मालकोट के ध्वंसावशेष नागौर जिले में मेड़ता नामक अति प्राचीन नगर में स्थित हैं। इस दुर्ग से मारवाड़ रियासत का मध्यकालीन इतिहास जुड़ा हुआ है। प्राचीन काल में मेड़ता को मेड़न्तक तथा मेड़तापुर के नाम से जाना जाता था। मध्यकाल में इसे मेदनीपुर भी कहा जाता था। वर्तमान में इसे मेड़तासिटी के नाम से जाना जाता है तथा इसी नाम का एक रेल्वे स्टेशन भी बनाया गया है जो मेड़तारोड-मेड़तासिटी ब्रांच-रेल-लाइन पर स्थित है।
मेड़ता का सबसे प्राचीन उल्लेख ई.837 के प्रतिहार बाउक के शिलालेख में प्राप्त हुआ है। मण्डोर के प्रतिहार सामन्त बाउक के वि.सं. 894 (ई.837) के इस लेख में कहा गया है कि बाउक के 8वें पूर्व पुरुष नागभट्ट ने मेडन्तक को अपनी राजधानी बनाया। यह नागभट्ट राज्जिल का पोता था।
राज्जिल का समय छठी शताब्दी ईस्वी से सातवीं शताब्दी ईस्वी के बीच का है। नगाभट्ट के समय तक प्रतिहारों का राज्य काफी विस्तृत हो चुका था तथा मेड़ता, उसके राज्य के लगभग केन्द्र में था। अनुमान किया जा सकता है कि इस काल में मेड़ता में कोई दुर्ग अवश्य रहा होगा, क्योंकि नागभट्ट (प्रथम) जैसा प्रबल राजा, दुर्ग के बिना अपनी राजधानी वहाँ स्थापित नहीं करता। इस दुर्ग के अब कोई चिह्न शेष नहीं हैं।
12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक प्रतिहारों की प्रथम राजधानी मण्डोर पर चौहानों का प्रभुत्व हो गया था। इसके साथ ही मण्डोर के आसपास के अन्य प्रतिहार शासक चौहानों के अधीन जा चुके थे। अतः अनुमान किया जाता है कि मेड़ता में भी इस समय तक चौहानों का शासन हो चुका था। ई.1301 में अल्लाउद्दीन खिलजी का प्रतिनिधि ताजुद्दीन मेड़ता का शासक था। इसके बाद किसी समय में मेड़ता पूरी तरह उजड़ गया।
ई.1468 में जोधपुर के राव जोधा के पुत्र दूदा ने मेड़ता को अपने अधीन किया। उस समय मेड़ता पूरी तरह उजड़ा हुआ गांव था। अतः प्रतिहारों के अस्तित्व में आने के समय का मेड़ता उस समय तक नष्ट हो चुका था। अनुमान किया जाता है कि मेड़ता, मुस्लिम आक्रमणों में नष्ट हुआ होगा। 12वीं शताब्दी के आसपास के दो स्तम्भ तथा लक्ष्मी मंदिर के भीतर रखी कुछ मूर्तियां प्राचीन मेड़ता की हैं।
राव दूदा के पुत्र वीरम तथा पौत्र जयमल ने मेड़ता में अनेक निर्माण कार्य करवाये तथा अपने महल एवं कोट आदि का निर्माण करवाया। पर्याप्त संभव है कि राव दूदा द्वारा उसी दुर्ग के खण्डहरों को पुनः नवीन दुर्ग का आकार दिया गया हो जिसका निर्माण प्रतिहारों ने करवाया था। ई.1556 तक दूदा के वंशज मेड़ता पर शासन करते रहे।
ई.1556 में जोधपुर के राव मालदेव ने मेड़ता के शासक जयमल को मेड़ता से निकाल दिया तथा मेड़ता को जोधपुर राज्य में मिला लिया। उसने दूदा के अन्य वंशज जगमाल को मेड़ता का शासक नियुक्त किया। ई.1557 में राव मालदेव ने राव दूदा, वीरमदेव तथा जयमल आदि द्वारा बनवाये गये दुर्ग, कोट एवं प्रासादों को गिरवाकर उनके स्थान पर मूलियों की खेती करवाई। उसने दूदा द्वारा निर्मित चतुर्भुज के मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।
फाल्गुन सुदि 12, 1614 (ई.1558) को राव मालदेव ने मेड़ता में मालकोट की नींव रखी जो दो वर्ष में बनकर तैयार हुआ। ई.1563 में जयमल अकबर से सैनिक सहायता लेकर मेड़ता पहुंचा। अकबर की सेना को आया देखकर जगमाल मालकोट खाली करके भाग गया और जयमल राठौड़ फिर से मेड़ता का स्वामी हो गया।
कुछ समय बाद ही जयमल तथा अकबर के सम्बन्ध बिगड़ गये और अकबर की सेना ने फिर से मेड़ता पर आक्रमण किया। जयमल को पुनः मालकोट खाली करना पड़ा। इस बार अकबर ने मालकोट जगमाल को दे दिया। जगमाल तथा उसके वंशज ई.1609 तक मेड़ता के स्वामी रहे।
ई.1609 में अकबर ने मालकोट जोधपुर नरेश सूरसिंह को दे दिया। तब से स्वतंत्रता प्राप्ति तक मालकोट जोधपुर राज्य के अंतर्गत बना रहा। ई.1754 में जोधपुर नरेश काकड़की के युद्ध में मराठों से परास्त होकर मेड़ता के दुर्ग में आया किंतु जब मराठों ने यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ा तो वह बीकानेर की तरफ चला गया।
वर्तमान में मालकोट पूरी तरह क्षतिग्रस्त है। राजस्थान सरकार ने उसके जीर्णोद्धार के लिये कुछ राशि भी स्वीकृत की है। मालकोट के भीतर अकबर के दरबारी अबुल फजल एवं फैजी का बनवाया हुआ एक सभा भवन भी बताया जाता है। रियासती काल के कुछ महल भी हैं जो अब क्षतिग्रस्त होने से बंद पड़े हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता