मारवाड़ में साहित्य संरक्षण एवं संवर्द्धन की सुदीर्घ परम्परा रही है। यद्यपि इस आलेख में मारवाड़ राज्य के राठौड़ राजाओं द्वारा साहित्य को दिए गए संरक्षण की चर्चा की गई है तथापि मारवाड़ में साहित्य संरक्षण की परम्परा अत्यंत प्राचीन काल से अर्थात् प्राचीन क्षत्रियों के काल से मिलती है।
जैन मुनि उद्योतन सूरि द्वारा ई.779 में जालोर दुर्ग में लिखित कुवलयमाला में जिन अठारह देशी भाषाओं का उल्लेख हुआ है, उनमें मरु भाषा भी एक है।[1] मध्यकाल में मरुभाषा राजस्थान के विविध राज्यों में व्यवहृत होने वाली प्रमुख साहित्यिक भाषा थी जिसमें डिंगल नामक काव्य शैली प्रकट हुई। मारवाड़ में चारण कवियों ने डिंगल में, भट्ट, राव एवं संत कवियों ने पिंगल में, जैन कवियों ने प्राकृत में तथा ब्राह्मण कवियों ने संस्कृत में विपुल साहित्य की रचना की। ई.800 से 1000 की अवधि में उत्तर भारत में विकसित हुई हिन्दी भाषा पर इन पूर्ववर्ती भाषाओं का अच्छा-खासा प्रभाव है।
हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का आरम्भ ई.1150 के आसपास माना जाता है। 13वीं शताब्दी ईस्वी में कन्नौज अथवा बदायूं से आए राठौड़ों ने मरुक्षेत्र में राज्य स्थापित करना प्रारम्भ किया जो 15वीं शताब्दी के आते-आते विशाल आकार लेने लगा और मारवाड़ कहलाया। मारवाड़ के राजाओं ने अपने दरबार में कवियों, लेखकों और इतिहासकारों को आश्रय दिया। मारवाड़ के अनेक राजा, रानी एवं राजकुमारियों में भी अनेक कवि, संत एवं साहित्यकार हुए जिन्होंने डिंगल, ब्रज, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा के खजाने को समृद्ध किया।
चौदहवीं से सोलहवीं सदी में मारवाड़ में साहित्य संरक्षण
मारवाड़ राज्य की स्थापना का श्रेय राव चूण्डा (ई.1394-1423) को है। उसका पिता वीरमदेव सलखावत चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में मारवाड़ के वीर पुरुषों में गिना जाता था। वह खेड़ में गुढ़ा बांधकर रहता था। वीरमदेव के आश्रित कवि बादर अथवा बहादर ढाडी ने वीरमायण नामक काव्यग्रंथ रचा जिसमें वीरमदेव सलखावत के वीरतापूर्ण कार्यों पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार मारवाड़ में साहित्य संरक्षण का काम राव वीरमदेव के समय से आरम्भ हुआ।
जांखो मणिहार नामक कवि ने ई.1397 में हरिष्चन्द पुराण नामक काव्य की रचना की। इस ग्रंथ की एक प्रति अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर में है। [2] जांखो मणिहार की चार रचानाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं- वेलि किसन रूक्मणी, ठाकुरजी रा दूहा, गंगाजी रा दूहा, फुटकर दोहे व गीत। [3]
मण्डोर के राव रणमल (ई.1423-38) एवं राव जोधा (ई.1438-88) के आश्रित कवि गाडण पसाइत ने रणमल एवं जोधा के वीर कृत्यों का प्रशस्तिगान करते हुए क्रमशः राव रिडमल रौ रूपक तथा गुण जोधायण नामक काव्यों की रचना की। साहित्य एवं इतिहास दोनों ही दृष्टियों से ये दोनों ग्रंथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। गाडण पसाइत द्वारा लिखित ‘कवित्त राव रिणमल नागौर रे धणी पेरोज ने मारीया ते समैरा’तथा ‘कवित राणै मोकल रे मुआं री खबर अया रा’[4] शीर्षक से फुटकर रचनाओं का भी पता लगा है।
