Saturday, November 2, 2024
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चौमूं दुर्ग (रघुनाथगढ़)

जयपुर से 35 किलोमीटर दूर स्थित चौमूं दुर्ग को चौमुंहागढ़, धाराधारगढ़ तथा रघुनाथगढ़ भी कहा जाता है। यह नाथावत कच्छवाहों का जागीरी दुर्ग था। जिस क्षेत्र में यह दुर्ग बनाया गया था, उस क्षेत्र को उस काल में हाड़ौता कहा जाता था।

चौमूं दुर्ग की श्रेणी

चौमूं का किला स्थल दुर्ग, पारिख दुर्ग तथा धान्वन दुर्ग की श्रेणी में आता है। निर्माण के समय यह चारों ओर से वन प्रदेश से घिरा हुआ था इस कारण ऐरण श्रेणी का दुर्ग था। अब दुर्ग के चारों ओर के वन कट गये हैं।

चौमूं दुर्ग के निर्माता

इस दुर्ग के निर्माण के सम्बन्ध में दो जानकारियां मिलती हैं, एक जानकारी के अनुसार दुर्ग का निर्माण ई.1550 के आसपास राव गोपाल ने आरम्भ करवाया जो आम्बेर नरेश पृथ्वीसिंह प्रथम का चौथा पुत्र था।

दूसरी जानकारी के अनुसार चौमूं दुर्ग का निर्माण ई.1595 में जयपुर राज्य के ठाकुर कर्णसिंह द्वारा किरवाया गया। कर्णसिंह ने दुर्ग का का प्राकार, दो बुर्ज एवं रनिवास का निर्माण करवाया।

ई.1695 में ठाकुर मोहनसिंह ने इस दुर्ग के चारों ओर खाई बनवाई जिसमें हर समय जल भरा रहता था।

ई.1714 में ठाकुर रघुनाथसिंह ने दुर्ग में बड़े स्तर पर बुर्ज एवं महल बनवाए। इसलिए इसे रघुनाथगढ़ कहा जाने लगा। अब इसे चौमूं महल कहा जाता है तथा इसमें होटल चलता है।

चौमूं दुर्ग का स्थापत्य

चौमूं दुर्ग स्थापत्य एवं दुर्ग-शिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसके चारों ओर 7 से 15 फुट मोटी, 23 फुट ऊंची प्राचीर है जिसकी कुल लम्बाई 3077 फुट है। खाई की चौड़ाई 80 फुट है तथा गहराई सामान्यतः 35 फुट है। खाई की परिधि 5500 फुट है। खाई की दीवारें बेहद मोटी हैं। शीर्ष भाग कमल की पत्ती की तरह बना हुआ है जिसमें 5 छिद्र बने हुए हैं।

दुर्ग के दो दरवाजे हैं। पश्चिम की ओर स्थित ध्रुव पोल का निर्माण राव कृष्णसिंह ने करवाया था। भीतर की ओर गणेशपोल है जिसे रघुनाथसिंह ने बनवाया था। दुर्ग में मोती निवास, शीश महल, रतन निवास, कृष्ण निवास तथा देवी निवास नामक महल स्थित हैं। इन महलों में ढूंढाढ़ शैली के भित्तिचित्र बने हुए हैं। दुर्ग परिसर में सेवकों के आवास भवन, रथशाला, घुड़साल, हाथी की ठाण, आदि बने हुए हैं।

दुर्ग के मंदिर

गढ़ के मंगलपोल पर बना गणेशजी का मंदिर, हाथियों की ठाण के पास बना मोहनलालजी का मंदिर तथा किले के सामने बना सीतारामजी का मंदिर रियासती काल के हैं। सीतारामजी के मंदिर में वि.सं. 1803 (ई.1746) का शिलालेख लगा हुआ है जिसमें कहा गया है कि चौमूं के ठाकुर जोधसिंह नाथावत के शासनकाल में सीतारामजी के मंदिर का निर्माण करवाया गया।

दुर्ग पर आक्रमण

समरु बेगम तथा पठान रजाबहादुर ने बाड़ी नदी के मुहाने से इस दुर्ग पर तोप के गोले बरसाये किंतु वे इस दुर्ग को जीत नहीं सके। जयपुर के दीवान संघी झूंथाराम ने भी दुर्ग पर आक्रमण करवाया किंतु वह भी इस दुर्ग को तोड़ नहीं सका। अब यह दुर्ग किसी महाजन को बेच दिया गया है जिसने प्राचीन स्थलों को तुड़वाकर आधुनिक प्रकार के निर्माण करवाये हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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