Saturday, October 12, 2024
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चित्तौड़गढ़ दुर्ग

चित्तौड़गढ़ दुर्ग भारत की आन, बान और शान का प्रतीक है। संसार में जितना आदर इस दुर्ग को प्राप्त है, उतना और किसी दुर्ग को नहीं है। संसार भर में निवास करने वाले हिन्दू इस दुर्ग की मिट्टी को अपने माथे से लगाकर तथा इस दुर्ग के दर्शन कर स्वयं को धन्य अनुभव करते हैं।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग की स्थापना

चित्तौड़गढ़ दुर्ग की स्थापना कब हुई, निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। महाभारत काल में भी इस स्थान पर एक दुर्ग था। आधुनिक इतिहासकार महाभारत का युद्ध आज से लगभग 5100 वर्ष पूर्व (ईसा से लगभग 3100 वर्ष पूर्व) होना मानते हैं। अतः यह पर्याप्त सम्भव है कि चित्तौड़ दुर्ग, भारत के प्राचीनतम दुर्गों में से एक हो।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के निर्माता

लोक किंवदंती के अनुसार पाण्डु-पुत्र भीम ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। यद्यपि महाभारत कालीन चित्तौड़ दुर्ग अब अस्तित्व में नहीं है तथापि यह कहा जा सकता है कि वही महाभारत कालीन दुर्ग जीर्णोद्धार एवं पुनर्निर्माण होता हुआ वर्तमान चित्तौड़ दुर्ग के रूप में हमारे सामने है। परवर्ती मौर्य शासक चित्रांगद मौर्य ने सातवीं शताब्दी ईस्वी में वर्तमान दुर्ग का निर्माण करवाया। यद्यपि उसके बाद गुहिलों द्वारा इस दुर्ग का पर्याप्त संवर्द्धन किया गया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का नाम

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का वास्तविक नाम ज्ञात नहीं है किंतु चित्रांगद मौर्य के काल में पुनर्निर्माण के बाद इसे चित्रकूट कहा जाने लगा जो बाद में अपभ्रंश होकर चित्तौड़गढ़ कहलाया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का भौतिक स्वरूप

चित्तौड़गढ़ दुर्ग गंभीरी और बेढ़च नदियों के संगम के निकट 616 मीटर ऊंचे मेसा के पठार पर स्थित है तथा लगभग 8 किलोमीटर लम्बा और 2 किलोमीटर चौड़ा है। यह दुर्ग 152 मीटर ऊंची पहाड़ी पर मछली के आकार में बना हुआ है। इस दुर्ग तक पहुँचने के लिये एक घुमावदार रास्ते से चढ़ाई करनी पड़ती है। दुर्ग का क्षेत्रफल 279 हैक्टेयर है। क्षेत्र की दृष्टि से यह भारत का सबसे विशाल दुर्ग है।

दो नदियों के संगम पर स्थित होने के कारण यह औदुक दुर्ग, पहाड़ी पर स्थित होेने के कारण गिरि दुर्ग, चारों ओर खाई से घिरा हुआ होने के कारण पारिख दुर्ग, ऊंची प्राचीर से घिरा हुआ होने के कारण पारिघ दुर्ग जंगलोें के बीच स्थित होने के कारण एरण दुर्ग एवं सैनिकों से सुरक्षित बनाये जाने के कारण सैन्य दुर्ग था। चित्तौड़ दुर्ग में वप्र, प्राकार, राजमार्ग, राजप्रासाद, आवासीय भवन, तलघर, शस्त्र भण्डार, देवालय, जलाशय खेत एवं बाजार बने हुए हैं।

दुर्ग तक पहुंचने के मार्ग

चित्तौड़ दुर्ग तक पहुंचने के तीन मार्ग हैं- पहला मार्ग गंभीरी नदी के पुराने पुल से गोल प्याऊ चौराहे से दक्षिण की ओर है। दूसरा रेल्व क्रॉसिंग के दाहिनी ओर से नयी पुलिया प्रताप सेतु से होकर है जो आगे जाकर राणा सांगा बाजार के पास पहले वाले रास्ते में मिलकर एक हो जाता है। तीसरा मार्ग गोल प्याऊ चौराहे से सीधा पूर्व की ओर शहर के बीच होकर जाता है जो पाडन पोल के पास मुख्य सड़क से मिल जाता है। दुर्ग तक जाने के लिये अच्छी डामर सड़क बनी हुई है।

बाघसिंह का स्मारक

पाडन पोल में प्रवेश करने से पूर्व, बाहर की तरफ देवलिया के बाघसिंह का स्माकर बना हुआ है जो ई.1535 में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के समय वीरगति को प्राप्त हुआ था। यहाँ से दाहिनी ओर झरने के लिये मार्ग जाता है जहाँ झरणेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है। यहाँ दुर्ग के गौमुख कुण्ड का जल झरने के रूप में गिरता है।

दुर्ग में प्रवेश एवं सुरक्षा व्यवस्था

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में पहुंचने के लिये एक-एक करके पाडनपोल, भैरव पोल, हनुमान पोल, गणेश पोल, लक्ष्मण पोल, जोड़ला पोल और राम पोल नामक सात दरवाजे पार करने होते हैं। किले के प्रथम द्वार को पाडन पोल कहा जाता है। पाडन पोल का दरवाजा सातवीं शताब्दी का होना अनुमानित है। इसे पट्ट पोल की संज्ञा दी गई थी।

पाडनपोल से दुर्ग में प्रवेश करके ढलवां सड़क पर चलना होता है। दूसरी पोल भैरव पोल कहलाती है। बहादुरशाह के आक्रमण के समय देसूरी का भैंरूसिंह सोलंकी यहीं वीर गति को प्राप्त हुआ था। उसकी मूर्ति आज भी यहाँ स्थापित है। यहाँ से आगे चलने पर जयमल और कल्लाजी की छतरियां आती हैं।

ये दोनों सेनापति, ई.1567 में अकबर की सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। जयमल की छतरी 16 खंभों की है तथा कल्लाजी की छतरी 4 खंभों की है। यहाँ से आगे बढ़ने पर हनुमान पोल आती है। यहाँ से मार्ग दक्षिण की ओर मुड़ता है तथा दुर्ग पर चढ़ाई का दूसरा क्रम आरम्भ होता है। पहले क्रम की लम्बाई 1050 गज तथा दूसरे क्रम की चढ़ाई 235 गज है। यहाँ पूर्व की ओर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है।

चौथा द्वारा गणेश पोल कहलाता है जो पत्थर की बड़ी चौकियों को काटकर जमाया गया है। इस द्वार के बाद सड़क पूर्व की ओर घूमती है। यहाँ सुदृढ़ किलेबंदी की गई है। इसी द्वार के पूर्वी भाग से जुड़ा हुआ अगरा द्वार है। यहाँ गणेशजी का मंदिर स्थित है।

