भटनेर दुर्ग घघ्घर नदी के पूर्वी तट पर लगभग 52 बीघा भूमि में फैला हुआ है। यह दुर्ग अत्यंत प्राचीन है तथा मूलतः मिट्टी से बनाया गया था। बाद में समय-समय पर इसका पुनर्निर्माण होता रहा और पक्की ईंटों की संरचनायें भी निर्मित की गईं। वर्तमान समय में यह दुर्ग हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय पर स्थित है।
कुषाण कालीन सभ्यता का स्थल
भटनेर दुर्ग आसपास की समतल भूमि से 100 फुट ऊंचा है। इसका निर्माण सरस्वती नदी के किनारे पर स्थित एक ऊंचे थेड़ पर करवाया गया था। इस थेड़ में प्राचीन सभ्यता दबी हुई है। भटनेर दुर्ग की दीवार के पास खुदाई करने पर रंगमहल जैसे ठीकरों के साथ एक कुशाण राजा हुविश्क का तांबे का सिक्का भी मिला है जो इस बात की पुष्टि करता है कि भाटियों का यह किला एवं इसके भीतर का नगर, कुषाण कालीन आर्य-सभ्यता के टीले पर बने हैं। बीकानेर के उत्तरी भाग की सूखी नदियों के तल में 4-5 तरह के थेड़ पाये गए हैं। पर्याप्त संभव है कि इस स्थान पर कुषाण काल में भी किसी प्रकार की दुर्ग सरंचना रही हो।
भटनेर दुर्ग के निर्माता एवं नामकरण
भटनेर दुर्ग के निर्माता
यदुवंशी राजा भाटी (ई.279-295) का राज्य लाहौर के निकट शालिवाहनपुर क्षेत्र में था। वह पश्चिमी भारत के कुषाण शासकों के अधीन रहकर राज्य करता था। उसके पुत्र भूपति भाटी (ई.295-338) ने ई.286 में लाहौर से काफी दूर बहने वाली घघ्घर नदी के पूर्वी तट पर स्थित एक ऊंचे थेड़ पर एक दुर्ग का निर्माण करवाना आरम्भ किया जो आगे चलकर भटनेर दुर्ग के नाम से जाना गया।
दुर्ग का नामकरण
भूपत के समय से यादवों की यह शाखा भाटी कहलाने लगी। उसने अपने बनाये हुए दुर्ग को ‘भाटीनेर’ कहा जो आगे चलकर भटनेर के नाम से विख्यात हुआ।
दुर्ग की श्रेणी
यह विशाल स्थल दुर्ग है। निर्माण के समय चारों ओर से नदियों से सुरक्षित होने के कारण यह, औदुक दुर्ग की श्रेणी में आता था। घने जंगलों से घिरा हुआ होने के कारण यह ऐरण दुर्ग श्रेणी में आता था। दुर्ग को चारों ओर से गहरी खाई से घेरा गया था जिसमें घघ्घर का पानी भरा रहता था, इस कारण यह एक पारिख दुर्ग था। चारों ओर परकोटे से घिरा हुआ होने के कारण यह पारिघ दुर्ग भी था।
भटनेर दुर्ग का स्थापत्य एवं स्थिति
स्थापत्य
दुर्ग को घघ्घर के पूर्व में बनाये जाने का कारण यह था कि भारत पर पश्चिम की ओर से विदेशी आक्रमण होते रहते थे। इस प्रकार घघ्घर को प्राकृतिक सुरक्षा रेखा के रूप में काम लिया गया। भटनेर दुर्ग मूलतः मिट्टी से बनाया गया था। बाद में किसी काल में इस दुर्ग को पक्की ईंटों एवं चूने से बनाया गया। भटनेर दुर्ग का कुल क्षेत्रफल 52 बीघा है। दुर्ग में 52 बड़े बुर्ज एवं 52 अथाह जलराशि वाले कुएं बताये जाते हैं।
उत्तरी सीमा का प्रहरी
भटनेर दुर्ग, मुल्तान-उंच्छ से थोड़ा दक्षिण-पूर्व में सिरसा (सरसुती), हाँसी, एवं दिल्ली जाने वाले मार्ग पर स्थित था। यह राजस्थान के पल्लू, सपादलक्ष (अजमेर एवं सांभर) और अहिच्छत्रपुर (नागौर) तथा पंजाब के सुनाम, अबोहर और लाहौर से दक्षिण के विभिन्न मार्गों से जुड़ा हुआ था। इस कारण भटनेर दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया।
