

रणथम्भौर दुर्ग के भवनों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-

1. चौहानों द्वारा निर्मित भवन,

2. मध्य युगीन भवन,

3. परवर्ती काल के भवन।

दुर्ग का अधिकांश निर्माण कार्य चौहान नरेशों के समय में हुआ। बाद में मेवाड़ के सिसोदियों और जयपुर के कच्छवाहों ने भी कुछ निर्माण करवाये।

दुर्ग परिसर में हम्मीर कचहरी, सुपारी महल, बादल महल, जौरां-भौरां, अधूरी छतरी, सामंतों की हवेलियां, महादेव की छतरी, लक्ष्मी नारायण मंदिर, चामुण्डा मंदिर, ब्रह्मा मंदिर, शिव मंदिर, जैन मंदिर तथा भारत प्रसिद्ध गणेश मंदिर स्थित हैं।

हम्मीर महल

दुर्ग का मुख्य आकर्षण हम्मीर महल है। यह पूरे भारत में उपलब्ध प्राचीनतम राजप्रासाद है। यह करौली के लाल पत्थर का बना है। इसमें भव्य कारीगरी की गई है। बड़ी-बड़ी शिलाओं की कटाई देखने योग्य है। महल का तलघर चार खण्डों में है। ऊपर भी तीन खण्ड हैं। विशाल खंभे, सुरंगनुमा गलियारे, आधार पर बनी दीवारें, गर्भगृह में बना भैरव मंदिर और शस्त्रागार देखने योग्य हैं। निचले खण्डों में बरामदे बने हुए हैं।

दूसरे खण्ड में निवास कक्षों के साथ चौक भी है। यह भाग गवाक्षों और खिड़कियों से भरपूर है। तीसरे खण्ड पर बरामदानुमा कक्ष है। छतों को शिलाओं और लोहे की शलाकाओं से जोड़कर बनाया गया है। छतों में फूल के चित्र बने हैं। महल में घी रखने के बर्तन, बंदूकें, लोहे एवं पत्थरों के भारी-भरकम गोले, लोहे के तीर और सल्फर आदि रखे हुए हैं। इस महल के समीप निर्मित रानी महल पूरी तरह ध्वस्त हो गया है, केवल एक दरवाजा ही साबुत बचा है।

हम्मीर कचहरी

हम्मीर कचहरी भी पूर्व चौहान कालीन स्थापत्य-शिल्प का अच्छा उदाहरण है। विशाल स्तम्भों पर निर्मित बरामदों और कक्षों से युक्त भवन दर्शनीय है। यहाँ से एक मार्ग दिल्ली की ओर जाता है।

हम्मीर के अन्य निर्माण

हम्मीर ने रणथम्भौर दुर्ग में तीन मंजिला पुष्पक महल बनवाया था जिसे अल्लाद्दीन खिलजी ने मंदिरों के साथ ही नष्ट कर दिया था। हम्मीर देव ने अपने पिता जयदेव के 32 वर्षीय शासन के प्रतीक के रूप में 32 खंभों की छतरी बनवाई थी। जो आज भी पर्याप्त आकर्षक है। इस छतरी में पत्थर पर बने बेल-बूटों की डिजाइन, तथा छत पर कमल का शिल्पांकन देखने योग्य है।

सतपोल

दुर्ग के पश्चिमी ओर तीन दरवाजों की Üृंखला है जिसे सतपोल कहा जाता है। इस दिशा में दुर्ग की प्राचीर पहाड़ियों के साथ-साथ कहीं-कहीं पचास फुट तक ऊँची है। ठोस शिलाखण्डों से निर्मित प्राचीर किसी अचम्भे से कम नहीं लगती। दरवाजों के शीर्ष भाग पर संगमरमर के फूल बनाकर लगाये गए हैं। दरवाजों की लकड़ी पर लोहे की चादरें और लोहे की मोटी कीलें लगी हैं। पूर्व दिशा की ओर वाला द्वार सूरजपोल कहलाता है।