गणेशपोल के बाद जोड़ला पोल आता है। लक्ष्मण पोल से जुड़ा हुआ होने के कारण इसे जोड़ला पोल कहते हैं। इस पोल की ऊंचाई, घुमाव तथा संकरापन उल्लेखनीय है। इस किलेबंदी का निर्माण महाराणा कुंभा के समय करवाया गया था। यहाँ से एक साथ बड़ी संख्या में सैनिक नहीं निकल सकते थे। यहाँ की दीवारों में कुछ मूर्तियां भी लगी हुई हैं।

लक्ष्मण पोल से मार्ग फिर से उत्तर की ओर चढ़ने लगता है जो दुर्ग के मुख्य द्वारा अर्थात् राम पोल तक पहुंचता है। यहाँ से आगे चलने पर रामदेवजी का मंदिर है। बाहर की ओर भदेरिया भैंरूजी की प्रतिमा लगी हुई है।

राम पोल के सामने खुला बारामदा है जाहं से चित्तौड़ नगर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। राम पोल अन्य पोल की अपेक्षा काफी भव्य दिखाई देता है तथा यह काफी पुराना बना हुआ है। इसके निकट स्थित चबूतरे में कुछ शिलालेख एवं मूर्तियां लगी हैं। यह शिल्प शैली रणकपुर मंदिर के समान दिखाई देती है।

यहाँ लगे 10 शिलालेखों में बनवीर के समय के विं.सं.1593 और 1595 के, महाराणा कर्णसिंह के समय का विं.सं.1678 का, महाराणा हमीर के समय के विं.सं. 1832, 1833 और 1835 के चार लेख हैं। एक लेख महाराणा भीमंिसंह के समय का है। रामपोल में कुछ प्रतिहार कालीन मूर्तियां भी लगी हुई हैं।

पूर्व में सूरजपोल और उत्तर में लाखेटा बारी स्थित है। सूरजपोल दुर्ग का सबसे प्राचीन द्वार है। ई.1567 के युद्ध में अकबर ने लाखेटा बारी के समक्ष अपना मोर्चा जमाया था। सूरजपोल के मोर्चे पर राजा टोडरमल, सुजातखां तथा कासिमखां आदि उमरावों ने मोर्चा लगाया था।

दुर्ग में स्थित कीर्ति स्तंभ में लगी प्रशस्ति में चित्तौड़ दुर्ग के द्वारों के नाम क्रमशः राम पोल, भैरव पोल, हनुमान पोल, चामुण्डा पोल, तारा पोल तथा लक्ष्मी पोल बताये गये हैं। इनमें से अब कुछ नाम बदल गये हैं। कीर्ति स्तंभ के निर्माण के समय द्वारों की जो अवस्था बताई गई है, वह भी बदल गई है।

कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति के अनुसार हनुमान पोल सफेद पत्थरों से बना हुआ था तथा कैलास पर्वत के समान दिखता था। भैरव पोल अमरावती के समान दिखता था। लक्ष्मी पोल का निर्माण लक्ष्मी के लिये कुंभा की शरण लेने वालों को, लक्ष्मी देने वाले कुंभा ने करवाया था। तारापोल झरोखों वाला था।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का केन्द्रीय भाग

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का केन्द्रीय और महत्वपूर्ण स्थल कुंड है। यहीं पर महाराणा कुंभा के महल, विजय स्तंभ, समिद्धेश्वर मंदिर तथा कुंभश्याम मंदिर स्थित हैं।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित महल एवं हवेलियां

चित्तौड़ दुर्ग में कई महल स्थित हैं जिनमें रानी पद्मिनी का महल, फतह प्रकाश महल, कुंभा महल, रतनसिंह महल, आहाड़ा हिंगलू का महल, गोरा एवं बादल के महल, जयमल और पत्ता की हवेलियाँ, भामाशाह की हवेली, सलूम्बर की हवेली, रामपुरा की हवेली अधिक प्रसिद्ध हैं। पातालेश्वर महादेव मंदिर के सामने आल्हा काबरा की हवेली के खण्डहर स्थित हैं। इस परिवार के सदस्य महाराणाओं के दीवान  हुआ करते थे। श्ृंगार चौरी के आगे भामाशाह की हवेली है। कुंभा महल परिसर में राव रणमल की हवेली के खण्डहर हैं।

कुंभा महल

कुंभा महल में प्रवेश करने के लिये कुछ सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। महल में प्रवेश करने से पहले कलात्मक प्रवेश द्वार बना हुआ है। महल के भीतर बाईं ओर एक भूमिगत कक्ष है। माना जाता है कि चित्तौड़ दुर्ग का पहला जौहर इसी स्थान पर हुआ था जिसमें रानी पद्मिनी ने जौहर किया था। यह देश के प्राचीनतम राजप्रासादों में एक है। इससे पुराना राजाप्रसाद रणथंभौर के दुर्ग में हम्मीर महल के नाम से स्थित है। कुंभा महल का तीन मंजिला ढांचा तथा अंतःपुर ही शेष बचा है। आकार में कम होते हुए भी इस महल में बड़ी संख्या में खिड़कियां एवं गवाक्ष लगे हुए हैं।

कुंभा महल के दक्षिण-पश्चिमी भाग में कंवरपदा के खण्डहर हैं। महाराणा उदयसिंह का जन्म, बनवीर द्वारा राजकुमार उदयसिंह को मारने का प्रयास, पन्ना धाय द्वारा अपने पुत्र का बलिदान, महाराणा विक्रमादित्य द्वारा मीरां बाई को विषपान कराने का प्रयास, महाराणा प्रताप का जन्म आदि घटनाएं ही महल से जुड़ी हुई बताई जाती हैं। इसके निकट दीवान ए आम, सूरज गोखड़ा और जनाना महल आदि हैं।

रानी पद्मिनी के महल

रानी पद्मिनी के महल तालाब पर बने हुए हैं। तालाब के किनारे बने हुए रानी महल के चारों ओर सीढ़ियां बनी हुई हैं। इसी तालाब के मध्य में एक और महल निर्मित है जिसका उपयोग ग्रीष्म ऋतु में किया जाता था। तालाब में स्थित महल में जाने के लिये नाव का उपयोग किया जाता था। ये दोनों महल बहुत आकर्षक दिखाई देते हैं। इनके झरोखे और छतें धनुषाकार बने हुए हैं।

फतह प्रकाश महल

फतह प्रकाश महल को संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है जिसमें अनेक कलात्मक देव प्रतिमाएं, अलंकृत पाषाण खण्ड, स्तम्भ तथा अन्य पुरा सामग्री संग्रहीत की गई है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित हिन्दू मंदिर