इसे राजस्थान की उत्तरी सीमा का प्रहरी भी कहा जाता था। मध्य एशिया के आक्रांता भी दिल्ली पर आक्रमण करने के लिये यही मार्ग अपनाते थे। इस कारण भटनेर पर विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण होते रहते थे। ऐसी स्थिति में घघ्घर नदी, भटनेर की बहुत सहायता करती थी।
उत्तर भारत की चुंगी चौकी
मध्य एशिया, सिन्ध एवं काबुल के व्यापारी मुल्तान से भटनेर होते हुए दिल्ली जाते थे। भटनेर के शासक इन व्यापारियों से मनमाना शुल्क वसूलने लगे। एक तरह से भटनेर, उत्तर भारत की बड़ी चुंगी चौकी बन गई जिससे भाटियों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो गई।
किलों का जाल
भटनेर में स्थापित हो जाने के बाद भाटियों ने भटनेर के दक्षिण-पश्चिम में मारोठ, मूमणवाहण, अजोधन, देरावर, उंच्छ आदि में भी अपने किले बना लिये। भाटियों ने गजनी एवं लाहौर पर भी फिर से अधिकार कर लिया। इस कारण भटनेर के चारों ओर भाटियों के किलों का जाल सा बिछ गया।
भटनेर दुर्ग का इतिहास
ई.295 में गजनी के शासक ने शालिवाहनपुर पर आक्रमण किया तथा राजा भाटी को मारकर उसका राज्य छीन लिया। राजकुमार भूपति, शत्रु के हाथों से बचकर, थार रेगिस्तान के उत्तर-पूर्वी किनारे पर स्थित घघ्घर नदी के जंगलों में चला आया।
यहाँ उसने घघ्घर के पूर्वी तट पर स्वयं द्वारा पहले से ही निर्मित दुर्ग को अपनी राजधानी बनाया। कुछ समय पश्चात् गुप्तों ने भाटियों को भटनेर दुर्ग से बाहर निकाल दिया। इसलिये वे घघ्घर के निकट छोटा गुढ़ा बांधकर रहने लगे। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम (ई.320-35) अथवा समुद्रगुप्त (ई.335-75) की कृपादृष्टि से भाटियों को भटनेर दुर्ग फिर से प्राप्त हुआ।
ई.479 का साका
ई.477 में गजनी का राजा गज्जू भाटी, चघताई-उजबेगों से हारकर गजनी से हाथ धो बैठा। उसका पुत्र जुगराज लोमणराव ई.479 में चघताई-उजबेगों से लाहौर भी हार गया। अतः लोमणराव का पुत्र रेणसी लाहौर से राजसी चिह्न और लकड़ी का तख्त लेकर भटनेर आ गया। चघताई-उजबेगों ने रेणसी का पीछा किया तथा भटनेर दुर्ग पर आक्रमण किया।
भटनेर पर जगस्वात मांडणोत का शासन था। उसने रेणसी को घघ्घर के किनारे स्थित लाखी के जंगल में पहुंचाया तथा स्वयं ने चघताई-उजबेगों से निबटने का निश्चय किया। जब दुर्ग में रसद की कमी हो गई तब जगस्वात ने साका करने का निश्चय किया। यह भटनेर दुर्ग का तथा भाटियों का पहला साका था।
महमूद गजनवी का आक्रमण
ई.1001 में गजनी के शासक महमूद गजनवी ने भटनेर दुर्ग पर आक्रमण किया। तारीखे हिन्द के अनुसार महमूद गजनवी ने भटनेर दुर्ग पर विजय प्राप्त की। कुछ मुस्लिम स्रोतों के अनुसार महमूद गजनवरी ने ई.1005 में भटनेर पर चढ़ाई की जहाँ का राजा वियराज था। महमूद की विजय हो जाने पर विजयराज स्वयं ही खंजर मार कर मर गया।
तारीख यामिनी में शहर का नाम भाटिया तथा राजा का नाम बछरा व वजरा लिखा है। तारीख फिरिश्तह में शहर भटनेर एवं राजा विजयराव लिखा है। जैसलमेर की तवारीख के अनुसार विजयराज की मृत्यु के बाद, विजयराव का पुत्र देसराज (दुसाजी) देवरावल आ गया और अपनी नई राजधानी स्थापित की।
