दांतारामगढ़ दुर्ग सीकर जिले में मारवाड़ तथा शेखावाटी की सीमा पर स्थित एक पहाड़ी पर बना हुआ है। इसका निर्माण जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के सामंत गुमानसिंह लाड़खानी ने ई.1744 में करवाया।
दांतारामगढ़ दुर्ग में कच्छवाहों की राजधानी जयपुर की तरह चौड़ा बाजार बनाया गया। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके बड़े पुत्र सवाई ईश्वरीसिंह एवं एवं जयसिंह की मेवाड़ी रानी के पेट से उत्पन्न पुत्र माधोसिंह के बीच जयपुर राज्य पर अधिकार को लेकर युद्ध हुआ तब दांतारामगढ़ के ठाकुर गुमानसिंह लाड़खानी ने राजकुमार माधोसिंह का साथ दिया।
मराठों के भय के कारण सवाई ईश्वरीसिंह ने आत्मघात कर लिया और माधोसिंह जयपुर का राजा बना। सवाई माधोसिंह ने ठाकुर गुमानसिंह से बदला लेने के लिए दांतारामगढ़ को नष्ट करने का विचार किया किंतु वह ऐसा कर नहीं सका।
कहा जाता है कि ई.1755 में जोधपुर नरेश रामसिंह की विमाता, जीणमाता के दर्शन करने के लिये सीकर ठिकाणे में आई, तब ठाकुर गुमानसिंह ने उसे लूट लिया। ठाकुर को दण्ड देने के लिये जयपुर की सेना ने दांतारामगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया।
जिस समय युद्ध चल रहा था, उस समय किसी व्यक्ति ने दुर्ग में रखे बारूद के ढेर में आग लगा दी जिसके कारण ठाकुर गुमानसिंह का लगभग सम्पूर्ण परिवार समाप्त हो गया तथा दुर्ग टूट गया। ठाकुर गुमानसिंह का पुत्र दूल्हेसिंह अकेला ही जीवित बच सका।
जयपुर की सेना ने दांतारामगढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। जयपुर नरेश की ओर से दुर्ग पर नागाओं की सेना नियत की गई। यह व्यवस्था जयपुर रियासत के राजस्थान में विलय होने तक लागू रही। दुर्ग परिसर में रूणीचे के बाबा रामदेव के गुरु संत बालीनाथ का मंदिर बना हुआ है। प्रतिवर्ष 31 जुलाई को बालीनाथ का स्मृति दिवस मनाया जाता है। आधुनिक काल में दांतारामगढ़ शेखावाटी क्षेत्र का एक प्रमुख नगर है। दांतारामगढ़ में वैष्णवों का प्रमुख स्थान रैवासा धाम के नाम से प्रसिद्ध है।
-डॉ. मोहन लाल गुप्ता