मारवाड़ का राव मालदेव (ई.1589-1552) वीर राजा हुआ। वह साहित्यसेवी एवं विद्यानुरागी था। उसके समय में मारवाड़ में साहित्य संरक्षण एवं संवर्द्धन का काम आगे बढ़ा। उसके द्वारा रचित त्रिपुर भारती लघुस्तव नामक ग्रंथ प्रकाशित रूप में उपलब्ध है।[5] मालदेव के आश्रित कवि बारहठ आसा की कई रचनाएं प्राप्त हुई हैं। वह बाड़मेर जिले के भाद्रेस गांव का निवासी था। उसने राव मालदेव से दान स्वरूप भूमि प्राप्त करने के उद्देश्य से जोधपुर आकर मालदेव के समक्ष राजकुमार चन्द्रसेन की प्रशंसा में गुण चौरासी रूपक बन्ध नामक रचना प्रस्तुत की।
डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने बारहठ आसा की पाँच रचानाओं- लक्ष्मणायण, गोगाजी री पेड़ी, गुण निरंजन प्राण, ऊमादे भटियाणी रा कवित्त तथा बाघजी रा दूहा का उल्लेख किया है।[6] इनकी और रचनाएँ भी प्राप्त हुई हैं जिनमें राव चन्द्रसेन रा रूपक, राव माला सलखावत रा छंद तथा बात राव मालदे री प्रमुख हैं। बात राव मालदे री में कवि आसा द्वारा मालदेव की प्रशंसा में दो कवित् एवं मालदेव द्वारा विजित तेतीस परगनों के उल्लेख वाले पाँच कवित्त उपलब्ध हैं। बीठू मेहा द्वारा रचित पाबू जी रा छंद एवं गोगाजी रा रसवाला नामक रचनाएँ भी इसी काल की हैं।
इस काल में मारवाड़ राज्य में ग्रन्थ-लेखन का स्वतंत्र वातावरण था, फलस्वरूप सिंढायच चौभुजा, खिड़िया, चानण, हरिसूर, बारहठ लक्खा, बारहठ अक्खा, ईसरदास, अल्लूजी कविया आदि अनेक कवियों ने डिंगल साहित्य की श्री वृद्धि की। सांखला करमसी नामक कवि ने किसनजी री वेलि नामक काव्य का सृजन किया। महाराजा सूरसिंह (ई.1595-1619) के कृपापात्र कवि माधोदास दधवाड़िया ने राम रासौ, भाषा दसमस्कंध एवं गुण गजमोख नामक काव्य लिखे। इस प्रकार इस काल में मारवाड़ में साहित्य संरक्षण एवं संवर्द्धन का काम अपने चरम पर पहुंच गया। पृथ्वीराज राठौड़ ने माधोदास के बारे में लिखा है-
चूंडे चत्रभुज सेवियौ, ततफल लागो तास।
चारण जीवो चार जुग, मरो न माधौदास।।
महाराजा सूरसिंह की आज्ञा से जोधपुर नगर वास्तव्य श्रीमाली माधवभट्ट ने सूरसिंह वंश प्रशस्ति नामक पुस्तक की रचना की। ई.1509 में जन्मे भक्त कवि ईसरदास बारहठ को ‘ईसरो परेमसरो’ का विरुद प्राप्त था। उन्होंने हाला-झाला री कुण्डलियाँ की रचना की जो वीर रस की प्रमुख ऐतिहासिक कृति मानी जाती है। इनके रचे हरिरस, देवियाण, गुण आगम, गुण रासलीला, गुण वैराट, गुणनिंदा स्तुति, गुण भागवत हंस, गरुड़ पुराण, गुण छभा प्रव, गुणनिंधाततः, आदि ग्रंथ अध्यात्म एवं शांत रस से ओत-प्रोत हैं। जसवन्त नामक कवि ने त्रिपुर सुन्दरी री वेलि, सांयाजी झूला ने नाग दमण तथा रुकमणी हरण की रचना की।
भक्तिकाल की कवयित्री मीरां बाई
16वीं शताब्दी ईस्वी में मारवाड़ राजवंश की मेड़तिया शाखा में उत्पन्न भक्तकुल शिरोमणि मीरांबाई जोधपुर नरेश राव जोधा की प्रपौत्री थीं। उनके लिखे पद सम्पूर्ण भारत में बड़े चाव से गाए जाते हैं तथा हिन्दी भाषा की अमूल्य थाती हैं-
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर–मुकुट, मेरो पति सोई।
छांडि दई कुल की कानि, कहा करिहैं कोई।
संतन ढिग बैठ–बैठ, लोक–लाज खोई।
सत्रहवीं सदी में मारवाड़ में साहित्य संरक्षण