जब नैणसी री ख्यात के अनुसार ई.1022 में महमूद गजनवी ने भटनेर पर आक्रमण किया तथा वहाँ के भाटी राजपरिवार को मुसलमान बनाया। गजनी के इतिहासकारों ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। संभवतः गजनवी के लौट जाने के बाद भाटियों ने पुनः भटनेर पर अधिकार कर लिया।
दिल्ली सल्तनत के अधीन
बारहवीं शताब्दी के अंत में दिल्ली में गुलाम सल्तनत की स्थापना हुई तथा मुहम्मद गौरी द्वारा भारत में नियुक्त गवर्नर कुतुबुद्दीन ऐबक, दिल्ली का सुल्तान हुआ। मुहम्मद गौरी का एक अन्य गवर्नर कुबाचा उसे सुल्तान मानने को तैयार नहीं हुआ। उसने सिंध, तबरहिंद (भटनेर), कोहराम तथा सरसुती (सिरसा) पर अधिकार कर लिया।
बाद में इल्तुतमिश (ई.1210-1236) ने कुबाचा का दमन करके भटनेर दुर्ग पर अधिकार किया। उसकी पुत्री रजिया सुल्तान (ई.1236-40) ने इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया को तबरहिंद (भटनेर) का इक्तादार बनाया। कुछ समय बाद अल्तूनिया विद्रोही हो गया। रजिया ने सेना लेकर अल्तूनिया पर आक्रमण किया। जब रजिया की सेना तबरहिंद पहुंची तो रजिया के अमीरों ने धोखा देकर रजिया को बंदी बना लिया।
इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया ने रजिया को तबरहिंद दुर्ग में बंद कर दिया। कुछ समय बाद रजिया ने इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया से विवाह कर लिया और उसके साथ सेना लेकर दिल्ली पर आक्रमण किया जिस पर अब उसके भाई बहरामशाह ने अधिकार जमा लिया था। बहरामशाह की सेना ने रजिया और इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया को परास्त करके मार डाला। बहरामशाह के बाद मसूदशाह (ई.1242-46) दिल्ली के तख्त पर बैठा।
उसने युजबक तुगरिलखां को तबरहिंद का इक्तादार बनाया। कुछ लोग तबरहिंद का आशय भटिण्डा से लगाते हैं, न कि भटनेर से। जो भी हो। भटिण्डा और भटनेर के बीच लगभग 100 किलोमीटर की दूरी है। दिल्ली सल्तनत के काल में सिरसा, हांसी, भटिण्डा एवं भटनेर के दुर्ग दिल्ली सल्तनत के अधीन थे।
तेरहवीं शताब्दी के मध्य में यह दुर्ग बलबन के के चचेरे भाई शेरखां के अधीन था। शेरखां ने भटिण्डा तथा भटनेर के किलों की मरम्मत करवाई। ई.1269 में भटनेर दुर्ग में ही शेरखां की मृत्यु हुई। उसकी कब्र आज भी दुर्ग के भीतर विद्यमान है। शेरखां के बाद भटनेर दुर्ग पर जलालुद्दीन बोखारी के वंशज सादत का अधिकार हुआ। उसने शेरखां द्वारा आरम्भ किये गये मरम्मत कार्य को पूरा करवाया।
भटनेर पर भाटियों का पुनः अधिकार
ई.1388 में दिल्ली का सुल्तान फीरोज तुगलक मर गया तथा उसके निर्बल एवं अयोग्य उत्तराधिकारियों में तख्त पर अधिकार को लेकर गृहयुद्ध छिड़ गया। इस कारण दिल्ली सल्तनत बिखरने लगी और तुगलकों का राज्य पालम तक सीमित हो गया। इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर भाटियों ने सादत को मार डाला तथा भटनेर दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया।
तैमूर लंग का आक्रमण
