Saturday, October 12, 2024
spot_img

दुर्ग निर्माण का इतिहास

राजस्थान में दुर्ग निर्माण का इतिहास अत्यंत प्राचीन काल से आरम्भ होता है। ऋग्वेद में दुर्ग अथवा पुर के कई उदाहरण मिलते हैं। उस काल में दुर्ग चौड़े तथा विशाल होते थे और उनके अंदर विस्तृत क्षेत्र होता था। इसकी तुलना मध्यकालीन नगर परकोटे से की जा सकती है। अर्थात् दुर्ग निर्माण का इतिहास पौराणिक काल से है।

भारतीय संस्कृति में इंद्र को पुरंदर भी कहा गया है जिसका अर्थ है दुर्ग का स्वामी। पुराणों में प्राचीन आर्यों के अनेक दुर्गों का उल्लेख मिलता है।

कालीबंगा में मिले दुर्ग के अवशेष तथा आहाड़ से प्राप्त दुर्ग के अवशेष राजस्थान में दुर्ग निर्माण परम्परा के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। चित्तौड़ का दुर्ग हमें महाभारत काल का स्मरण करवाता है तथा गागरौन दुर्ग हमें शुंग काल में विद्यमान होने के संकेत देता है।

दुर्ग के लक्षण

‘दुः’ का तात्पर्य दुष्कर (कठिन) से है तथा ‘ग’ का तात्पर्य गमन करने से है। अर्थात् दुर्ग का तात्पर्य उस रचना से है जिस तक गमन करना कठिन होता है। दुर्ग से ही दुर्गम बना है। अतः सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘दुर्ग’ स्थापत्य की वह रचना है जो शत्रु से सुरक्षा तथा युद्ध के लिये विशेष रूप से तैयार की गई हो।

सामान्य शब्दों में कहें तो जिस भवन अथवा भवन समूह के चारों ओर प्राकार (प्राचीर अथवा परकोटा) हो, जिसमें सैनिक सन्नद्ध हों, जिसकी प्राचीर पर युद्ध उपकरण लगे हों, जिसमें शत्रु आसानी से प्रवेश न कर सके, जिसका मार्ग दुर्गम हो, शत्रु जिसमें प्रवेश करके भी राजा तक न पहुंच पाये, आदि गुणों से युक्त भवन को दुर्ग कहा जा सकता है।

दुर्ग निर्माण का इतिहास हमें बताता है कि दुर्ग निर्माण करते समय यह आवश्यक नहीं माना जाता था कि प्रत्येक दुर्ग में ये सभी लक्षण हों। सामान्यतः वह भवन जिसके चारों ओर सुदृढ़ परकोटा हो, दुर्ग कहा जा सकता है। मानव जाति ने दुर्ग अथवा दुर्ग की तरह का परिघा (प्राकार अथवा परकोटा) तथा परिखा (खाई) से युक्त आवासीय बस्तियों की रचना करने की कला मध्य-पाषाण काल में ही सीख ली थी ताकि वह वन्य पशुओं तथा शत्रुओं से अपनी रक्षा कर सके। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया, प्राकार निर्माण मानव सभ्यता की आवश्यकता बन गया। जब राज्य नामक व्यवस्था आरम्भ हुई तो राजा के लिये दुर्ग का निर्माण करना आवश्यक हो गया।

राज्यशक्ति का अनिवार्य अंग

शुक्र नीति में राज्य के सात अंग- राजा, मंत्री, सुहृत, कोष, राष्ट्र, दुर्ग तथा सेना बताये हैं। अर्थात् इन सात चीजों के होने पर ही राज्य स्थापित हो सकता था। शुक्र नीति में दुर्ग को राज्य का हाथ और पैर कहा गया-

दृग मांत्यं सुहच्छोत्रं मुखं कोशो बलं मनः

हस्तौ पादौ दुर्गे राष्ट्रे राज्यांगानि स्मृतानि हि।।

मनुस्मृति में कहा गया है कि दुर्ग में स्थित एक धनुर्धारी, दुर्ग से बाहर खड़े सौ योद्धाओं का सामना कर सकता है तथा दुर्ग में स्थित सौ धनुर्धारी, दस हजार सैनिकों से युद्ध कर सकते हैं-

एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः।

शतं दशसहस्राणि तस्माद्दुर्ग विधीयते।।

आगे चलकर जब जनपदों, महाजनपदों एवं चक्रवर्ती साम्राज्यों की स्थापना हुई तो एक-एक सम्राट के अधीन कई-कई दुर्ग होने लगे। सम्राट अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये दुर्गों की विशाल शृंखला खड़ी करने लगे। ये दुर्ग-शृंखलाएं बड़े-बड़े साम्राज्यों का आधार बन गईं। यही कारण है कि राजा, महाराजा, सामंत, ठिकाणेदार तथा सेनापतियों ने अपनी तथा अपने राज्य अथवा क्षेत्र की सुरक्षा के लिये विभिन्न प्रकार के दुर्गों का निर्माण करवाया।