हिन्दू मंदिरों में कालिका माता मंदिर, समिद्धेश्वर मंदिर, मोकलजी का मंदिर, जटाशंकर मंदिर, कुम्भश्याम अथवा कुम्भा स्वामी मंदिर, तुलजा भवानी मंदिर, मीरा बाई मंदिर तथा कुकड़ेश्वर महादेव मंदिर प्रमुख हैं।

आठवीं शताब्दी का सूर्य मंदिर (कालिका माता मंदिर)

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित सूर्य मंदिर आठवीं शताब्दी ईस्वी का है जिसे अब कालिका माता मंदिर कहते हैं। यह मंदिर, दुर्ग के दक्षिणी भाग में जयमल और पत्ता की हवेलियों के दक्षिण में एक साधारण जान पड़ने वाले भवन में स्थित है जो ऊँची जगती पर बना हुआ है। वर्तमान में देवालय के गर्भगृह में कालिका माता की प्रतिमा प्रतिष्ठित है किंतु मंदिर के जंघा भाग तक के स्थापत्य और मूर्त्यांकन को देखने से स्पष्ट होता है कि मूलतः यह सूर्य मंदिर था।

समिद्धेश्वर मंदिर

समिद्धेश्वर मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में परमार शासक भोज द्वारा करवाया गया। इसकी स्थापत्य कला देखने योग्य है। यह प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला से परिपूर्ण है। ई.1428 में महाराणा मोकल ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। इसलिये इसे मोकलजी का मंदिर भी कहते हैं।

परमार राजा भोज ने दुर्ग में त्रिभुवन नारायण का मंदिर भी बनवाया था जिसे संभवतः अल्लाउद्दीन खिलजी ने तोड़ डाला। समिद्धेश्वर मंदिर के निकट कुछ सुंदर शिवालयों के खण्डहर हैं, ये भी खिलजी सैनिकों की क्रूर विनाश लीला की भेंट चढ़ गये लगते हैं। चीरवा से प्राप्त विं.सं. 1330 के लेख में समिद्धेश्वर मंदिर के निर्माण का उल्लेख है।

तुलजा भवानी मंदिर

रामपोल से प्रवेश करते ही दक्षिण दिशा की ओर जाने वाली सड़क के बाईं ओर शिलालेखकों की अधिष्ठात्री तुलजा भवानी का मंदिर स्थित है। इसका निर्माण ई.1536-40 में दासीपुत्र बनवीर ने करवाया था। बनवीर तुलजा का उपासक था और उसने अपने वजन का स्वर्ण तुलादान करके यह मंदिर बनवाया था। तुलजा भवानी का मंदिर चित्तौड़ दुर्ग में होना एक आश्चर्य की बात है। क्योंकि मेवा के महाराणा, शैव थे तथा भगवान एकलिंग के उपासक थे। महाराणा कुंभा एकलिंग के साथ-साथ भगवान विष्णु का भी उपासक था। बनवीर तुलजा भवानी का उपासक क्योंकर हुआ, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। सत्रहवीं शताब्दी में हुए मराठों के राजा छत्रपति शिवाजी महाराज भी तुलजा भवानी के उपासक थे।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित जैन मंदिर

दुर्ग परिसर में स्थित जैन मंदिरों में अदबदजी का मंदिर, सात बीस देवरी तथा शृंगार चौरी प्रमुख हैं। शृंगार चौरी का निर्माण ई.1448 में महाराणा कुंभा के कोषाध्यक्षे बेलाक ने करवायाथा। यह स्थापत्य कला का अच्छा उदाहरण है। इससे प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार यहाँ भगवान शांतिनाथ की चौमुखी प्रमिा थी जिसकी प्रतिष्ठा खतरगच्छ के आचार्य जिन सूरि ने की थी। जब मुगलों ने इस दुर्ग पर अधिकार किया तब यह प्रतिमा तोड़ दी गई। मंदिर की बाह्य दीवारों पर देवताओं की नृत्यरत मूर्तियां देखती ही बनती हैं।

सात मंजिला आदिनाथ स्मारक भी है जो कीर्ति स्तम्भ की तरह बना हुआ है। मेवाड़ के कुछ जैन मंदिरों में भगवान ऋषभदेव की काले पत्थर की मूर्ति मिलती है जिसे भील लोग अदबदजी (अद्भुतजी) कहते थे। सतबीस देवरी 27 मंदिरों का समूह है। इसमें 24 तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं।

बौद्ध स्तूप

कालिका मंदिर से आधा किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में दस स्तूप स्थित हैं जिनमें सबसे बड़ा तीन फुट तीन इंच ऊंचा है। इसका आधार एक फुट आठ इंच वर्गाकार है। ऊपरी भाग वर्तुलाकार है, उसके ऊपर गुम्बद की आकृति है। नीचे, चारों तरफ बैठी भगवान बुद्ध की 16 प्रतिमाएं हैं। नगरी नामक शुंगकालीन नगर से बहुत सी सामग्री लाकर चित्तौड़ दुर्ग में लगाई गई थी।

यहाँ से प्राप्त सामग्री में एक शिलालेख में लिखा है- ‘स वा भूतानाम् दयाथम् कारिता।’ अर्थात् वह जो सभी जीवों पर दया करता है। इस प्रकार इस शिलालेख में भगवान बुद्ध द्वारा समस्त जीवों के प्रति दया करने के उपदेश की ओर संकेत किया गया है।

विजय स्तम्भ

दुर्ग के भीतर स्थित नौखण्डा विजय स्तम्भ चित्तौड़गढ़ दुर्ग का सबसे भव्य निर्माण है। इसे ई.1438 में महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूदशाह खिलजी पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में अपने अराध्य-देव विष्णु के निमित्त बनवाना आरम्भ किया था। इसे बनने में लगभग 10 साल का समय लगा। यह स्तम्भ 12 फुट ऊंचे और 2 फुट गुणा दो फुट आकार के चौकोर चबूतरे पर स्थित है। इसकी ऊंचाई 122 फुट (लगभग 37 मीटर) है। इसमें कुल 9 मंजिलें हैं तथा ऊपर तक जाने के लिये स्तम्भ के भीतर 157 घुमावदार सीढ़ियां बनी हुई हैं।

कीर्ति स्तम्भ

जीजा भगेरवाला नामक एक जैन व्यापारी ने चित्तौड़ दुर्ग परिसर में कुमारसिंह (ई.1179-91) के समय में 12वीं शताब्दी में 72 फुट (लगभग 22 मीटर)  ऊँचे कीर्ति स्तम्भ का निर्माण करवाया। यह गुजरात की चौलुक्य स्थापत्य शैली मंे बना हुआ है तथा नीचे से 30 फुट चौड़ा एवं ऊपर से 15 फुट चौड़ा है। दुर्ग परिसर से तीन शिलालेख मिले हैं जिनमें इस स्तम्भ के निर्माणकर्ता का नाम जीजा भगेरवाला अंकित है। यह मीरा बाई के मंदिर से कुछ हट कर खड़ा हुआ है। इसमें आदिनाथ की पांच फुट ऊंची आकर्षक प्रतिमा लगी हुई है।

कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति

चित्तौड़ दुर्ग में निर्मित कीर्ति स्तम्भ के पास ई.1460 में अंकित एक प्रशस्ति शिलालेख स्थित है। इसमें मेवाड़ के शासक बापा से लेकर कुम्भा तक की उपलब्ध्यिों तथा कुम्भा द्वारा निर्मित भवनों, दुर्गों, मंदिरों, जलाशयों तथा कुम्भा के समय में रचित ग्रंथों की जानकारी दी गई है।

दुर्ग में स्थित जल-स्रोत

दुर्ग परिसर में जैमलजी का तालाब, सूरज कुण्ड, चित्रांग मोरी तालाब, रत्नेश्वर तालाब, कुम्भ सागर तालाब, भीमलत तालाब, हाथी कुण्ड, झाली बाव, गोमुख झरना आदि कई जलस्रोत स्थित हैं जिनसे न केवल पीने का जल मिलता था अपितु खेतों में सिंचाई भी होती थी। चित्रांग मोरी का तालाब राजटीला नामक स्थान पर पहाड़ी के छोर पर बना हुआ है। फतह प्रकाश के तालाब में भीमगौड़ी तालाब है। दुर्ग परिसर में कातण बावड़ी, जेठा महाजन बावड़ी सहित कुछ अन्य बावड़ियां भी बनी हुई हैं।

दुर्ग में अन्य निर्माण

चित्तौड़ दुर्ग में अनेक शस्त्रागार, अन्न भण्डार, सुरंगें एवं तहखाने विद्यमान हैं। नवलखा भण्डार वणवीर द्वारा आंतरिक दुर्ग के रूप में बनवाया गया। बाद में इसे कोष रखने के लिये प्रयोग किया जाने लगा। संभवतः इसी कारण इसे नवलखा कहने लगे।

चित्तौड़ दुर्ग का इतिहास

मौर्य काल में चित्तौड़ दुर्ग

ईसा के जन्म से लगभग सवा तीन सौ साल पहले मौर्य वंश की स्थापना हुई। चंद्रगुप्त मौर्य के समय से ही मौर्यों की सत्ता राजस्थान में फैल गयी। चित्तौड़ पर मौर्यों का अधिकार अशोक के शासन काल में था, इसका अनुमान इस तथ्य से लगता है कि अंग्रेज पुरातत्त्वविद हेनरी कजेन्स ने एक अशोक कालीन सिंह मस्तक, नगरी (जिला चित्तौड़गढ़) की कंकाली माता की मूर्ति के पास पड़ा देखा था। इसी प्रकार के सिंह मस्तक अशोक कालीन स्तम्भों के ऊपरी शीर्ष पर लगा करते थे।

हेनरी कजेन्स ने चित्तौड़ दुर्ग के कालिका मंदिर से उत्तर-पश्चिम में लगभग आधा किलोमीटर दूरी पर 10 बौद्ध स्तूप पहचाने थे। ये 10 स्तूप एक ही प्रकार के थे। इनमें सबसे बड़ा 3 फुट तीन इंच ऊंचा था। इसका आधार एक फुट आठ इंच वर्गाकार था। ऊपरी भाग वर्तुलाकार था उसके ऊपर गुम्बद की आकृति थी। नीचे, चारों तरफ बैठी भगवान बुद्ध की 16 प्रतिमाएं थीं। प्रत्येक प्रतिमा एक छोटे ताक में थी। इसके नीचे सिकुड़े गोल गर्दन की तरह की आकृति थी जिसमें से कमल के पत्ते निकल रहे थे। एक पंक्ति ऊपर की ओर तथा दूसरी नीचे की ओर जाती थी। इसके नीचे पुनः चौकोर स्थान आगे निकले ताकों को स्थान देता हुआ था और उनमें से प्रत्येक में भगवान बुद्ध की ध्यान मुद्रा, अभय मुद्रा एवं वरद् मुद्राओं में प्रतिमाएं विराजमान थीं। हर एक के नीचे मुद्रा अंकित थी। ये बौद्ध स्तूप अशोक कालीन होने अनुमानित हैं।

मगध के मौयों का राज्य यद्यपि लगभग 184 ईस्वी पूर्व में नष्ट हो गया तथापि उनके उत्तराधिकारी जिन्हें हम परवर्ती मौर्य कह सकते हैं, भारत के विभिन्न क्षेत्रों में छोटे-बड़े राजा एवं सामंतों के रूप में आठवीं शताब्दी ईस्वी तक शासन करते रहे। सातवीं शताब्दी इस्वी में चित्रांगद मोरी अथवा भीम मोरी ने चित्तौड़ के पुराने दुर्ग के स्थान पर चित्रकूट नामक नया दुर्ग बनवाया जो कालांतर में चित्तौड़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पर्याप्त सम्भव है कि यह दुर्ग पूरी तरह नया नहीं हो तथा पुराने दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया गया हो एवं उसमें कुछ नये निर्माण करवाये गए हों। आठवीं शताब्दी ईस्वी में मान मोरी चित्तौड़ का राजा हुआ। चित्तौड़गढ़ दुर्ग के पास पूठोली गाँव में मानसरोवर नामक तालाब के किनारे राजा मान का ई.713 का एक शिलालेख मिला है। राजा मान मोरी गुहिल वंशी राजकुमार बप्पा रावल का नाना था।

गुहिलों के अधिकार में

मान मोरी के समय में चित्तौड़ पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ। यह चित्तौड़ के लिये विकट समय था। ऐसे संकटपूर्ण समय में बप्पा रावल ने अपने नाना मान मोरी के राज्य की रक्षा की। इससे प्रसन्न होकर मान मोरी ने चित्तौड़ का दुर्ग बप्पा रावल को ही दे दिया।  इसके बाद मौर्यों का यह दुर्ग गुहिलों के अधिकार में आ गया। चित्तौड़ दुर्ग में राजधानी स्थानांतरित करने से पहले बप्पा आहड़ अथवा नागदा में राजधानी बनाकर रहता था। उसका वास्तविक नाम कालभोज था किंतु चित्तौड़ में गुहिल राज्य की स्थापना करने के कारण यह बापा अर्थात् ‘पिता’ कहलाया। वह गुहिलों की राजधानी को नागदा एवं आहड़ के स्थान पर चित्तौड़ ले आया। बापा रावल को सौ राजाओं के वंश का संस्थापक भी कहा जाता है, संभवतः इस कारण भी उसे बापा कहा गया होगा।

