Saturday, October 12, 2024
spot_img

महाराजा सूरजमल का युग

महाराजा सूरजमल का युग भारत भूमि के लिए सचमुच ही बड़ा संकटापन्न था। उस युग की प्रवृत्तियाँ भारत के इतिहास में गहन विपत्ति-की सूचना देती हैं। जो विपत्ति ई.1192 में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की तराइन की दूसरी लड़ाई में भयानक पराजय से आरम्भ हुई थी, वह विपत्ति ईस्वी 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के समय तक घनघोर संकट में बदल चुकी थी।

पश्चिम में हिन्दूकुश पर्वत से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में हिन्दमहासागर तक भारत के करोड़ों लोग हर प्रकार के अभाव में जी रहे थे। भारत की जनता सैनिक हिंसा तथा प्राकृतिक दुर्भिक्षों के दो पाटों के बीच पिसकर निर्धनता, अशिक्षा, भुखमरी एवं महामारियों से त्रस्त थी।

To purchase this book please click on image.

औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही जब मुगल सल्तनत बिखरने लगी तो भारत की जनता का संकट और अधिक बढ़ गया। मुगलों ने दो शताब्दियों तक भारत में केन्द्रीय शक्ति होने का दायित्व निभाया था। इस कारण भारत की विभिन्न शक्तियाँ स्वतः नियंत्रण में रहती थीं किंतु औरंगजेब ने जिस क्रूरता और मक्कारी से देश पर शासन किया, उसके कारण मुगल सल्तनत भारत की केन्द्रीय शक्ति नहीं रही। जब मुगल सल्तनत मरने लगी तो भारत की विभिन्न शक्तियां मुगल-क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए आगे आईं तथाअपने लिए सुविधाजनक राज्य बनाने में जुट गईं।

इस छीना-झपटी में वे परस्पर एक-दूसरे की शत्रु बन गईं। इन शक्तियों में राजपूत, जाट, सिक्ख, मराठे तथा प्रांतीय मुगल सूबेदार प्रमुख थे। पूरा देश जैसे गृह-युद्ध की चपेट में था। प्रत्येक राजा अपने पड़ौसी राजा से लड़ रहा था। सैनिक मर रहे थे और विधवाओं के क्रूर-क्रंदनों से पूरा देश स्तब्ध था। यही कारण था कि उस काल में संसार का शायद ही कोई अन्य देश होगा जो इतना बिखरा हुआ, इतना दीन-हीन, इतना जर्जर और विदेशी आक्रांताओं से इतना संत्रस्त होगा!

उस काल में भारत की राजनीति जबर्दस्त हिचकोले खा रही थी तथा देश विनाशकारी शक्तियों द्वारा जकड़ लिया गया था। ईरान एवं अफगानिस्तान से आए नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली जैसे आक्रांताओं ने उत्तर भारत में बहुत बड़ी संख्या में मनुष्यों, गौधन एवं पशुओं को मार डाला था और तीर्थों तथा मंदिरों को नष्ट कर दिया था।

देश पर चढ़कर आने वाले आक्रांताओं को रोकने वाला कोई नहीं था। श्रीविहीन हो चुके मुगल, न तो दिल्ली का तख्त छोड़ते थे और न अफगानिस्तान से आने वाले आक्रांताओं को रोक पाते थे। रूहेलों, तातारों, तुर्कों, बलूचों, आफरीदियों, कजलबिशों और ना-ना प्रकार के अन्य अफगानी कबीलों ने भारत भूमि को रौंद कर शमशान भूमि बना दिया था।

उस काल में उत्तर भारत के शक्तिशाली राजपूत राज्य, मराठों की दाढ़ में पिसकर छटपटा रहे थे। मराठे स्वयं भी नेतृत्व की लड़ाई में उलझे हुए थे। होलकर, सिंधिया, गायकवाड़ और भौंसले, उत्तर भारत के गांवों को नौंच-नौंच कर खा रहे थे। जब एक मराठा सरदार ‘चौथ’ और दूसरा ‘सरदेशमुखी’ लेकर जा चुका होता था तब तीसरा ‘खण्डनी’ लेने आ धमकता था।

बड़े-बड़े महाराजाओं से लेकर छोटे जमींदारों तक की स्थिति बहुत बुरी थी। जाट, मराठे और रोहिले निर्भय होकर भारत की राजधानी दिल्ली के महलों को लूटते थे। रोहिलों के एक सरदार ने तो लाल किले में घुसकर शाही महिलाओं के साथ बलात्कार किए तथा बादशाह आलमशाह (द्वितीय) की आंखें फोड़कर उसे जेल में डाल दिया। जब दिल्ली के शासकों की यह दुर्दशा थी तब जन-साधारण की रक्षा भला कौन करता! भारत की आत्मा करुण क्रंदन कर रही थी।