अधूरी छतरी

राणा सांगा की हाड़ी रानी कर्णवती द्वारा एक छतरी का निर्माण आरम्भ करवाया गया था जो किसी कारणवश अधूरा ही रहा। यह अधूरी छतरी के नाम से विख्यात है। यह लाल पत्थर से निर्मित है।

बादल महल

दुर्ग के मुख्य परकोटे में स्थित बादल महल 17वीं शताब्दी में कच्छवाहा राजपूतों द्वारा बनवाया गया था। इसकी छतों में कांच का काम किया हुआ है। दीवारों में विभिन्न आकार के ताख बने हैं, जिनमें दीपक रखे जाते थे। दीपक की लौ का प्रकाश छत पर लगे कांच में जगमगाता था।

मंदिर

दुर्ग के पश्चिमी भाग में 10वीं शताब्दी का सुमतिनाथ (पांचवे तीर्थंकर) तथा स्वामी संभवनाथ का एक जैन मंदिर स्थित है। दुर्ग में बारहवीं एवं तेहरवीं शताब्दी के तीन हिन्दू मंदिर- गणेश मंदिर, रामलला मंदिर तथा शिव मंदिर भी मध्यकालीन स्थापत्य के अच्छे उदाहरण हैं। गणेश मंदिर तथा शिव मंदिर के बीच में अनेक भवनों के खण्डहर विद्यमान हैं। गणेश मंदिर के पीछे स्थित शिव मंदिर के लिये कहा जाता है कि हम्मीर ने इसी मंदिर में अपना सिर काट कर चढ़ाया था।

तालाब

किले के पार्श्व में पद्मला तालाब, सागर तालाब, रानी तालाब तथा जंगाली आदि जलाशय हैं। शत्रु के आक्रमण के समय इन तालाबों का पानी तोड़कर बहा दिया जाता था जो पहाड़ से नदी के रूप में गिरकर शत्रु सेना को तितर-बितर कर देता था। जौंरा-भौंरा अनाज रखने का गोदाम था। इसमें तीन विशाल हॉल बने हुए हैं।

तोपें

दुर्ग परिसर में कई तोपें पड़ी हैं।

रणथम्भौर दुर्ग का इतिहास

पृथ्वीराज चौहान के समय में रणथम्भौर दुर्ग

अजमेर के शासक पृथ्वीराज चौहान की रानी रखल देवी ने इस दुर्ग के जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया था। 12वीं शताब्दी के जैन लेखक सिद्धसेन सूरी ने इस दुर्ग को प्रमुख जैन तीर्थों में गिना है। ई.1192 में तराईन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान का राज्य समाप्त हो गया। मुहम्मद गौरी से लड़ने के लिये युद्ध पर जाने से पहले पृथ्वीराज ने इसी दुर्ग में अपनी सेना एकत्रित की थी। चौहानों का राज्य समाप्त हो जाने पर यह दुर्ग चौहानों के अधिकार में बना रहा।

पृथ्वीराज के उत्तराधिकारी

पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद तथा अपने चाचा हरिराज द्वारा अजमेर से निकाल दिये जाने के बाद पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविंदराज ने रणथम्भौर को अपनी राजधानी बनाया। गोविंदराज के बाद इस दुर्ग पर चौहान वाल्हणदेव का शासन हुआ जिसने अपने राज्य का विस्तार किया। रणथम्भौर दुर्ग पर मुसलमानों का पहला आक्रमण दिल्ली सल्तनत के गुलाम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने ई.1209 में किया। वह आक्रमण विफल कर दिया गया।

ई.1226 में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। मिन्हाज के अनुसार इल्तुतमिश ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। वाल्हणदेव के बाद उसका पुत्र प्रह्लाद तथा प्रह्लाद के बाद उसका पुत्र वीरनारायण रणथम्भौर पर अधिकार करने का प्रयास करते रहते थे। इल्तुतमिश ने वीरनारायण को संधि के लिये दिल्ली बुलवाया तथा उसे धोखे से जहर देकर मार डाला। वाल्हणदेव का छोटा पुत्र वाग्भट्ट चौहानों का राजा हुआ।