आठवीं शताब्दी के बाद किसी समय गुहिलों का प्रभाव क्षीण पड़ा तथा संभवतः चित्तौड़ उनके हाथ से निकल गया और गुहिल दक्षिण-पश्चिमी मेवाड़ तक सीमित हो गये। इस काल में नागदा फिर से गुहिलों की राजधानी हो गई। नवम् शताब्दी के उत्तरार्द्ध में खुमांण तृतीय ने गुहिलों की क्षीण हो चुकी राज्यलक्ष्मी का फिर से उद्धार किया। दसवीं शताब्दी में आलूराव अर्थात् अल्लट गुहिलों की राजधानी को नागदा से आहड़ ले गया। कहा नहीं जा सकता कि चित्तौड़ का दुर्ग फिर से किस राजा के द्वारा अथवा किस समय पुनः गुहिलों के अधिकार में आया तथा कब पुनः गुहिलों की राजधानी बना।

परमारों के अधिकार में

जब ग्यारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी और बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी, भारत पर ताबड़-तोड़ हमले कर रहे थे, तब इन दो शताब्दियों में, मेवाड़ के गुहिलों को अपने पड़ौसी राज्यों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। मालवा के परमार राजा मुंज ने आहड़ नगर को तोड़ा तथा चित्तौड़ का दुर्ग एवं उसके आसपास का प्रदेश परमार राज्य में मिला लिया। मुंज के उत्तराधिकारी सिंधुराज का पुत्र भोज, चित्तौड़ के दुर्ग में रहा करता था। गुहिल इस काल में अत्यंत कमजोर पड़ गए थे किंतु वे आहड़ को अपनी राजधानी बनाए रखने में सफल रहे।

चौलुक्यों के अधिकार में

ग्यारहवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच किसी काल में चित्तौड़ का दुर्ग परमारों के हाथ से निकलकर गुजरात के चौलुक्यों के हाथों में चला गया।

गुहिलों की चित्तौड़ वापसी

बारहवीं शताब्दी ईस्वी में मेवाड़ के गुहिल वंश में ‘रणसिंह’ अथवा ‘कर्णसिंह’ नामक राजा हुआ। उससे गुहिलोतों की दो शाखाएं- रावल तथा राणा, निकलीं। रावल शाखा में सामंतसिंह नामक राजा हुआ जिसने ई.1174 के लगभग, चौलुक्य राजा कुमारपाल के उत्तराधिकारी अजयपाल को युद्ध में परास्त कर बुरी तरह घायल किया तथा चित्तौड़ का दुर्ग पुनः गुहिलों के अधिकार में किया।

जब सामंतसिंह, अजयपाल से लड़कर कमजोर हो गया तो नाडोल के चौहान कीर्तिपाल (कीतू) ने सामंतसिंह पर आक्रमण करके सामंतसिंह का राज्य छीन लिया। संभवतः इसी काल में गुजरात के चौलुक्यों ने आहड़ पर भी अधिकार कर लिया। इस पर सामंतसिंह के छोटे भाई कुमारसिंह ने कीतू को देश से निकाला तथा गुजरात के राजा को प्रसन्न कर आहड़ प्राप्त किया और स्वयं राजा बन गया।

जब चित्तौड़ और आहड़ पर कुमारसिंह का अधिकार हो गया तो सामंतसिंह ने वागड़ के क्षेत्र में जाकर नया राज्य स्थापित किया जो बाद में डूंगरपुर राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी डूंगरपुर राज्य में से, आगे चलकर बांसवाड़ा राज्य का निर्माण हुआ। राणा शाखा इस काल में सीसोद की जागीरदार बनी रही।

ई.1195 में मुहम्मद गौरी के सूबेदार कुतुबुद्दीन ऐबक ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण किया, उसे सफलता पूर्वक परास्त कर दिया गया। ई.1201 में दिल्ली का सुल्तान शम्सुद्दीन भी चित्तौड़ पर चढ़कर आया। उसे भी चित्तौड़ ने परास्त कर दिया।

चित्तौड़ का वैभव चरम पर

राजा कुमारसिंह के वंश में जैत्रसिंह नामक प्रतापी राजा हुआ। वह अपनी राजधानी आहड़ से चित्तौड़ ले आया। उसने ई.1213 से 1252 तक चित्तौड़ पर शासन किया। उसके गद्दी पर बैठने से पहले ही ई.1206 में दिल्ली में मुसलमानों की सत्ता स्थापित हो चुकी थी तथा सम्पूर्ण हिन्दू जाति की स्वतंत्रता खतरे में थी।

इस संकट काल में जैत्रसिंह का चित्तौड़ की गद्दी पर आसीन होना हिन्दू जाति एवं भारत राष्ट्र के लिये सौभाग्य की बात थी। चीरवा से प्राप्त शिलालेख में कहा गया है- ‘जैत्रसिंह शत्रु राजाओं के लिये प्रलयमारुत के सदृश था, उसको देखते ही किसका चित्त न कांपता? मालवा वाले, गुजरात वाले, मारव (मारवाड़) निवासी और जांगल देश वाले, तथा म्लेच्छों का अधिपति (सुल्तान) भी उसका मानमर्दन न कर सका।

जैत्रसिंह का पुत्र तेजसिंह ई.1252 में मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने परमभट्टारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर के विरुद धारण किये। उसे धौलका के बघेल राजा वीरधवल का आक्रमण झेलना पड़ा जिसमें मेवाड़ को हानि उठानी पड़ी किंतु इस युद्ध के बाद तेजसिंह की राजनीतिक प्रतिष्ठ बढ़ गई जिसके कारण उसने चौलुक्यों की भांति ‘उभापतिवर-लब्ध-प्रौढ़-प्रताप’ विरुद धारण किया। उसके काल में गयासुद्दीन बलबन ने रणथम्भौर, बूंदी तथा चित्तौड़ पर आक्रमण किये किंतु तेजसिंह की शक्ति ने उसे पीछे धकेल दिया।

तेजसिंह के बाद भी मेवाड़ के राणाओं को निरंतर मुसलमानों से युद्ध करने पड़े। इन युद्धों के परिणाम स्वरूप, चौदहवीं शताब्दी के आगमन तक चित्तौड़ के गुहिल, मुसलमानों को पूरी तरह अपने राज्य से दूर रखने में सफल हुए। तेजसिंह के पुत्र समरसिंह के समय में (ई.1285 से पूर्व के किसी वर्ष में) गयासुद्दीन बलबन की सेना ने गुजरात पर आक्रमण किया। समरसिंह ने उस सेना को परास्त करके भगा दिया।