चोरों ओर मची लूट-खसोट के कारण जन-जीवन की प्रत्येक गतिविधि- कृषि, पशुपालन, कुटीर धंधे, व्यापार, शिक्षण, यज्ञ-हवन एवं दान आदि ठप्प हो चुके थे। शिल्पकारों, संगीतकारों, चित्रकारों, नर्तकों और विविध कलाओं की आराधना करने वाले कलाकार भिखारी होकर गलियों में भीख मांगते फिरते थे। निर्धनों, असहायों, बीमारों, वृद्धों, स्त्रियों और बच्चों की सुधि लेने वाला कोई नहीं था।

ऐसे घनघोर तिमिर में महाराजा सूरजमल का जन्म उत्तर भारत के इतिहास की एक अद्भुत घटना थी। वे अठारहवीं सदी के भारत का निर्माण करने के लिए उत्तरदायी प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे। महाराजा सूरजमल ने राजनीति में विश्वास और वचनबद्धता को पुनर्जीवित किया, हजारों शिल्पियों एवं श्रमिकों को काम उपलब्ध कराया तथा ब्रजभूमि को उसका क्षीण हो चुका गौरव लौटाया। महाराजा सूरजमल का युग अद्भुत था।

उन्होंने गंगा-यमुना के हरे-भरे क्षेत्रों से रूहेलों, बलूचों तथा अफगानियों को खदेड़कर किसानों को उनकी धरती वापस दिलवाई तथा हर तरह से उजड़ चुकी बृजभूमि को धान के कटोरे में बदल लिया। उन्होंने मुगलों और अफगान आक्रान्ताओं का भारतीय शक्ति से परिचय कराया तथा अपने पिता की छोटी सी जागीर को न केवल भरतपुर, मथुरा, बल्लभगढ़ और आगरा तक विस्तृत किया अपितु चम्बल से लेकर यमुना तक के विशाल क्षेत्रों का स्वामी बन कर प्रजा को अभयदान दिया।

सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के कवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में लिखा है- ‘नहीं असत सम पातक पुंजा।’ अर्थात् असत्य के समान कोई पाप-समूह नहीं है। महाराजा सूरजमल ने जीवन-भर सत्य की साधना की। उस युग में यह एक असंभव सा दिखने वाला कार्य था किंतु कूटनीति, राजनीति तथा युद्धनीति के इस चतुर महापुरुष ने सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ा।

महाराजा सूरजमल के जीवन-चरित्र से प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। जब अफगानी आक्रांता भारत भूमि को नौंच-नौंचकर खा रहे थे, तब महाराजा ने अपने बुद्धि-चातुर्य से भारत के धन की रक्षा की तथा हिन्दू धर्म की प्रतीक भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा की रक्षा के लिए अपने हजारों जाट सैनिकों का बलिदान देकर पूरी जाट जाति को अभूतपूर्व गौरव से सम्पन्न कर दिया।

विगत लगभग एक शताब्दी के कालखण्ड में भारत में एक दिग्भ्रमित सी अहिंसा की अवधारणा को फैलाया गया है। वस्तुतः वह अहिंसा नहीं है, हिंसक वर्ग का तुष्टिकरण है। महाराजा सूरजमल का जीवन हमें बताता है कि हिंसा का सामना शौर्य से किया जाता है। इसके लिए शस्त्र एवं शास्त्र दोनों में विवेकपूर्ण सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है।

अहिंसा के आधे-अधूरे और खोखले सिद्धांत किसी भी राष्ट्र की प्रजा को बड़े रक्तपात की तरफ ले जाते हैं। ताकतवर मनुष्य की दहाड़ ही चारों तरफ शांति स्थापित कर देती है, महाराजा सूरजमल ने यह करके दिखाया।

आज जिन लोगों के कंधों पर देश को चलाने की जिम्मेदारी है, उनके लिए भी महाराजा सूरजमल प्रेरणा के स्रोत सिद्ध हो सकते हैं। उन्होंने विपत्ति में पड़े अपने शत्रुओं को शरण देने और सार्वजनिक जीवन में शुचिता को कभी न त्यागने का काम जीवनभर पूरी दृढ़ता से किया।

आज यदि भारत को अपना पुनरुत्थान करना है तो देश के कर्णधारों को महाराजा सूरजमल की तरह निजी जीवन एवं सार्वजनिक जीवन में शुचिता एवं सत्यनिष्ठा का समावेश करना आवश्यक है। अपनी शक्ति की सीमा को जानकर भी उन्होंने शौर्य का मार्ग अपनाया, उस काल की किसी भी बड़ी शक्ति का तुष्टिकरण नहीं किया, न मुगलों का, न रूहेलों का, न जयपुर के शासकों का और न मराठों का।

इस पुस्तक में महाराजा सूरजमल के उसी अवदान को भारत की युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है। आशा है यह पुस्तक भारत वर्ष की नई पीढ़ी को महाराजा सूरजमल की अक्षुण्ण कीर्ति का स्मरण कराने में सक्षम होगी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source