ई.1236 में इल्तुतमिश के मरते ही चौहानों ने रणथम्भौर दुर्ग घेर लिया। इस कार्य में खरपरों (खकरों) ने भी वाग्भट्ट की सहायता की। दिल्ली का नया शासक रुकनुद्दीन फीरोज अयोग्य था। उसकी अयोग्यता का लाभ उठाकर चौहानों ने मुसलमानों को रणथम्भौर दुर्ग में घेर लिया।

इसी बीच रुकनुद्दीन फीरोज मार डाला गया तथा रजिया दिल्ली के तख्त पर बैठी। उसने रणथम्भौर वाग्भट्ट को दे दिया तथा अपनी सेना को दुर्ग से बाहर निकाला। दुर्ग पर वाग्भट्ट का अधिकार हो गया। वह स्वतंत्र शासक के रूप में शासन करने लगा।

वागभट्ट का पुत्र जैत्रसिंह प्रतापी योद्धा हुआ। उसने मालवा के परमार शासकों को कई बार हराया। ई.1248 एवं ई.1253 में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के सेनापति उलूगखां (बलबन) के नेतृत्व में मुस्लिम सेनाओं ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया किंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। ई.1258 में उलूग खाँ (बलबन) ने मलिक-उन-नवाब को रणथम्भौर पर आक्रमण करने भेजा।

मुसलमान इस बार भी रणथम्भौर पर अधिकार जमाने में असफल रहे। ई.1259 में जैत्रसिंह परास्त हो गया तथा रणथम्भौर दुर्ग पर दिल्ली के मुसलमानों का कब्जा हो गया। ई.1283 में जैत्रसिंह की मृत्यु हो गई तथा शक्तिसिंह, चौहानों का शासक हुआ। उसने फिर से रणथम्भौर दुर्ग पर अधिकार किया तथा राज्य का विस्तार किया।

ई.1289 में हम्मीरदेव चौहान रणथम्भौर का राजा हुआ। वह पृथ्वीराज चौहान की सातवीं पीढ़ी का शासक था। हम्मीरदेव का शासन काल (ई.1289-1301) इस दुर्ग का स्वर्णकाल था।

जलालुद्दीन खिलजी का आक्रमण

हम्मीरदेव के समय में 12 मार्च 1291 को जलालुद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर दुर्ग पर आक्रमण किया किंतु उसे सफलता नहीं मिली। खिलजी ने यह कहकर दुर्ग का घेरा हटा लिया कि वह ऐसे दस किलों को मुसलामन के एक बाल के तुल्य भी नहीं समझता।

अल्लाउद्दीन खिलजी का आक्रमण

ई.1296 में अल्लाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान हुआ। ई.1299 में उसका बागी सेनापति मुहम्मदशाह मंगोल (महमांशाह) जालोर से भागकर रणथम्भौर के शासक हम्मीर की शरण में आ गया। अल्लाउद्दीन खिलजी ने ई.1300 में नुसरत खां के नेतृत्व में रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिये एक सेना भेजी।

हम्मीर महाकाव्य के लेखक नयनचंद्र सूरि ने लिखा है कि राजपूतों ने किले की मोर्चोबंदी की और हम्मीर के सुयोग्य सेनापतियों- वीरम, रतिपाल, जयदेव, भीमसिंह, धर्मसिंह तथा मंगोल मुहम्मदशाह ने हिंदुवाटी की घाटी में शत्रु से युद्ध किया।