आबू शिलालेख में कहा गया है कि समरसिंह ने तुरुष्क रूपी समुद्र में गहरे डूबे हुए गुजरात देश का उद्धार किया। अर्थात् मुसलमानों से गुजरात की रक्षा की। समरसिंह के समकालीन जिनप्रभ सूरि ने तीर्थकल्प में लिखा है कि अलाउद्दीन खिलजी का सबसे छोटा भाई उलूगखान ई.1299 में गुजरात विजय के लिये निकला। चित्तकूड़ (चित्तौड़) के स्वामी समरसिंह ने उसे दण्ड देकर मेवाड़ देश की रक्षा की।

चित्तौड़ दुर्ग का पतन

गुहिल वंश के राजाओं को मेवाड़ पर शासन करते हुए 550 वर्ष से अधिक समय हो गया था जब ई.1302 में रावल समरसिंह का पुत्र रत्नसिंह मेवाड़ का राजा हुआ। रावल रत्नसिंह को चित्तौड़ का शासक बने हुए कुछ ही महीने हुए थे कि दिल्ली सल्तनत के सबसे शक्तिशाली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने ई.1303 में चित्तौड़ पर आक्रमण किया। चित्तौड़, अपने पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा दिल्ली के सुल्तानों, चौहानों, चौलुक्यों एवं परमारों पर विजय प्राप्त कर लेने से उत्साहित था। अतः चित्तौड़ ने पूरी शक्ति से अलाउद्दीन खिलजी का प्रतिरोध किया।

आठ महने की घेराबंदी के बाद भी अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ दुर्ग को नहीं जीत सका। चित्तौड़ का दुर्ग जीते बिना अलाउद्दीन खिलजी, दक्षिण भारत की ओर के अभियानों पर नहीं जा सकता था। इसिलये मित्रता का झांसा देकर छल-बल से राजा रत्नसिंह को बंदी बनाया गया तथा महारानी पद्मिनी के समर्पण की मांग की गई। महारानी के स्थान पर गोरा-बादल ने, शत्रु के बीच पहुंचकर अपने राजा को मुक्त कराया। इसके बाद युद्ध अपने चरम पर पहुंच गया।

तुर्कों की सेना टिड्डी दलों की तरह पूरे दुर्ग को घेर कर प्रतिदिन मारकाट मचाती थी। क्षत्रिय सैनिक दिन प्रतिदिन छीजने लगे। इस पर महारानी पद्मिनी के नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों और बच्चों ने जौहर की धधकती ज्वाला में प्राण उत्सर्ग कर दिये। मेवाड़ के सैनिक, दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सेना पर काल बनकर टूट पड़े किंतु किले का पतन हो गया। यह चित्तौड़ दुर्ग का पहला साका था। इस घेरे में चित्तौड़ की रावल शाखा के समस्त वीरों के काम आ जाने से चित्तौड़ की रावल शाखा का अंत हो गया।

खिज्र खां का कहर

खिज्र खां ने चित्तौड़ दुर्ग के मंदिरों को नष्ट कर दिया और उनमें लगे देव-विग्रहों, शिलालेखों तथा पत्थरों का वहाँ से उठवाकर गंभीरी नदी के तट पर डलवाया तथा उस सामग्री से नदी पर एक पुल बनवाया। इस पुल में लगे एक शिलालेख में महाराण जयतल्लदेवी का उल्लेख है। एक शिलालेख वि.सं. 1324 का महारावल तेजसिंह के समय का है। पुल से कुछ दूर दक्षिण में शंकरघट्टा नामक स्थान है जहाँ से वि.सं.770 का मान मोरी का एक शिलालेख एवं कई मूर्तियां मिली हैं।

चित्तौड़ पर महाराणाओं का अधिकार

चित्तौड़ दुर्ग पर शासन करने वाली गुहिलों की रावल शाखा का अंत हो चुका था और चित्तौड़ दुर्ग पर दिल्ली सल्तनत के अधिकार को लगभग 20 वर्ष का समय हो चला था। गुहिलों की एक शाखा सीसोदा की जागीरदार थी। एक दिन सिसोदिया शाखा के राणा हमीर ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। इसके बाद चित्तौड़ पर गुहिलों की राणा शाखा का अधिकार हो गया।

चित्तौड़ का अमर वैभव

चित्तौड़ के गुहिलों की राणा शाखा में एक से बढ़कर एक राजा हुआ। ऐसे वीर, दानी, उदार, विद्वान, देश-प्रेमी, मानवतावादी और बलिदानी राजा धरती भर में शायद ही कहीं देखे गये। महाराणा कुम्भकर्ण (1433-68 ई.) चित्तौड़ का सर्वाधिक प्रतिभा सम्पन्न राजा हुआ। भारत के इतिहास में वह महाराणा कुम्भा के नाम से प्रसिद्ध है। जिस समय वह मेवाड़ का शासक बना, उस समय उसकी आयु केवल 6 वर्ष थी।

मेवाड़ के 84 किलों में से 32 किले कुम्भा ने बनवाये। उसने चित्रकूट दुर्ग (चित्तौड़ दुर्ग) को अद्भुत स्वरूप प्रदान किया। उसमें अनेक शिखर बनावाये, तलहटी से दुर्ग तक जाने के लिये रथमार्ग बनवाया। दुर्ग में रामपोल, हनुमान पोल, भैरवपोल, महालक्ष्मी पोल, चामुण्डा पोल, तारापोल और राजपोल नामक दरवाजों का निर्माण करवाया। कुम्भा ने कुंभस्वामी और आदिवराह के मंदिर, रामकुंड, जलयंत्र (रहट) सहित कई बावड़ियां तथा तालाब बनवाये।

राठौड़ राजा ने जलाये चित्तौड़ दुर्ग के दरवाजे

जोधपुर नगर के संस्थापक एवं राठौड़ों के महान राजा राव जोधा के पिता रणमल की हत्या कुम्भा के संकेत पर चित्तौड़ दुर्ग में हुई थी। इसके बाद कुम्भा ने मण्डोर राज्य को 15 साल तक अपने अधीन रखा। जोधा ने 15 साल तक अथक प्रयास करके अपने पिता का खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त किया। राज्य प्राप्त करके भी वह अपने पिता के अपमान को नहीं भूला। कई ख्यातों में लिखा है कि जोधा ने मेवाड़ पर धावा करके चित्तौड़ दुर्ग के किवाड़ जला दिये तथा जिस महल में राव रणमल की हत्या हुई थी, वहाँ पहुंचकर जोधा ने रणमल को नमन किया। जोधा के समकालीन कवि गाडण पसाइत ने अपनी रचना गुण जोधायण में लिखा है-