6 नवम्बर 1398 को तैमूर लंग ने 20 हजार मंगोल अश्वारोहियों के साथ भटनेर दुर्ग पर आक्रमण किया क्योंकि भटनेर के भाटी राजा केलण1 ने तैमूर के गवर्नर मुसाफिर काबुली के शत्रुओं को भटनेर दुर्ग में आश्रय दिया था। केलण उस समय इस क्षेत्र की प्रमुख शक्ति था। उसका राज्य पश्चिम में सिंघु नदी से लेकर पूर्व में बीकानेर राज्य की सीमा तक तथा उत्तर में पंजाब के हिसार-फिरोजा क्षेत्र से लेकर दक्षिण में पोकरण-फलौदी तक विस्तृत था।
राव केलण भाटी ने सात दिन तक तैमूर की सेनाओं से कड़ा संघर्ष किया। जब राव को युद्ध में विजय होती दिखाई नहीं दी तो उसने शेख साउद्दीन के माध्यम से तीन बार तैमूर लंग से शांति समझौते की बात चलाई किंतु तैमूर लंग देपालपुर एवं अजोधन से आये हुए शरणार्थियों के रक्त का प्यासा था, इसलिये दोनों पक्षों में समझौता नहीं हो सका।
जब पराजय बिल्कुल निकट आ गई तो राव केलण ने साका करने का निर्णय लिया। दुर्ग के भीतर की स्त्रियों ने जौहर का आयोजन किया तथा उसके बाद दस हजार क्षत्रिय सैनिक दुर्ग खोलकर बाहर निकल आये और रणभूमि में कट मरे। यह भटनेर दुर्ग का तथा भाटियों का दूसरा साका था।
केलण के राज्य एवं किलों के बारे एक दोहा इस प्रकार मिलता है-
पूगल बीकमपुर पुण, बिम्मण वाह मारोठ।
देरावर ने कैहरोर, कैलण इतरा कोट।।
केल्हण द्वारा तैमूर के शरणार्थियों को शरण दिये जाने के सम्बन्ध में एक दोहा इस प्रकार मिलता है-
कल जुग में कीरत कली, पह दरियावा पांव।
केराणी भली कढी, शरण आसा साधार।।
दुर्ग पर अधिकार करने के बाद तैमूर लंग ने दुर्ग के भीतर कत्लेआम किया तथा दुर्ग में आश्रय लेकर रह रहे हजारों स्त्री-पुरुषों को मार डाला। उसने भटनेर दुर्ग को बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। भाटियों के चले जाने के बाद इस दुर्ग पर पहले जोहियों ने एवं उनके बाद चायलों ने अधिकार किया।
राठौड़ों के अधिकार में
ई.1527 में बीकानेर के चौथे शासक राव जैतसिंह ने भटनेर दुर्ग पर आक्रमण किया तथा भटनेर के राजा सादा चायल को मारकर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने राव कांधल के पौत्र खेतसी को भटनेर दुर्ग का दुर्गपति नियुक्त किया।
कामरान का आक्रमण
राठौड़ों के अधिकार में आने के कुछ समय बाद ही भटनेर पर हुमायूं के भाई कामरान ने आक्रमण किया। दुर्गपति खेतसी ने कामरान से जमकर लोहा लिया तथा अंत में अपने अनेक राठौड़ साथियों सहित वीरगति को प्राप्त हुआ। मुगलों ने यह दुर्ग, पुनः चायलों को दे दिया। ‘छन्द राउ जैतसी रउ’ में मुसलमानों के विरुद्ध खेतसी के युद्ध पराक्रम का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
भटनेर प्रोलि हूंता भट्टिक, कांधलां राउ पइठउ कटक्कि।
खेतल रिणि खेसइ खुरासाण, जुध धसइ मत्त गइ जूण जाण।।
पड़ियउ रिणि खेतल पिसण पाड़ि, मालहरि चाड़ि धज मारू आड़ि।
कांधल किंवाड़ वसी करेय, लोपिंयउ मीर भटनेर लेय।।
डॉ. टैस्सीटोरी ने इस युद्ध के बारे में लिख है- यद्यपि वह खेतसी वीरगति को प्राप्त हुआ तथा भटनेर पर शत्रु का अधिकार हो गया तथापि मारवाड़ के रेतीले मैदान में उसने जो यशोध्वज फहराया, वह सारे हिन्दुस्तान में सबसे अनूठा और ऊँचा है।
पुनः राठौड़ों के अधिकार में
ई.1549 में बीकानेर के राव कल्याणमल के भाई ठाकुरसी ने अहमद चायल से भटनेर का दुर्ग पुनः छीन लिया। ठाकुरसी लगभग 20 वर्ष तक भटनेर दुर्ग का अधिपति रहा।