जब अल्लाउद्दीन खिलजी का सेनापति नुसरतखान मारा गया तो उलुग खां ने मुसलमान सेना रणथम्भौर से हटा ली। इस पर अल्लाउद्दीन खिलजी स्वयं सेना लेकर आया। वह एक साल तक दुर्ग पर घेरा डालकर पड़ा रहा। हम्मीरायण में लिखा है कि रणथम्भौर की जनता को हम्मीर की वीरता पर इतना विश्वास था कि जब खिलजी ने रणथम्भौर पर घेरा डाला तो बनिये हाट में बैठकर हँसते रहे।

अमीर खुसरो ने तारीखे अलाई में लिखा है- सुल्तान के आदेश से खाइयों में रेत के बोरों के ढेर लगा दिये और उन पर किले के भीतर तक मार करने के लिये पाशेब (विशेष प्रकार के चबूतरे) बनवाये और मगरबी (ज्वलनशील पदार्थ फैंकने का यंत्र) एवं अर्रादा (पत्थरों की वर्षा करने वाला यंत्र) लगाये। दीवारों को सुरंगों के जरिये तोड़ा जाने लगा।

उलूग खां ने हम्मीर को कहलावा भेजा कि या तो शरणागत मुहम्मदशाह को लौटा दे या चार लाख अशर्फियां, हाथी, घोड़े और अपनी पुत्री सुल्तान को भेंट करे अन्यथा उसका सर्वनाश कर दिया जायेगा। इस पर हम्मीर ने जवाब भेजा कि वह सुल्तान को उतने ही तलवार के झटके देने के लिये उद्यत है, जितनी मोहरें, हाथी और घोड़े उससे मांगे गए हैं।

हम्मीर की सेना ने दुर्ग के भीतर से मंजनीक एवं ढेंकुली की सहायता से पत्थर के गोले बरसाये तथा अग्निबाण चलाये। दुर्ग के भीतर स्थित तालाबों से अचानक तेज जलधारा छोड़ी गई जिससे खिलजी की सेना को भारी क्षति हुई। इस प्रकार एक साल बीत गया और अल्लाउद्दीन खिलजी दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सका। इस पर उसने हम्मीर के सेनापति रतिपाल को अपनी ओर मिला लिया। रतिपाल ने रणमल्ल को भी अपनी ओर कर लिया।

इसके बाद रतिपाल ने कुछ प्राचीरों और बुर्जों से मोर्चाबंदी हटा ली जहाँ से तुर्क सैनिक रस्सियों और सीढ़ियों से दुर्ग में घुस गये। शत्रु को दुर्ग में घुस आया देखकर राजपूत स्त्रियों ने जौहर का आयोजन किया तथा राव हम्मीर दुर्ग के दरवाजे खोलकर शत्रु पर टूट पड़ा तथा लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। 10 जुलाई 1301 को दुर्ग पर अल्लाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया।

हम्मीर का शरणागत मुहम्मदशाह भी लड़ता हुआ घायल होकर रणभूमि में गिर पड़ा। हम्मीरदेव काव्य में उल्लेख है कि युद्ध में विजय के उपरांत अल्लाउद्दीन खिलजी ने रण में घायल होकर पड़े मुहम्मदशाह मंगोल को देखा। उसकी सांसें चल रही थीं। खिलजी ने उससे पूछा कि यदि तुम्हारी मरहम पट्टी करवा दी जाये और तुम्हें चंगा कर दिया जाये तो क्या करोगे?

इस पर मंगोल ने जवाब दिया कि चंगा होने पर सबसे पहले तुम्हें मारकर अपने स्वामी की मृत्यु का बदला लूंगा। दूसरा काम यह करूंगा कि हम्मीर के पुत्र को रणथम्भौर की गद्दी पर बिठाऊंगा।

यह सुनकर अल्लाउद्दीन खिलजी क्रुद्ध हुआ और उसने मंगोल को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया। क्रोध समाप्त होने पर अल्लाउद्दीन ने मंगोल का शव इस्लामी विधि से दफन करवाया। इसके बाद अल्लाउद्दीन ने हम्मीर के धोखेबाज मंत्रियों रतिपाल तथा रणमल्ल को बुलवाया और उन्हें भी यह कहकर हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया कि जो अपने स्वामी हम्मीर का नहीं हुआ, वह मेरा क्या होगा! अल्लाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग में एक मस्जिद भी बनवाई जिसके ध्वंसावशेष आज भी देखे जा सकते हैं।