प्राचीर

समय के साथ, दुर्ग के स्थापत्य एवं शिल्प में विकास होता गया और दुर्गों की रचना जटिल होती चली गई। दुर्ग का प्राकार दोहरा और कहीं-कहीं तो तिहारा भी हो गया। भरतपुर के दुर्ग में दुर्ग-प्राचीर के बाहर मिट्टी की प्राचीर बनवाई गई थी ताकि तोप के गोले मिट्टी की दीवार में धंस जायें और दुर्ग का वास्तविक प्राकार सुरक्षित रह सके। दुर्ग के चारों ओर खाई खोदकर उसमें पानी भरने की व्यवस्था की गई ताकि शत्रु आसानी से दुर्ग की प्राचीर तक नहीं पहुंच सके।

दुर्ग के ऊपर चार-पांच अश्वों के एक साथ चल सकने योग्य चौड़ी प्राचीर बनाई जाती थी इन्हीं पर घुमटियों के रूप में जीवरखे अथवा अंगरखे बनाये जाते थे। यहाँ से दुर्ग रक्षक सैनिक आक्रांता सैनिकों पर तीर, गर्म तेल, पत्थर आदि फैंकते थे। जब तोपों का प्रचलन हो गया तो प्राचीर के ऊपरी हिस्से में मोखे बनाये जाने लगे जिनमें तोपों के मुंह खुलते थे। दुर्ग की प्राचीर को मजबूत बनाने के लिये उसके बीच-बीच में गोलाकार बुर्ज बनाई जाने लगी जो भीतर से पोली होती थी। यह एक प्रकार से कपिशीश का ही परिष्कृत रूप थी। इसके भीतर सैनिक एवं युद्ध सामग्री संगृहीत की जाती थी।

कपिशीश

संस्कृत साहित्य में गढ़ की रचना के संदर्भ में कपिशीश नामक एक संरचना का उल्लेख मिलता है। इसे राजस्थान में कवसीस कहा जाता था। बाद में इन्हें जीवरखा कहा जाना लगा। जीवरखा, टेढ़-मेढ़े ढलान युक्त मार्गों पर बनाया गया एक छोटा गढ़ होता था जिसमें सैनिक रखे जाते थे। इसे अंगरखा भी कहते थे।

दुर्ग की पोल व्यवस्था

 दुर्ग में स्थित राजा अथवा सम्राट के आवास तक पहुंचने के लिये एक से अधिक संख्या में दरवाजों का निर्माण होता था जिन्हें पोल कहते थे। इन पोलों पर सैनिकों का कड़ा पहरा रहता था। राजस्थान के अधिकांश बड़े दुर्गों में कई-कई पोल हैं। इनमें पूर्व की तरफ का दरवाजा सामान्यतः सूरजपोल, पश्चिम की ओर का चांद पोल तथा उत्तर की ओर का धु्रव पोल कहलाता था। दुर्ग की प्राचीरों पर पत्थर फैंकने के यंत्र लगाये जाते थे।

पत्थर के गोले फैंकने के यंत्र

यह चड़स जैसा यंत्र होता था जिसके माध्यम से पत्थर के गोले दूर तक फैंके जा सकते थे। इन यंत्रों का आविष्कार मनुष्य द्वारा उत्तर वैदिक काल में कर लिया गया था। इन्हें, ढेंकुली, नालि, भैंरोयंत्र तथा मरकटी यंत्र आदि नामों से पुकारा जाता था। इन यंत्रों का उपयोग सोलहवीं शताब्दी ईस्वी अर्थात् तब तक होता रहा जब तक कि भारतीय शासकों को तोपें और बंदूकें प्राप्त नहीं हो गईं। रणथंभौर दुर्ग में शत्रु पर दुर्ग की प्राचीर से जल प्रवाहित करने की व्यवस्था थी। ऐसी व्यवस्था अन्य दुर्गों में देखने को नहीं मिली है।

पाशीब

हिन्दू किलों को तोड़ने के लिये मुगलों ने तीन प्रकार की रचनाएं काम में लीं- पाशीब, साबात तथा बारूद। किले की प्राचीर की ऊंचाई तक मिट्टी तथा पत्थरों की सहायता से चबूतरा बनाया जाता था जिसे पाशीब कहते थे। पाशीब का निर्माण सरल नहीं था क्योंकि पाशीब बनाने वाले शिल्पियों एवं सैनिकों पर दुर्ग की प्राचीर से पत्थर के गोले बरसाये जाते थे। उन्हें सुरक्षा देने के लिये साबात बनाये जाते थे।

साबात

साबात गाय, बैल, भैंस या भैंसे आदि पशुओं के मोटे चमड़े की छावन को कहते थे। किले से बरसने वाले पत्थरों की मार से बचने के लिये मोटे चमड़े की लम्बी छत बनाई जाती थी जिसके नीचे रहकर सैनिक दुर्ग की दीवार तक पहुंच जाते थे तथा दुर्ग की नींव एवं दीवारों में बारूद भरकर उसमें विस्फोट करते थे। अकबर ने चित्तौड़ के किले को तोड़ने के लिये ये तीनों तरीके काम में लिये थे।