मारवाड़ नरेश गजसिंह (ई.1619-38) ने 14 कवियों को लाख पसाव देकर सम्मानित किया। गजसिंह के समकालीन कवि हेम सामोर (रचनाकाल ई.1629 के लगभग) ने गुणभाखा चरित्र तथा गाडण शाखा के चारण कवि केशवदास (रचनाकाल ई.1594-1634) ने गजगुण रूपक बंध काव्य की रचना की। ये दोनों काव्य डिंगल भाषा के हैं और इनमें महाराजा गजसिंह के वीर चरित्र का वर्णन किया गया है। केशवदास को उत्तरकाव्य लिखने पर महाराजा गजसिंह द्वारा 1500 रुपये वार्षिक आय की जागीर दी गई।[7] इस काव्य की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार से हैं-
दोल दल दकरवणी अणी चहुँ पासाँ आवे।
गणण गमण ग्रीधणी पंख भुव मण्डल छावे।।
घणण घंट कुँजरी झणण प्रखरां झणंके।
सूर सीए चाहत ताण नैण ताल तणके।।
केशवदास गाडण के अन्य ग्रंथों में निसांणी विवेक वीरता, राव अमरसिंह रा दूहा, गजगुण चरित्र, महादेवजी रा छंद, छन्द श्री गोरखनाथ, फुटकर गीत, दोहे एवं कवित्त आदि का भी पता चला है। महाराजा गजसिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह राठौड़ को देश-निकाला दिया था। स्वाभिमान का धनी अमरसिंह अपने शौर्य एवं पराक्रम के लिए लोकगीतों में अमर हो गया। उसे केन्द्रित करते हुए अनेक कवियों ने गीत, झमाल, वार्ता, झूलणा, सिलोके (श्लोक), छंद, ऊवाको एवं ख्याल लिखे जो डिंगल साहित्य की अमूल्य थाती हैं।
अलंकार शास्त्र एवं वेदांत के ज्ञाता महाराजा जसवंतसिंह
डॉ. हरिसिंह राठौड़ ने मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह (ई.1638-78) की गिनती रीति कालीन आचार्य-कवियों में करते हुए लिखा है- ‘हिन्दी के जिन रीतिकालीन कवियों में इने-गिने कवियों को ही आचर्य-पद का गौरव प्राप्त है, उन आचार्यों में महाराजा जसवंतसिंह हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने अलंकार शास्त्र को एक नवीन दिशा में ढालकर हिन्दी के आचार्यों को प्रेरित किया। [8] महाराजा द्वारा रचित ग्रंथ भाषाभूषण अलंकार शास्त्र का अनुपम ग्रंथ है जिसे आगे चलकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया। इस ग्रंथ में 212 दोहे हैं जिनमें से 166 अलंकार विषयक हैं। इसके मंगलाचरण में गणेशजी की स्तुति करते हुए उन्होंने लिखा है-
विघन हरन तुम हौ सदा गणपति होहु सहाई।
विनती कर जोरे कहों दीजै ग्रन्थ बनाई।
करुणा करि पोषत सदा सकल सृष्टि के प्राण।
ऐसे ईश्वर को हिये, रहो रेनि दिन ध्यान।
इसी ग्रंथ में कवि ने बहुत सी नारियों से प्रेम करने वाले पुरुषों को चेतावनी देते हुए लिखा है-
एक नारि सो हित करै, सो अनुकूल बखानि।
बहु नारि सो प्रीति सम, ता को दक्षिण जानि।।
महाराजा जसवंतसिंह ने पांच लघु ग्रंथ सिद्धान्तबोध, सिद्धान्तसार, अनुभवप्रकाश, अपरोक्षसिद्धान्त तथा आनन्दविलास शीर्षक से लिखे। [9] उन्होंने नायिका भेद पर भी एक पुस्तक लिखी थी जो अब अप्राप्य है। महाराजा ने फूली जसवन्त संवाद, नामक एक ग्रंथ भी लिखा। उन्होंने श्रीमद्भागवत पर भाषा में एक टीका लिखी तथा प्रबोध चन्द्रोदय नामक संस्कृत नाटक का चन्द्रप्रबोध शीर्षक से भाषानुवाद किया। अब इस अनुवाद के केवल चार पृष्ठ मानसिंह पुस्तक प्रकाश में उपलब्ध हैं। इन पृष्ठों में इस ग्रंथ का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-
मोह अंधेरो दूर करि, प्रकट्यो चन्द्र प्रबोध।