राजस्थानी साहित्य में हम्मीर का गुणगान

राजस्थानी साहित्य में हम्मीर की वीरता का भरपूर गुणगान किया गया है। हम्मीरायण, हम्मीर रासो, हम्मीर हठ आदि ग्रंथ उसकी प्रशंसा से भरे पड़े हैं। हम्मीर के सम्बन्ध में यह दोहा कहा जाता है-

सिंह सुवन सुपुरुष वचन, कदली फले एक बार

तिरिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार।।

अर्थात् सिंहनी एक बार शावक को जन्म देती है, सत्पुरुष एक बार जो कह देते हैं, उससे टलते नहीं। केले में एक बार फल आता है। स्त्री की मांग में एक बार सिंदूर भरा जाता है। इसी तरह हम्मीरदेव ने एक बार जो तय कर लिया, वह टल नहीं सकता।

रणथम्भौर दुर्ग पर मेवाड़ के महाराणाओं का अधिकार

ई.1326 से 1364 के बीच महाराणा हम्मीर मेवाड़ का महाराणा हुआ। उसने रणथम्भौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ई.1433 से 1468 के बीच महाराणा कुंभा मेवाड़ का राजा हुआ। उसने रणथम्भौर पर आक्रमण करके इसे मालवा के सुल्तान से छीना। महाराणा उदयसिंह (ऊदा) (ई.1468-73) के समय यह दुर्ग पुनः बूंदी के हाड़ा चौहानों के अधिकार में चला गया।

महाराणा सांगा के समय रणथम्भौर दुर्ग

ई.1489 में मालवा के सुल्तान मुहम्मद खिलजी ने भी इस दुर्ग पर आक्रमण किया तथा दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ई.1503 में सांगा मेवाड़ का महाराणा हुआ, उसने ई.1519 में मालवा से यह दुर्ग वापस छीन लिया तथा भामाशाह को किलेदार नियुक्त किया। भामाशाह तथा ताराचंद, कावड़िया गोत्र के ओसवाल महाजन भारमल के पुत्र थे।

भामाशाह को महाराणा सांगा ने अलवर से बुलाकर रणथम्भौर का किलेदार नियत किया था। इसी भामाशाह ने बाद में महाराणा प्रताप (ई.1572-97) को अपनी सम्पत्ति अर्पित की थी।यह दुर्ग महाराणा सांगा के प्रमुख दुर्गों में से एक था। जब महाराणा सांगा बाबर से लड़ने खानवा गया तब उसने इसी दुर्ग में अपनी सैन्य शक्ति संग्रहीत की। खानवा के मैदान में घायल होने के बाद सांगा को इसी दुर्ग में लाया गया था। सांगा ने यह दुर्ग अपनी हाड़ी रानी कर्मवती के पुत्रों विक्रमादित्य तथा उदयसिंह को प्रदान किया तथा बूंदी के हाड़ा सुरजन को उनका संरक्षक बनाया।

रणथम्भौर दुर्ग के लिये महाराणा ने प्राण गंवाये

ई.1528 में महाराणा सांगा का निधन हो गया। उसकी रानी कर्णवती (कर्मवती) ने इस दुर्ग में कुछ निर्माण कार्य करवाये जिनमें एक अधूरी छतरी भी सम्मिलित है। उस समय कर्मवती अपने पुत्रों के साथ रणथम्भौर के दुर्ग में थी। सांगा के बाद उसका पुत्र रत्नसिंह चित्तौड़ का स्वामी हुआ। उसे अपने भाइयों के पास रणथम्भौर की पचास-साठ लाख रुपये वार्षिक आय की जागीर चले जाना अच्छा नहीं लगता था। इसलिये उसने विक्रमसिंह तथा उदयसिंह को अपने पास चित्तौड़ बुलाया।