बलो प्रबत लंघीयो चडे पाषरीये घोड़े।

जाए दीना घाव, कोट चीत्रोड़ किमाड़े।

बोल ढोल बोलीयो, च्यार श्रमणे उत सुंणिया।

कूंभनेर नारीयां ग्रभ पेटा हूं छणिया।

चीतोड़ तणे चूण्डाहरा किमांणे पराजालीये।

जोहार जाय जोधे कियो, राव रिणमल मालीये।।

इसके बाद जोधा, मेवाड़ के गांवों को लूटता हुआ पीछोला झील तक जा पहुंचा।  रामचंद ढाढी ने अपनी रचना निसाणी में लिखा है- ‘जोधे जंगम आपरा पीछोले पाया।’

नैणसी ने लिखा है- ‘पछै मेवाड़ मारने पीछोलै घोड़ा पाया।’

कृतघ्न बहादुरशाह को शरण

24 मई 1503 को गुहिल वंश का सबसे प्रतापी, वीर और प्रभावशाली महाराणा संग्रामसिंह चित्तौड़ की गद्दी पर सुशोभित हुआ। पूरे 23 साल तक वह मालवा, दिल्ली एवं गुजरात के मुस्लिम शासकों से युद्ध करता रहा। ई.1520 के बाद किसी समय गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह का पुत्र बहादुरशाह अपने दो भाइयों चांदखां तथा इब्राहीमखां के साथ महाराणा की शरण में आया। महाराणा ने इन तीनों शहजादों को चित्तौड़ दुर्ग में रखा। सांगा की माता जो हलवद के राजा की पुत्री थी, बहादुरशाह को अपना बेटा कहा करती थी।

एक बार बहादुरशाह तथा राणा सांगा के भतीजे के बीच झगड़ा हो गया जसमें सांगा का भतीजा मारा गया। जब राणा के राजपूत, बहादुरशाह को मारने लगे तब राजमाता ने बहादुरशाह के प्राणों की रक्षा की। जब मुजफ्फरशाह मर गया तब उसका पुत्र सिकंदरशाह गुजरात का सुल्तान हुआ। उसने अपने सेनापति मलिक लतीफ को चित्तौड़ पर आक्रमण करने भेजा। लतीफ ने दुर्ग पर आक्रमण किया किंतु बुरी तरह हारकर भाग गया। उसके 1700 सैनिक चित्तौड़ दुर्ग के बाहर मारे गये। आगे चलकर यही बहादुरशाह, गुजरात का सुल्तान हुआ जिसने चित्तौड़ दुर्ग का मान-मर्दन किया।

चित्तौड़ की अधूरी आस

ई.1526 में जब बाबर ने भारत पर आक्रमण करके दिल्ली और आगरा को धूल में मिला दिया तो चित्तौड़ एक बार पुनः धरती पर चढ़कर आये शत्रु का सामना करने के लिये आगे आया। महाराणा सांगा आम्बेर, ईडर, मेड़ता, जोधपुर, डूंगरपुर, देवलिया, बीकानेर, अंतरवेद, नरबद, अलवर सहित अनेक राजाओं तथा सामंतों की सेनाएं लेकर खानवा के मैदान में लड़ने के लिये आया तथा दुर्भाग्य से घायल होकर बेहोश हो गया। सांगा के सरदार उसे युद्ध क्षेत्र से बाहर ले गये।

होश में आने पर सांगा फिर से बाबर से युद्ध करने का अवसर ढूंढने लगा। जब कुछ माह बाद बाबर ने चंदेरी पर आक्रमण किया तो सांगा ने चंदेरी पहुंचकर युद्ध करने का निर्णय लिया। सांगा के कुछ सरदारों को सांगा का यह युद्ध-प्रेम अच्छा नहीं लगा और उन्होंने धोखे से सांगा को विष दे दिया। सांगा की वहीं मृत्यु हो गई। सांगा ने बाबर की सेना से एक भारी-भरकम तोप छीनी थी जो अब भी नौलखा की दीवार के पास पड़ी हुई देखी जा सकती है।

चित्तौड़ की दीवारों में बारूद

सांगा की मृत्यु के बाद नवम्बर 1532 में गुजरात का सुल्तान बहादुरशाह चित्तौड़ पर चढ़कर आया। किसी समय सांगा ने ही उसके प्राणों की रक्षा की थी और इसी चित्तौड़ दुर्ग ने उसे शरण दी थी किंतु समय बदल चुका था। चित्तौड़ की सारी शक्ति खानवा के मैदान में नष्ट हो चुकी थी तथा दुर्भाग्य से चित्तौड़ का नया महाराणा विक्रमादित्य एक निकम्मा शासक था। फिर भी राजमाता कर्मवती के निमंत्रण पर मेवाड़ी सरदार चित्तौड़ दुर्ग की रक्षा के लिए आगे आए। 

चित्तौड़ पहुंच सकने वाले सैनिकों की संख्या इतनी कम थी कि वे किसी भी तरह बहादुरशाह की सेना का सामना नहीं कर सकते थे। इसलिये महाराणा विक्रमादित्य तथा उसके छोटे भाई कुंवर उदयसिंह को दुर्ग से बाहर (संभवतः उनके ननिहाल बूंदी) भेज दिया गया।

बहादुरशाह के सैनिकों ने 45 गज की लम्बाई में दुर्ग की दीवार को बारूद से उड़ा दिया। इसके बाद दोनों पक्षों में हुए युद्ध में मेवाड़ की पराजय हो गई तथा कई हजार हिन्दू सैनिक मारे गये। 3 मार्च 1535 को चित्तौड़ पर बहादुरशाह का अधिकार हो गया। दुर्ग में स्थित हिन्दू स्त्रियों ने राजमाता कर्मवती के नेतृत्व में जौहर किया। यह चित्तौड़ दुर्ग का दूसरा साका था। कुछ समय बाद बहादुरशाह गुजरात चला गया। महाराणा विक्रमादित्य तथा कुंवर उदयसिंह पुनः दुर्ग में आ गये।

चित्तौड़ दुर्ग पर शेरशाह सूरी का अधिकार

ई.1537 में चित्तौड़गढ़ दुर्ग को अपने निकम्मे शासक विक्रमादित्य से मुक्ति मिल गई तथा उदयसिंह नया महाराणा हुआ। चित्तौड़ का दुर्ग बुरी तरह नष्ट किया जा चुका था किंतु मेवाड़ियों ने उसे फिर से खड़ा कर लिया। ई.1543 में शेरशाह सूरी ने चित्तौड़ के विरुद्ध अभियान किया। जब वह चित्तौड़ से 12 कोस दूर रह गया, तब उदयसिंह ने चित्तौड़ दुर्ग की चाबियां शेरशाह को भिजवा दीं। शेरशाह चित्तौड़ आया और उसने मियां अहमद सरवानी को दुर्ग का शासक नियुक्त किया। शम्सखान नाम-मात्र का शासक था। राज्य का वास्तविक प्रशासन उदयसिंह के हाथों में ही रहा। ई.1545 में शेरशाह की मृत्यु हुई तो अहमद सरवानी को चित्तौड़ से भगा दिया गया।