ताते सबहिन के हिये, भयो जुं अबही बोध।।
जसवंतसिंह विद्वानों और कवियों के आश्रयदाता थे। उन्होंने लाहौर में एक ही दिन में अपने सरदारों और कवियों को 22 घोड़े और 3 हाथी पुरस्कार में दिए। साथ ही 14 कवियों को डेढ़-डेढ़ हजार रुपए भी दान किए। महाराजा जसवंतसिंह के समय मारवाड़ राज्य में वल्लभ सम्प्रदाय के संतों एवं पुजारियों का आगमन हुआ जिससे राज्य में कृष्ण भक्ति का प्रचार हुआ। हरिराय नामक सन्त की अनेक कृतियां मिली हैं जिनमें आचार्य स्वरूप चिन्तन, कृष्णावतार स्वरूप निर्णय, गुंसाईजी का स्वरूप चिन्तन, जप प्रकार, द्वैतात्मक स्वरूप विचार, पुष्टि दृढ़ता एवं षिक्षा पत्र आदि मुख्य है।[10] वल्लभ मत के ही ध्रुवदास रचित कृतियों में आनन्द दषा विनोद, आनन्दलता, ख्याल हुलास, जीव दषा, जुगल दषा ध्यान महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाष जोधपुर में संग्रहित हैं। महाराजा जसवंतसिंह के दीवान मुंहणोत नैणसी ने नैणसी री ख्यात नामक इतिहास ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ उस काल के विश्वसनीय इतिहास को जानने का प्रमुख स्रोत है।
महाराजा अजीतसिंह एवं उनके दरबारी लेख
महाराजा अजीतसिंह द्वारा रचित ग्रंथों में गुणसागर, [11] भाव विरही, अजीतसिंह जी कह्या दुहा, महाराजा अजीतसिंहजी कृत दुहा श्री ठाकुरां रा, महाराजा अजीतसिंह जी री कविता एवं महाराजा अजीतसिंहजी रा गीत नामक ग्रंथ मिलते हैं। [12] मिश्रबंधु विनोद में महाराजा अजीतसिंह के ग्रंथों के नाम इस प्रकार दिए गए हैं- दुर्गापाठ भाषा, राजरूप का ख्याल, निर्वाणी दोहा, ठाकुरों (आदि) के दोहे, भवानी सहस्रनाम और फुटकर दोहे। अजीतविलास में महाराजा ने 117 दोहों में अपनी द्वारिका यात्रा का सुंदर वर्णन किया है, साथ ही 212 दोहों में अपने स्वामिभक्त सरदारों के सम्बन्ध में लिखा है- [13]
और सबै आणंद हुओ, एक पात नह चाह।
कील्याणो राजण तणो, मुवो द्वारिका मांह।।
सिरदारै साथ हुंती नारी परतग दोय।
ठाली भूली रह गई साथ गई नह कोय।।
ईते मरगे राह में मांणस तीन हजार।
ऊंट, तुरंगम बैल री, कर कुण सकै सुमार।।
महाराजा अजीतसिंह (ई.1707-24) के समय के संस्कृत भाषा के तीन महत्वपूर्ण काव्य मिले हैं। संस्कृत ग्रंथ अजीत चरित्र की रचना औदिच्य जाति के दीक्षित ब्राह्मण पं. बालकृष्ण शर्मा ने स्वयं महाराजा के अुनरोध पर की। इसमें 10 सर्ग हैं। [14] ऐतिहासिक महाकाव्य अजीतोदय संस्कृत में लिखा गया है जिसकी रचना भट्ट जगजीवन ने की।[15] इस महाकाव्य में 32 सर्ग हैं। जगजीवन ने मरुभाषा में अजीतचरित की भी रचना की। इसी अवधि में पण्डित श्यामराम ने ब्रह्माण्डवर्णन नामक काव्य लिखा। महाराजा अजीतसिंह ने अपने जीवन काल में ब्राह्मणों और कवियों को 43 गाँव दान में दिए।
महाराजा अभयसिंह की हिन्दी साहित्य को देन
महाराजा अभयसिंह (ई.1724-49) के समय में रचित साहित्य प्रचुर मात्रा में मिलता है। इनके राज्यकाल में चारण कवि पृथ्वीराज ने अभयविलास नामक भाषा-काव्य लिखा। जगजीवन भट्ट ने संस्कृत काव्य अभयोदय की रचना की।[16] कविया शाखा के चारण कवि करणीदान ने सूरज प्रकाश शीर्षक से भाषाकाव्य लिखा तथा महाराजा को सुनाने के लिए 129 पद्धरी छन्दों का विड़दसिणगार नामक एक अलग काव्य बनाया जिसमें सूरज प्रकाश का सार-संक्षेप दिया गया है। दोनों काव्यों के उपहार में महाराजा ने करणीदान को 2000 रुपए वार्षिक आय की जागीर प्रदान की।