दुर्ग की स्वावलम्बन व्यवस्था

दुर्ग के भीतर सम्पूर्ण नगर बसाने, खेती करने एवं पशु पालन करने की भी परम्परा थी ताकि यदि दुर्ग को शत्रु द्वारा घेर लिया जाये तो लम्बे समय तक दुर्ग के भीतर खाद्य सामग्री एवं अन्य जीवनोपयोगी सामग्री की उपलब्धता बनी रह सके। जालोर दुर्ग, रणथंभौर दुर्ग, चित्तौड़ दुर्ग आदि पर मुसलमान शासकों ने कई-कई वर्ष लम्बे घेरे डाले किंतु दुर्ग के भीतर की स्वावलम्बी व्यवस्था के कारण वे दुर्ग पर तभी विजय प्राप्त कर सके जब या तो दुर्ग के भीतर रसद सामग्री बिल्कुल ही समाप्त हो गई या फिर किसी अपने ने दुर्ग के भेद, आक्रमणकारी को दे दिये। जालोर, सिवाना, रणथंभौर आदि दुर्गों का पतन ऐसे ही धोखों से हुआ था।

राजस्थान में दुर्ग निर्माण को एक भवन या भवनों का समूह न मानकर एक परम्परा माना जाना चाहिये। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि किसी दुर्ग की स्थापना किसी समय में, किसी वंश के किसी राजा ने की। समय के साथ वह राजा और उसका वंश दोनों इतिहास के नेपथ्य में चले गये किंतु दुर्ग वहीं पर बना रहा।

उसका हस्तांतरण, जीर्णोद्धार, पुननिर्निर्माण एवं विस्तार भी हुआ किंतु उसका मूल निर्माता, दुर्ग की जो संरचना करके चला गया, उसमें आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया जा सका।

दुर्ग की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा

राजस्थान में दुर्ग निर्माण के समय दुर्गा का मंदिर अथवा थान अवश्य बनाया जाता था। दुर्ग की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा है, जो दुर्ग तथा दुर्ग-वासियों की रक्षा करती है। उनकी दुर्गति अर्थात् दुर्भाग्य दूर करके उन्हें सद्गति एवं सौभाग्य देती है।

वस्तुतः दुर्गा भगवान विष्णु की आद्यशक्ति का ही प्रकट रूप है जिसे भगवान की योग माया कहा गया है। अर्थात् यह भगवान की योग शक्ति है। पुराणों में उल्लेख है कि जब क्षीरशायी विष्णु मधु-कैटभ से दीर्घकाल तक युद्ध करने पर भी उन पर विजय प्राप्त नहीं कर सके तब उन्होंने योगमाया का स्मरण किया। योगमाया की सहायता से भगवान ने राक्षसों पर विजय प्राप्त की। भगवान की यही शक्ति दुर्गा, भवानी, चामुण्डा, जोगमाया आदि विभिन्न नामों से जानी गई है।

यही दुर्गा, दुर्गपतियों एवं सैनिकों की आराध्य देवी है। इसलिये प्रत्येक हिन्दू दुर्ग में दुर्गा का मंदिर, थान, चबूतरा आदि अनिवार्य रूप से बना हुआ मिलता है। प्राचीन एवं मध्यकाल में दुर्गा के मंदिर यदि दुर्ग से बाहर बनाये जाते थे तो वे भी दुर्ग जैसी दुर्गम पहाड़ी पर बनाये जाते थे

दुर्ग स्थापत्य एवं शिल्प के ग्रंथ

राजस्थान में दुर्ग निर्माण में निष्णात कुछ शिल्पियों ने दुर्ग रचना, शिल्प एवं स्थापत्य पर ग्रंथों की रचना भी की। इनमें महाराणा कुंभा के आश्रित शिल्पी मंडन का नाम प्रमुख है।

महान दुर्ग निर्माता महाराणा कुंभा

राजस्थान के दुर्ग निर्माताओं में महाराणा कुंभा का नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। माना जाता है कि कुंभा ने 32 दुर्गों का निर्माण करवाया। उसके समय मेवाड़ राज्य के अधीन दुर्गों की संख्या 84 तक जा पहुंची थी।

हाड़ों का बल दुर्ग शक्ति

यद्यपि राजस्थान के समस्त राजपूत शासकों के लिये, शत्रु से अपनी सुरक्षा के लिये दुर्ग का होना अनिवार्य था किंतु इनमें भी हाड़ा चौहान गढ़ में अपनी मजबूती के लिये प्रसिद्ध हुए। इस सम्बन्ध में एक दोहा देखा जा सकता है-

बलहठ बंका देवड़ा, करतब बंका गौड़।

हाड़ा बांका गाढ़ में, रण बंका राठौड़।।

राजस्थान में दुर्ग निर्माण का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही पुराना इतिहास दुर्ग में दुर्गा की स्थापना किए जाने का है। अलग-अलग किलों में दुर्गा के अलग-अलग नाम देखने के मिलते हैं।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source