पुनः मुगलों के अधिकार में
अकबर के शासनकाल में एक बार शाही खजाना कश्मीर और लाहौर से दिल्ली ले जाया रहा था। इस खजाने को भटनेर परगने के माछली गांव में लूट लिया गया। अकबर ने हिसार के सूबेदार निजामुलमुल्क को भटनेर पर आक्रमण करने के आदेश दिये। ठाकुरसी एक हजार राठौड़ योद्धाओं के साथ लड़ता हुआ रणखेत रहा। दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया।
पुनः राठौड़ों के अधिकार में
कुछ समय बाद ठाकुरसी का पुत्र बाघा दिल्ली जाकर अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ। उसकी वीरता एवं स्वामिभक्ति से प्रसन्न होकर अकबर ने भटनेर का दुर्ग उसे लौटा दिया। बाघा ने दुर्ग में गोरखनाथ का मंदिर बनवाया। बाघा के बाद भटनेर का दुर्ग बीकानेर के राजा रायसिंह के अधीन रहा।
दयालदास की ख्यात में लिखा है- ‘ई.1597 में अकबर का श्वसुर नसीर खां भटनेर में आकर ठहरा। उसने वहाँ किसी दासी के साथ छेड़छाड़ की। इस पर महाराजा रायसिंह के संकेत पर रायसिंह के सेवक तेजा ने नसीर खां की पिटाई कर दी। नसीर खां ने इसकी शिकायत अकबर से की। अकबर ने रायसिंह के प्रति नाराजगी व्यक्त की।
महाराजा रायसिंह के बाद उसका पुत्र दलपतसिंह बीकानेर की गद्दी पर बैठा। जब जहांगीर ने महाराजा दलपतसिंह को मरवाया तब दलपतसिंह की छः रानियां भटनेर दुर्ग में निवास कर रही थीं। महाराजा के निधन की सूचना भटनेर पहुंचने पर वे रानियां भटनेर दुर्ग में ही सती हो गईं। उनकी देवलियां आज भी भटनेर दुर्ग में विद्यमान हैं।
भाटियों एवं जोहियों में संघर्ष
भटनेर दुर्ग से राठौड़ों का अधिकार समाप्त हो जाने के बाद बाद, दुर्ग पर अधिकार को लेकर भाटियों और जोहियों में दीर्घकाल तक संघर्ष चला। कभी दुर्ग पर भाटियों का अधिकार होता तो कभी जोहियों का।
पुनः राठौड़ों के अधिकार में
ई.1805 में बीकानेर नरेश सूरतसिंह ने भटनेर दुर्ग पर घेरा डाला। पांच माह की घेरेबंदी के बाद राठौड़ों ने जाब्ताखां भट्टी से भटनेर छीन लिया। महाराजा सूरतसिंह ने जिस दिन भटनेर दुर्ग पर अधिकार किया, उस दिन मंगलवार था। इसलिये महाराजा ने इस दुर्ग का नाम हनुमानगढ़ रख दिया। उसने दुर्ग में हनुमानजी का एक मंदिर भी बनवाया।
वर्तमान स्थिति
वर्तमान में यह दुर्ग पूरी तरह जर्जर और भग्वानस्था में है। दुर्ग के एक प्रवेश द्वार पर बीकानेर नरेश दलपतसिंह तथा उनकी 6 रानियों की आकृतियां उत्कीर्ण हैं। दुर्ग के दूसरे प्रवेश द्वार पर ई.1608 का फारसी लिपि का एक संक्षिप्त लेख उत्कीर्ण है जिसके अनुसार राव मनोहर कछवाहा ने शाही आज्ञा से, यहाँ मनोहरपोल नामक दरवाजा बनवाया।
- शराफउद्दीन अली यादजी ने अपनी पुस्तक जफरनामा भाग-2 में इस राव का नाम दुलजीन भाटी बताया है। याहिया बिन अहमद बिन अब्दुली सहरिन्दी की पुस्तक तारीखे मुबारिक शाही की तीन अलग-अलग हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में इस राव का नाम जुलजैन भाटी, जिलजिन भाटी तथा खिलजिन भाटी लिखा है। आबू तलब हुसैनी ने अपनी पुस्तक मलफुजात ए तैमूरी में राव का नाम दुलचीन भाटी लिखा है। राजस्थानी इतिहासकारों ने भटनेर के इस राव का नाम केलण भाटी लिखा है। ↩︎