चित्तौड़ की दीवारों में पुनः बारूद

ई.1567 में मुगल बादशाह अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। महाराणा उदयसिंह अपने परिवार को लेकर फिर से जंगलों में चला गया। दुर्ग की रक्षा का भार जयमल राठौड़ तथा फत्ता सिसोेदिया को सौंपा गया। अकबर ने दुर्ग नीवों में बारूद भरकर बाहरी दीवार के एक हिस्से को उड़ा दिया। इससे दुर्ग की रक्षा कर पाना असंभव हो गया। अतः हिन्दू औरतों एवं कन्याओं ने जौहर किया तथा हिन्दू वीरों ने केसरिया धारण करके साका किया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में कत्ले आम

हिन्दू सेना के नष्ट होने जाने के बाद‘अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग में कत्लेआम करवाया। दुर्ग में रहने वाले निरीह सेवकों और उनके बच्चों को बेरहमी से काट दिया गया जिससे दुर्ग में एक भी हिन्दू जीवित नहीं बचा। 25 फरवरी 1568 को दोपहर के समय अकबर ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया और तीन दिन वहाँ रहकर अब्दुल मजीद आसफखां को दुर्ग का अधिकारी नियुक्त करके अजमेर की तरफ रवाना हुआ। जयमल और पत्ता को तो अकबर अपने अधीन नहीं कर सका किंतु उसने हाथियों पर चढ़ी हुई उनकी पाषाण प्रतिमाएं बनाकर आगरा दुर्ग के द्वार पर खड़ी करवाईं।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अकबर की राजनीति

ई.1567 में अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार किया। ई.1572 में महाराणा उदयसिंह की मृत्यु हो गई तथा उसने अपनी प्रिय रानी भटियाणी के पुत्र जगामल को मेवाड़ का महाराणा बनाया किंतु मेवाड़ के सरदारों ने जगमाल को अपना राजा स्वीकार नहीं किया तथा स्वर्गीय महाराणा उदयसिंह के बड़े पुत्र महाराणा प्रतापसिंह को महाराणा बनाया।

इस पर जगमाल अकबर की सेवा में पहुंचा। अकबर ने उसे चित्तौड़ का दुर्ग देकर मेवाड़ का महाराणा घोषित कर दिया। जगमाल ने चित्तौड़ दुर्ग में आकर मेवाड़ के सरदारों को आमंत्रित किया किंतु कोई भी सरदार उसकी तरफ नहीं गया। मेवाड़ी सरदारों में फूट डालने का अकबर का षडयंत्र विफल हो गया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में पुनः गुहिलों को वापसी

महाराणा प्रतापसिंह का बचपन चित्तौड़ दुर्ग में व्यतीत हुआ था किंतु महाराणा के रूप में वह इस दुर्ग में कभी प्रवेश नहीं कर सका। जब मुगलों द्वारा मेवाड़ को अधीन करने के सारे दुष्प्रयास विफल हो गए, तब ई.1615 में जहाँगीर ने चित्तौड़ दुर्ग एक संधि के तहत महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह को लौटा दिया। अमरसिंह मुगलों से हुई संधि के कारण इतना उद्विग्न हुआ कि वह राज्यकार्य से विमुख होकर वैरागी की तरह जीवन जीने लगा तथा राज्य का समस्त कार्य अपने पुत्र कर्णसिंह पर छोड़ दिया। भारत को आजादी मिलने तक यह दुर्ग महाराणाओं के ही अधीन रहा।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में निर्माण और विध्वंस

जहांगीर के साथ हुई संधि में निश्चित हुआ था कि महाराणा चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत नहीं करायेगा। पचास साल तक दुर्ग में कोई कार्य नहीं किया गया। महाराणा जगतसिंह ने ई.1654 में चित्तौड़ दुर्ग में मरम्मत कार्य आरम्भ कर दिया। इस पर शाहजहाँ 4 अक्टूबर 1654 को अजमेर की जियारत के लिये रवाना हुआ। अजमेर से उसने अपने वजीर सादुल्लाखां को 30 हजार सैनिक देकर चित्तौड़ दुर्ग को ढहा देने के लिये भेजा। उसके साथ 1500 बंदूकची भी रवाना किए गये। महाराणा जगतसिंह ने इस समय लड़ाई करना उचित नहीं समझ कर अपने सैनिकों को चित्तौड़ से हटा लिया। सादुल्लाखां 15 दिन चित्तौड़ में रहा तथा वहाँ के बुर्जों और कंगूरों को गिराकर वापस लौट गया।

आज भी सिर चढ़कर बोलता है दुर्ग का वैभव

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का ऐतिहासिक वैभव 21वीं सदी में भी पर्यटकों के सिर चढ़कर बोलता है। दुनिया भर से पर्यटक चित्तौड़ आते हैं। इस दुर्ग की कहानियों का अंकन सिनेमा के रुपहले चित्रपट पर भी खूब हुआ। सुप्रसिद्ध फिल्म गाइड के गीत ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ के कुछ दृश्य इसी दुर्ग में शूट किए गये।

कविताओं में चित्तौड़गढ़ दुर्ग

मेवाड़ के प्राचीन सिक्कों में चित्तौड़गढ़ दुर्ग का उल्लेख इस प्रकार हुआ है-

असौ शिरो मंडनम् चंद्रतारं विरचेत कुटं किल चित्रकूट।

एक कवि ने चित्तौड़ दुर्ग की प्रशंसा इन शब्दों में की है-

      सीधी सीढ़ी सुरग री जिण री कोय न जोड़

      गढ़ सिरोमणी जय गिणै औ वो हि चित्तौड़।

      आवे ने सोनों औल में, हुए न चांदी होड़

रगत थाप मंदी रहीं, माटी गढ़ चित्तौड़।

जिण अजोड़ राखी जुड़्या मेवाड़ा सूं भरोड़।

किलां मोड़ बिलमा तणूं चित्त तोड़ण चित्तौड़।

मैथिली शरण गुप्त ने लिखा है-

आज भी चित्तौड़ का सुन नाम कुछ जादू भरा

चमक जाती चंचला सी चित्त में करके त्वरा।

एक कवि ने लिखा है-

जय-जय चित्तौड़ महान्!

तेरे कण-कण में जीवन है, मूर्तिमान तू नव यौवन है

प्रलय भरी तेरी चितवन है, तू आंधी है तू तूफान।

तेरी उन्नत रक्त निशानी, वज्र घोष है तेरी वाणी।

तेरी तलवारों का पानी, तृप्त कर रहा रण के प्राण।

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