रतन शाखा के चारण कवि वीरभाण ने राजरूपक की रचना की परन्तु किसी कारण वश वीरभाण के मारवाड़ से चले जाने से उसका लिखा ग्रंथ महाराजा अभयसिंह के सामने प्रस्तुत नहीं हो सका। इस घटना के लगभग एक शताब्दी पश्चात् मारवाड़ नरेश मानसिंह ने इस काव्य को देखा और इसके रचयिता की असफलता के बारे में सुनकर बड़ा दुःख हुआ। [17] उन्होंने कहा कि इस कवि का राजवंश पर बहुत कर्ज रह गया है, इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि हम उससे उऋण होने की चेष्टा करें।
इसके बाद महाराजा मानसिंह ने वीरभाण के वंशजों का पता लगाकर अपने पास बुलाया। यद्यपि वह वंश इस समय नितांत अशिक्षित था तथापि महाराज ने उस परिवार को 500 रुपये वार्षिक आय की जागीर प्रदान की। इस काव्य में उद्धृत पंक्तियों से प्रकट होता है कि महाराज अभयसिंह ने 14 कवियों को लाख पसाव दिये थे।
बखतसिंह एवं भीमसिंह द्वारा मारवाड़ में साहित्य संरक्षण
महाराजा बखतसिंह (ई.1751-52) एवं भीमसिंह (ई.1793-1803) को अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए निरंतर युद्ध करने पड़े तथा अपने ही सामंतों से लड़ना पड़ा। इस पर भी बखतसिंह ने डिंगल भाषा में देवी स्तुति एवं भजन लिखे। महाराजा भीमसिंह के कठोर स्वभाव के कारण बहुत से चारण, मारवाड़ राज्य छोड़कर चले गए। भीमसिंह के समय में रामकर्ण कवि का लिखा अलंकारसमुच्चय नामक भाषा ग्रंथ मिलता है।
उन्नीसवीं सदी के उद्भट लेखक महाराजा मानसिंह
जोधपुर नरेश मानसिंह (ई.1803-43) अपने समय के उद्भट विद्वान थे। उन्होंने भक्ति एवं शृंगार रस से परिपूर्ण छोटे-बड़े साठ ग्रंथों के साथ-साथ विपुल राशि में स्फुट साहित्य लिखकर राजस्थानी और ब्रज साहित्य के भण्डार को समृद्ध किया। मानसिंह के लिखे ग्रंथों में नाथ चरित, श्री जालन्धरनाथ रो चरित ग्रन्थ, जलंधर चंद्रोदय, नाथ वर्णन ग्रन्थ, अनुभव मंजरी, नाथ स्तुति, कृष्ण विलास, रास चन्द्रिका, राम विलास, दूहा संजोग शृंगार, राम रत्नाकर, मानसिंह साहबांरी बणवट रा ख्याल–टप्पा, शृंगार पद, षडऋतु वर्णन, चौरासी पदार्थ नामावली कोष ग्रंथ, रतना हमीर री वारता ,[18] नाथस्तोत्र, प्रष्नोत्तर, नाथाष्टक, जलन्धर ज्ञानसागर, पंचावली, स्वरूपों के दोहे, मानविचार, उद्यान वर्णन आदि प्रमुख हैं। [19]
कृष्ण विलास भागवत के दशम् स्कंध का भाषा पदों में अनुवाद है। मानसिंह ने भागवत पर राजस्थानी भाषा में टीका लिखी जिसके अब तृतीय और पंचम स्कंध ही उपलब्ध हैं। महाराजा द्वारा लिखित चौरासी पदार्थ नामावली में न्याय, साहित्य, संगीत, वैद्यक आदि अनेक विषयों के सम्बन्ध में कविता लिखी गई है। महाराजा मानसिंह डिंगल तथा पिंगल दोनों ही भाषाओं में रचना करते थे। [20] नाथ सम्प्रदाय के प्रति अधिक श्रद्धा होने के कारण इनकी रचनाओं में नाथ साधुओं की महिमा को अधिक स्थान दिया गया।