जब महाराणा का संदेशवाहक पूरबिया पूरणमल राजमाता कर्मवती से मिला तो उसने कहा कि स्वर्गीय महाराणा ने मेरे भाई सूरजमल हाड़ा को दोनों राजकुमारों का संरक्षक बनाया था। इसलिये आप उससे बात करें। जब पूरणमल ने सूरजमल से बात की तो सूरजमल ने कहा कि वह स्वयं चित्तौड़ आकर महाराणा से बात करेगा।

महाराणा सांगा ने मालवा के सुल्तान मुहम्मद से स्वर्ण की कमरपेटी तथा रत्नजटित मुकुट लिये थे, ये दोनों वस्तुएं भी इस समय रणथम्भौर दुर्ग में कर्मवती के पास थीं। रत्नसिंह ने इन दोनों वस्तुओं की मांग की किंतु सूरजमल ने इन्हें देने से भी इन्कार कर लिया। सूरजमल का जवाब सुनकर महाराणा रत्नसिंह क्रुद्ध हुआ। उसने सूरजमल को मारने का षड़यंत्र रचा। एक दिन वह शिकार खेलता हुआ बूंदी के निकट जा पहुंचा और सूरजमल को भी बुलाया।

सूरजमल चित्तौड़ तथा बूंदी राज्य की सीमा पर स्थित गोकर्ण तीर्थ पर पहुंचकर महाराणा की सेवा में उपस्थित हुआ। महाराणा ने अवसर पाकर सूरजमल पर तलवार का वार किया। सूरजमल ने भी महाराणा पर वार किया जिससे सूरजमल तथा रत्निंसंह दोनों ही मारे गए।

गुजरात के अधीन

ई.1533 में राजमाता कर्मवती को गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह से संधि करनी पड़ी। उसने रणथम्भौर का दुर्ग बहादुरशाह को समर्पित कर दिया। बहादुरशाह ई.1535 तक इस दुर्ग पर अपना अधिकार बनाये रख सका।

शेरशाह सूरी का अधिकार

ई.1542 में शेरशाह सूरी ने दुर्ग पर आक्रमण किया तथा दुर्ग पर अधिकार करके अपने पुत्र सलीमशाह को दे दिया।

फिर से बूंदी के हाड़ाओं के अधीन

ई.1554 में सुरजन हाड़ा बूंदी का राव हुआ। उसके एक सरदार सामंतसिंह ने बेदला के चौहानों की सहायता से रणथम्भौर का दुर्ग पठानों से जीतकर अपने स्वामी सुरजन हाड़ा को समर्पित कर दिया। सुरजन ने स्वयं को रणथम्भौर का स्वामी घोषित नहीं करके, मेवाड़ के अधीन सामंत रहना ही स्वीकार किया।

अकबर का आक्रमण

ई.1569 में अकबर ने अपने सेनापति अशरफ खाँ को रणथम्भौर पर आक्रमण करने भेजा किन्तु उसे सफलता नहीं मिल सकी। इस पर अकबर स्वयं रणथम्भौर पहुंचा। उसने दुर्ग पर मजबूत घेरा डाल दिया। 10 फरवरी 1569 को अकबर ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। उस समय राव हम्मीर का प्रबल वंशज राव सुरजन हाड़ा रणथम्भौर दुर्ग पर महाराणा की ओर से दुर्गपति (किलेदार) नियुक्त था। वह किले में मजबूती से सैन्य गतिविधियों का संचालन करता रहा।

अकबर इस दुर्ग को तोड़ने के लिये आगरा से भारी भरकम तोपें खींच कर लाया। इन तोपों को खींचने के लिये बैलों की 100-100 जोड़ियां जोती गईं। इन तोपों से 30-30 मन के गोले दुर्ग की प्राचीरों पर बरसाये गये। लगभग एक माह तक राव सुरजन हाड़ा वीरता पूर्वक अकबर का सामना करता रहा।

