जैसलमेर रियासत में भट्टिक संवत् प्रचलित था। 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से 14वीं शताब्दी के मध्य तक लगभग पौने दो सौ वर्ष की अवधि में जैसलमेर क्षेत्र में मिले समस्त शिलालेखों में भट्टिक संवत् प्रयुक्त हुआ।
भट्टिक संवत् को भाटिक संवत् भी कहते हैं। भट्टिक संवत् का प्राचीनतम ज्ञात शिलालेख भट्टिक संवत् 534 का तथा अन्तिम ज्ञात शिलालेख भट्टिक संवत् 710 का है। जैसलमेर के भाटी शासक धूड़सी रावल की मृत्यु के समय लगवाए गए स्मृति-स्तंभ पर भट्टिक संवत् 738 के साथ विक्रम संवत् 1418 का उल्लेख हुआ है। इस प्रकार भट्टिक संवत् ई.623 में आरम्भ हुआ। (भट्टिक संवत् 1418 – 738 = वि. सं. 680 – 57 = ई.623)
इसके बाद वि.सं. 1756 तक के शिलालेखों में विक्रम संवत् के साथ भाटिक संवत् का उल्लेख मिलता है। अमरसागर में उपलब्ध महारावल अमरसिंह के शासनकाल का वि.सं.1756 का लेख भट्टिक संवत् का प्रयोग करने वाला अन्तिम ज्ञात शिलालेख है, जिसमें भट्टिक संवत् 1078 उल्लिखित है। भट्टिक संवत् का कोई भी शिलालेख जैसलमेर क्षेत्र से बाहर नहीं मिला है, इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस संवत् का प्रचलन केवल जैसलमेर क्षेत्र तक सीमित था।[1]
गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने ‘प्राचीन लिपिमाला’ ग्रन्थ में लिखा है कि जैसलमेर के राजाओं के प्रसिद्ध पूर्वज भट्टी अथवा भाटी ने इस संवत् को चलाया था। राजा भट्टी के नाम से इस वंश के शासक ‘भाटी’ कहलाए। ओझा ने जोधपुर में मिले प्रतिहार बाउक के वि.स. 894 के शिलालेख के आधार पर प्रमाणित किया कि राजा भट्टी का शासन काल वि.स. 680-81 के लगभग रहा होगा।
जैसलमेर क्षेत्र में उपलब्ध सैकड़ों शिलालेखों के आधार पर निश्चित होता है कि भाटिक संवत् का आरम्भ वि.सं.681 से हुआ होगा। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि प्राप्त शिलालेखों में विक्रम संवत् और भट्टिक संवत् में 680-81 वर्षों का अन्तर पाया जाता है।
दशरथ शर्मा ने इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली में भाटिक संवत् के कई शिलालेखों की सूची प्रस्तुत करके यह मत प्रतिपादित किया कि भाटिक संवत् राजा भाटी द्वारा वि.स.681 के मार्गशीर्ष मास से आरम्भ किया गया था। [2] दो शिलालेखों में इस संवत के लिये ‘मार्गशिरादि’ विशेषण उपयोग में लाया गया है।
जैसलमेर क्षेत्र में भाटिक संवत् 534 (वि.सं.1214) से पूर्व के पांच शिलालेख मिले हैं। डा. रत्नचन्द्र अग्रवाल ने लिखा है कि लोद्रवा से 3 कि.मी. दूर एक गोवर्द्धन पर वि.सं. 970 में गोवर्द्धन की प्रतिष्ठा किए जाने का उल्लेख हुआ है।[3] इसके अतिरिक्त चार अन्य स्मृति स्तंभ मिले हैं जिन पर क्रमशः संवत् 11, संवत् 12, संवत् 1016 संवत् 1101 के लेख उत्कीर्ण हैं।
संवत 12 तथा 11 के उपरोक्त दोनों लेखों में कुटिलाक्षरों का प्रयोग किया हुआ है तथापि अंकों एवं एक दो अन्य स्थानों पर नागरी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। इस प्रकार लिपि के आधार पर इन्हें 10वीं शताब्दी की रचना माना जा सकता है। प्रतीत होता है कि इनमें क्रमशः वि.स. 1111 तथा 1112 का उल्लेख किया गया है, जिसमें संवत् के मात्र पिछले दो अंक ही उत्कीर्ण किये गये हैं।
इन दोनों लेखों तथा सं. 1016 के लेखों में किसी व्यक्ति के निधन का उल्लेख है तथा चतुर्थ सं 101 के लेख में एक मन्दिर के निर्माण अथवा प्रतिष्ठा आदि का वर्णन है क्योंकि यह लेख एक मन्दिर के पास गड़े गोवर्द्धन पर उत्कीर्ण है जिसके शीर्ष भाग पर निर्मित लाटों में, पूर्व दिशा से उत्तर तक क्रमशः स्थानक सूर्य, नृत्यरत् चतुर्भुजी गणपति, शिव-पार्वती आलिंगन मुद्रा में) तथा गोवर्द्धनधारी विष्णु की सुन्दर कलापूर्ण प्रतिमाएं बनी हैं। लेख अत्यधिक अस्पष्ट है तथा पढ़ा नहीं जा सकता।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भट्टिक संवत् का प्राचीनतम शिलालेख भ.सं. 534 (वि.सं.1214) का मिला है और उससे पूर्व के जितने भी चार-पांच शिलालेखों का सन्दर्भ उपलब्ध हैं, उनमें से किसी में भी भाटिक संवत् का प्रयोग नहीं किया गया है।
जैसलमें में पौने दो सौ साल तक प्रचलित रहे भट्टिक संवत् के सम्बन्ध में दो प्रश्न उठते हैं-
1. वि.सं. 1214 (भ.सं. 534) से पूर्व के शिलालेखों में भाटिक संवत् का प्रयोग क्यों नहीं हुआ।
2. भ.सं. 534 के लगभग पौने दो सौ वर्षों बाद के शिलालेखों में भट्टिक संवत् का प्रयोग क्यों नहीं हुआ?
संभव है कि जैसलमेर दुर्ग के संस्थापक भाटी राव जैसल ने भट्टी संवत् आरम्भ किया तथा अपने कुल के आदि-पुरुष राजा भट्टी के नाम से इस संवत् का नामकरण करके राजा भट्टी के शासन आरम्भ होने की तिथि से भाटिक संवत् के आरम्भ होने की तिथि निश्चित की हो।
रावल जैसल से पहले भाटियों की राजधानी लोद्रवा थी। जैसल ने जैसलमेर दुर्ग की स्थापना की तथा अपनी राजधानी लोद्रवा से हटाकर जैसलमेर दुर्ग में स्थानांतरित की।
भ.सं. 534 वाला शिलालेख जैसल द्वारा अपनी राजधानी लोद्रवा से जैसलमेर स्थानांतरित करने के दो साल बाद का है। संभवतः इससे पहले का भी कोई शिलालेख रहा होगा जो अब तक उपलब्ध नहीं हो सका है।
यह संभव है कि चूंकि चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में खिलजियों ने जैसलमेर दुर्ग पर अधिकार करके भाटियों को किले से बाहर निकाल दिया था, संभवतः उसके बाद से जैसलमेर राज्य में भट्टिक संवत् का उपयोग बंद हो गया।
[1] बृजभानु शर्मा, भट्टिक संवत्, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्स.
[2] डा. दशरथ शर्मा, आलेख, इन्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, सितम्बर 1959.
[3] डा. रत्नचन्द्र अग्रवाल, पश्चिमी राजस्थान के कुछ प्रारम्भिक स्मृति स्तम्भ, वरदा, वर्ष 6, अंक 2.