महाराजा मानसिंह के दरबार में अनेक कवि एवं विद्वान आश्रय पाते थे। उन्होंने 27 कवियों को लाख पसाव तथा 61 कवियों को जागीरें दीं। सुप्रसिद्ध कवि आसिया बांकीदास उनका काव्य-गुरु था जिसे महाराजा अत्यंत श्रद्धा से देखता था किंतु बाद में महाराजा ने बांकीदास को देश निकाला दे दिया क्योंकि उसने एक पद में नाथों के लिए अपशब्द का प्रयोग किया। महाराजा ने एक बार एक गधे पर भगवा कपड़ा पड़ा हुआ देखा तो उसे श्रद्धा पूर्वक नमस्कार किया। दरबारियों के पूछने पर राजा ने बताया कि जिसने भगवा धारण कर रखा हो वह मेरे लिये पूज्य है। ई.1805 में महाराजा मानसिंह ने संगीत, चित्रकला, इतिहास, साहित्य एवं काव्य के हस्तलिखित ग्रंथों के संग्रहण के लिए जोधपुर दुर्ग में पुस्तक प्रकाश नाम से एक पुस्तकालय स्थापित किया। इस पुस्तकालय में महाराजा मानसिंह की हस्तलिपि में लिखी हुई कुछ रचनाएं संग्रहीत हैं।
महाराजा मानसिंह ने नाथ पंथ के साधुओं को सरंक्षण दिया जिन्होंने विपुल नाथ साहित्य की रचना की। सबदी नामक रचनाओं में नाथ साधुओं की वाणिया संग्रहित हैं। इनमें कम्भारी पाव सबदी, चौरंगीनाथ सबदी, गरीब नाथ सबदी, पार्वती सबदी, नागार्जुन सबदी, देवलनाथ सबदी, पृथ्वीनाथ सबदी, भरथरी सबदी, हारताली पाव की सबदी, मुकुन्द भारती सबदी, मालीपाव सबदी, मींडकी पाव सबदी, मेणावती सबदी प्रमुख हैं। नाथों ने महादेव गोरख संवाद, कबीर गोरख गोष्ठी, गोरख–मछन्दर नाथ संवाद, मच्छेन्द्रनाथ पद, मछेन्द्र पुराण, भरथरी पद आदि की भी रचना की।
मानसिंह के समय बांकीदास नामक विख्यात कवि हुआ जिसने मान जसो मंडन तथा बांकीदास री ख्यात नामक ग्रंथ लिखे। मानसिंह ने उसे अपना भाषा-गुरु बनाया तथा उसे अनेक पुरस्कार दिए। बांकीदास ने गंगाजी की स्तुति करते हुए लिखा है-
पाप जिता तूं पलक में, सुरसरि हरण समत्थ।
इत्ता पाप ऊमर–मही, सो कुण करण समत्थ।
छला अलौकिक छाय, ऊँची लहरां ऊपड़ै।
मुगत निसेणी माय, सुख देणी असुरा सुरां।।
महाराजा मानसिंह का शासन काल, राज्य में संघर्ष, षड्यंत्र और जागीरदारों के विद्रोह का काल रहा फिर भी महाराजा मानसिंह ने संगीत, कला और साहित्य को आश्रय देकर मारवाड़ में संगीत, कला और साहित्य की त्रिवेणी बहा दी।[21] मानसिंह ने लखनऊ, काशी, दिल्ली और नेपाल से बड़े-बड़े गवैये, पंडित, कवि और योगियों को मारवाड़ में आमंत्रित किया। इस सम्बन्ध में एक दोहा कहा जाता है-
जोध बसायो जोधपुर, ब्रज कीनी ब्रिजपाल।
लखनऊ, काशी दिल्ली, मान कियो नेपाल।।
तख्तसिंह एवं जसवंतसिंह (द्वितीय) के समय साहित्य संरक्षण
महाराजा तख्तसिंह (ई.1843-73) स्वयं संस्कृत भाषा के विद्वान एवं विद्याप्रेमी थे। उनके आश्रित कवि शेष ने तख्तविलास चम्पू लिखा। यह ग्रंथ 19वीं शताब्दी की संस्कृत साहित्य परम्परा का अद्वितीय उदाहरण है। [22] महाराजा जसवंतसिंह (द्वितीय) (ई.1873-95) के समय महामहोपाध्याय कविराजा मुरारिदान ने यशवंत यशोभूषण नामक अलंकार का ग्रंथ लिखा था। [23] उन्होंने इसके संस्कृत और भाषा के दो अलग-अलग संस्करण तैयार किये। जसवंतसिंह ने उन्हें लाख पसाव के साथ पाँच हजार वार्षिक आय की जागीर देकर सम्मानित किया।
जोधपुर राजवंश की रानियों द्वारा साहित्य सृजन
मारवाड़ में साहित्य संरक्षण एवं संवर्द्धन की परम्परा केवल राजाओं तक सीमित नहीं थी, बहुत सी रानियों ने भी साहित्य का संरक्षण एवं संवर्द्धन किया। निःसंदेह इनमें से अधिकांश रानियां राजपूताने की अन्य रियासतों की राजकुमारियां थीं तथा वे अपनी पैतृक परम्परा से भी प्रभावित थीं।