रणथम्भौर दुर्ग के लिये यह पहला अवसर था जब उसने तोप के गोलों का स्वाद चखा था। जब तोपखाना अप्रभावी रहा तो अकबर ने दुर्ग की दीवार की ऊंचाई तक साबात बनवाया जहाँ से पत्थर फैंकने की चर्खियों की सहायता से 30 मन भार के लोहे के गोले तथा 60 मन भार के पत्थर के गोले दुर्ग पर फैंके गये।

प्रत्येक चर्खी का संचालन 200 जोड़ी बैल करते थे जो पहाड़ी पर बड़े वेग से भागते थे और चर्खी से छूटा हुआ लोहे या पत्थर का गोला दुर्ग के अन्दर जाकर गिरता था। इससे दुर्ग की एक दीवार टूट गई और उसके अन्दर स्थित कुछ भवन भी नष्ट हो गये।

इस पर भी अकबर की दाल नहीं गली तो उसने आमेर के राजा भारमल के माध्यम से सुरजन हाड़ा से संधि करने की योजना बनाई। भारमल तथा उसका पुत्र मानसिंह संधि वार्ता के लिये दुर्ग में गये। अकबर भी भारमल के नौकर का वेश धरकर उसके साथ दुर्ग में गया। भारमल तथा सुरजन के बीच संधि की 10 शर्तें तय हुईं। ये शर्तें इस प्रकार थीं-

1. बादशाह को लड़की नहीं दी जायेगी।

2. नौरोजा में बून्दी की रमणियां नहीं जायेंगी।

3. बून्दी नरेश अटक नदी के पास नौकरी करने नहीं जायेगा।

4. दीवाने आम तथा दीवाने खास में बून्दी नरेश शस्त्र लेकर नहीं जायेगा।

5. शाही महल के दरवाजे तक बून्दी वालों का नक्कारा बजता रहेगा।

6. बून्दी के घोड़ों पर दाग नहीं लगेंगे।

7. बून्दी राज्य में जजिया नहीं लगेगा।

8. बून्दी के राजा किसी अन्य आर्य राजा के नेतृत्व में नहीं लड़ेंगे।

9. बून्दी राज्य में मंदिर नहीं तोड़े जायेंगे।

10. जैसे मुगलों का राज्य दिल्ली है, वैसे हाड़ों की राजधानी बून्दी मानी जायेगी।

सूर्यमल्ल मीसण ने वंश भास्कर में इस संधि का रोचक वर्णन किया है। संधि हो जाने के पश्चात् 21 मार्च 1569 को सुरजन हाड़ा, अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने अकबर को दुर्ग की चाबियां सौंप दीं तथा महाराणा की सेवा छोड़कर अकबर की सेवा स्वीकार कर ली। यह देश के लिये बहुत दुर्भाग्य का दिन था। यदि रणथम्भौर अपनी आन पर अडिग रहता तो मेवाड़ के महाराणाओं ने निश्चित रूप से भारत का इतिहास बदल दिया होता।

बूंदी के चौहानों ने मुगलों की जैसी सेवा की, वैसी सेवा तो जोधपुर और बीकानेर के राठौड़ और जयपुर के कच्छवाहे मिलकर भी नहीं कर सके। मुगलों की सेवा करने के लिये बूंदी के चौहानों ने अकबर के साथ हुई संधि की शर्तों को भी भुला दिया। इसके बाद 18वीं सदी तक यह दुर्ग मुगलों के अधीन बना रहा।

अकबर ने मुगल सल्तनत में रणथम्भौर के नाम से एक सरकार का गठन किया। इस सरकार में 73 महल थे और 60,24,196 बीघा 11 बिस्वा भूमि थी। इस सरकार की कुल राजस्व आय 8,98,245 दम्म थी। अकबर ने रणथम्भौर दुर्ग में शाही टकसाल भी स्थापित की और इसे जगन्नाथ कच्छवाहा को जागीर में दे दिया।

जहांगीर तथा शाहजहाँ के काल में रणथम्भौर

ई.1605 में जहांगीर बादशाह बना। उसने रणथम्भौर को खालसा घोषित किया अर्थात् इस क्षेत्र पर सीधे ही बादशाह की जागीर हो गई। ई.1619 में जहांगीर ने रणथम्भौर की यात्रा की। वह इस विशाल एवं मजबूत दुर्ग को देखकर आश्चर्य चकित रह गया।

ई.1622 में जब जहांगीर बीमार पड़ा तो खुर्रम ने जहांगीर से मांग की कि रणथम्भौर का दुर्ग खुर्रम को सौंप दिया जाये ताकि वह अपना परिवार इस दुर्ग में रख सके किंतु जहांगीर ने खुर्रम की यह मांग स्वीकार नहीं की। बाद में जब खुर्रम शाहजहाँ के नाम से दिल्ली का बादशाह बना तो ई.1631 में उसने यह दुर्ग अपने विश्वस्त उमराव विट्ठलदास गौड़ को दे दिया।

औरंगजेब के काल में रणथंभौर

शाहजहाँ के बाद ई.1658 में औरंगजेब दिल्ली का बादशाह हुआ। उसने रणथम्भौर दुर्ग को फिर से खालसा कर लिया। औरंगजेब के शासन काल में भरतपुर के जाटों ने सिर उठाना शुरू किया तथा मुगल साम्राज्य में जहाँ-तहाँ लूटमार करनी आरम्भ कर दी। इस पर औंरगजेब ने रणथम्भौर दुर्ग आमेर के कच्छवाहा राजा रामसिंह को सौंप दिया ताकि उसे लुटने से बचाया जा सके।

कच्छवाहों के अधिकार में

रामसिंह की मृत्यु के बाद कछवाहा राजा बिशनसिंह को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया गया ताकि वह जाटों को दबा सके। आलनपुर और रणथम्भौर के क्षेत्र राजा नारायण दास को सौंपे गये। ई.1707 में औंरगजेब की मृत्यु के बाद बहादुरशाह मुगलों की गद्दी पर बैठा। उसके शासनकाल में जोधपुर नरेश अजीत सिंह ने तथा आम्बेर नरेश जयसिंह ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया किन्तु उसे जीत नहीं सके।

बहादुरशाह ने ई.1716 में मलारना का परगना आम्बेर नरेश जयसिंह को दे दिया तथा ई.1717 में रणथम्भौर सरकार के झालाई तथा बरवाड़ा भी उसे सौंप दिये। ई.1750 में सवाई माधोसिंह जयपुर का राजा हुआ। उसने मुगल बादशाह से प्रार्थना की कि रणथम्भौर का दुर्ग उसे सौंप दिया जाये किन्तु उसकी यह प्रार्थना स्वीकार नहीं की गई। इस पर सवाई माधोसिंह ने शेरपुर की प्राचीर बनवाई तथा मराठों के विरुद्ध अपनी स्थिति को मजबूत किया किन्तु दुर्ग के अभाव में इस क्षेत्र में मराठों पर नियंत्रण रख पाना संभव नहीं था।

मराठों के आक्रमण

ई.1780 में मराठों ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। मराठों के सेनापति महबूब अली ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। कच्छवाहा नरेश पृथ्वीसिंह तथा जगतसिंह ने दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया। महाराजा मानसिंह ने इस दुर्ग को शिकारगाह के रूप में विकसित किया।

राजस्थान सरकार के अधीन

जयपुर रियासत के राजस्थान में विलीन होने के बाद यह दुर्ग राजस्थान सरकार के अधीन हो गया। ई.1964 में इसे केन्द्र सरकार के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सौंप दिया गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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