रानी तीजा भटियाणी प्रताप कुंवरी का जन्म ओसियां तहसील के गांव जाखण में ठाकुर गोविन्द सिंह भाटी के यहाँ हुआ। इनका विवाह जोधपुर नरेश मानसिंह से हुआ।[24] प्रताप कुंवरी ने पिंगल भाषा में 15 ग्रंथ लिखे। इनमें- ज्ञानसागर, ज्ञानप्रकाश, प्रताप पच्चीसी, प्रेम सागर, रामचन्द्र महिमा, रामगुणसागर, रघुनाथजी के कवित भजन पद, हरजस, प्रताप विनय, श्रीरामचंद्रविनय, रघुवर स्नेह लीला, राम–प्रेम–सुख–सागर, रामसुजस पच्चीसी आदि सम्मिलित हैं। महाराजा मानसिंह के स्वर्गवास के पश्चात् लिखी गई उनकी एक रचना इस प्रकार है-
पतियोग दुख भयो अपारा, सूनो लागत सकल संसारा।
कहुन सुहाय नयन बहै नीरां, पति बिन कौन बंधावै धीरा।
सुनि–सुनि कथा पुराण अपारा, सब झूठौ जायो संसारा।।
महाराजा मानसिंह की चावड़ी रानी के लिखे हुए कुछ विरह गीत मिलते हैं-
बेगा नी पधारो म्हारा आलीजा जी हो।
छाती सी नाजक धन रा पीन।।
ओ सावणियो उमंग्यो छै।
हरिजी ने ओडण दिखणी चरि।।
इण औसर मिलणों कद होसी।
लाडी जी रो थांपर जीव।।
छोटी सी छण रा नाजक पीजी।
महाराजा मानसिंह की उपपत्नी तुलछाराय ने राम भक्ति को समर्पित फुटकर रचनाएं लिखीं-
मेरी सुध लीजो जी रघुनाथ।
लाग रही जिय केते दिन की, सुनो मेरे दिल की बात।
मोको दासी जान सियाबर, राखो चरण के साथ।
तुलछराय कर जोड़ कहे, मेरो निज कर पकड़ो हाथ।[25]
जामनगर के जाम साहब बीमाजी की पुत्री और महाराजा तखतसिंह की रानी प्रताप कुंवरी (प्रतापबाला) का नाम भक्ति-प्रधान कवयित्रयों की श्रेणी में विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने रामपदावली, हरिपदावली एवं अनेक पदों और हरजसों की रचना की। “प्रताप कुंवरी पद रत्नावली” नामक संग्रह में उन्होंने भगवान् कृष्ण को प्रीतम कहकर सम्बोधित किया है-
प्रीतम प्यारो चतुरभुज बारो री।
हिय ते होत न न्यारो मोरे, जीवन नंददुलारो री।
जामसुता को है सुखकारी, सांचो श्याम हमारो री।।
रींवा नरेश विश्वनाथ सिंह के भाई बलभद्रसिंह की पुत्री और महाराजा तखतसिंह की रानी रणछोड़ कुंवरी की कविता का विषय कृष्ण प्रेम और भक्ति था [26] –
गोविन्द लाल तुम हमारे, मोहे दुख से उबारे।
मैं सरन हूँ कि तिहारे, तुम काल कष्ट हारे।।
हो बाघेली के प्यारे, सिरक्रीट मुकुट वारे।
छोनी छटा को पसारे, मोहिनी सूरत न निसारे।।
रींवा नरेश रघुवीर सिंह की पुत्री वाघेली रानी विष्णु प्रसाद कुंवरी का विवाह महाराजा तखतसिंह के पुत्र राजकुमार किशोरसिंह से हुआ था। उनकी रचनाओं का विषय भी कृष्णभक्ति था।[27] उनके रचित तीन ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं- अवध विलास, कृष्ण विलास और राधाराम विलास। महाराजा तखतसिंह के पुत्र प्रतापसिंह की रानी रत्नकुमारी ने भक्ति और प्रेम की कविताएं लिखीं तथा अनेक पदों व हरजसों का सृजन किया, वे राम भक्त थीं। [28]
उपरोक्त साक्ष्यों के आलोक में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मारवाड़ में साहित्य संरक्षण एवं संवर्द्धन की जो सुदीर्घ परम्परा मारवाड़ राज्य की स्थापना के साथ आरम्भ हुई, वह मारवाड़ रियासत के राजस्थान में विलय होने तक चलती रही।
–डॉ. मोहनलाल गुप्ता
[1] जैन, प्रेम सुमन; कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 251.
[2] नाहटा, अगरचन्द; अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर.
[3] तंवर, महेन्द्रसिंह ‘खेतासर’राजस्थान की सांस्कृतिक परम्पराएँ, पृ. 42.
[4] राठौड़, भूरसिंह; कवि बहादुर और उसकी रचनाएँ (सम्पादकीय) पृ. 6.
[5] शर्मा, ओम प्रकाश; मारवाड़ के दो अज्ञात संस्कृत काव्य, मारवाड़ की सांस्कृतिक धरोहर (सं.गोविंदसिंह राठौड़), पृ. 140.
[6] माहेश्वरी, हीरालाल; हिस्ट्री ऑफ राजस्थान लिटेªचर, पृ. 58.
[7] तंवर, महेन्द्र सिंह, ‘खेतासर’; वही, पृ. 34.
[8] राठौड़, डॉ. हरिसिंह; रीतिकालीन कवियों में महाराजा जसवंतसिंह का स्थान, परम्परा, भाग 68, पृ. 48.
[9] मारवाड़ के इतिहास लेखक पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ ने इन पांचों ग्रंथों का संपादन वेदांतपंचक शीर्षक से किया।
[10] ग्रन्थांक 1038 महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाष, जोधपुर।
[11] प्रथम वर्ण शृंगार को, राजनीति निरधार। जोग जुगति यामें सबै, ग्रन्थ नाम गुणसार।।
[12] हस्तलिखित हिन्दी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण, काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित, प्रथम भाग, पृ. 3.
[13] जोधपुर राज्य की ख्यात में भी ये दोहे मिलते हैं।
[14] परम्परा, भाग-17, सम्पादकीय, पृ. 15.
[15] उपरोक्त, पृ. 17.
[16] गहलोत, जगदीशसिंह; मारवाड़ राज्य का इतिहास, पृ. 337.
[17] रेउ, पं. विश्वेश्वर नाथ; मारवाड़ का इतिहास भाग 1, पृ. 243.
[18] दाधीच, रामप्रसाद; महाराजा मानसिंह की साहित्यिक देन, पृ. 230. राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्स, 1968.
[19] महाराजा मानसिंह री ख्यात, पृ. 336, रेउ, विष्वेष्वर नाथ; पूर्वो. पृ.23
[20] माहेश्वरी, हीरालाल; वही, पृ. 120.
[21] उपरोक्त, पृ. 140.
[22] शर्मा, ओम प्रकाश; वही, पृ. 140.
[23] तँवर, महेन्द्र सिंह; वही, पृ. 37.
[24] राठौड़, उषाकंवर; मध्यकालीन कवयित्रियों की काव्य साधना, अध्याय-3, पृ. 48-114.
[25] परिहार, जगमोहनसिंह, मारवाड़ में भक्तिकाव्य परम्परा, मारवाड़ की सांस्कृतिक धरोहर (सं.गोविंदसिंह राठौड़), पृ. 68.
[26] महाराजा तख्तसिंह री ख्यात, पृ. 21.
[27] उपरोक्त पृ. 46.
[28] तंवर, महेन्द्र सिंह, वही, पृ. 41.