गोगून्दा दुर्ग काफी बड़ा है किंतु अब जर्जर अवस्था में है। यह महत्वपूर्ण दुर्ग था। इसका निर्माण किसने किया, इसके बारे में तो जानकारी नहीं मिलती किंतु अनुमान लगाया जा सकता है कि चूंकि इस क्षेत्र पर गुहिलों का कई सौ सालों तक शासन रहा, इसलिए इस दुर्ग का निर्माण गुहिलों की ही किसी शाखा ने किया होगा।
गोगून्दा दुर्ग में प्रवेश करते ही घुड़साल तथा हाथियों के बांधने के ठाण बने हुए हैं। एक ओर गढ़ कचहरी है। सामने के प्राचीन महलों में ड्यौढ़ी, जनाना महल, राजपरिवार का मंदिर आदि विद्यमान हैं। गढ़ के एक ओर शस्त्रागार बना हुआ है जो अब खण्डहर रूप में है। तीन मंजिले महलों की छत से पूरा गोगूंदा कस्बा दिखाई देता है।
गोगून्दा में अनेक ऐतिहासिक स्मारक हैं जिनमें तालाब के किनारे की राजाओं की छतरियां, मंदिर तथा बावड़ियां प्रमुख हैं। गोगून्दा दुर्ग से कुछ ही दूर एक पहाड़ी पर महाराणा की मेडी नामक स्थान है जहाँ महाराणा प्रताप ने गोगून्दा हाथ से निकल जाने पर आश्रय लिया था। गांव से एक किलोमीटर दूर एक पक्की बावड़ी है जिसके किनारे पर महाराणा प्रताप का राजतिलक किया गया था। रियासती काल में गोगूंदा झाला राजपूतों का प्रथम श्रेणी का ठिकाणा था जिन्हें राज की उपाधि प्राप्त थी।
चित्तौड़ दुर्ग हाथ से निकल जाने के बाद महाराणा उदयसिंह कुंभलगढ़ में रहा करते थे। ई.1572 में वह कुंभलगढ़ से गोगूंदा आए। दैववश् 15 फरवरी 1572 को गोगूंदा में ही उसका देहांत हुआ जहाँ उसकी छतरी बनी हुई है। हल्दीघाटी युद्ध से पहले अकबर के प्रतिनिधि कुंवर मानसिंह तथा राजा टोडरमल, गोगून्दा दुर्ग में ही महाराणा प्रताप से मिले थे।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने मानसिंह कच्छवाहा के नेतृत्व वाली मुगल सेना को गोगून्दा की घाटी में चार माह के लिये बंदी बना लिया था। जब मानिंसंह की सेना किसी तरह प्रताप के सैनिकों से बचकर अजमेर चली गई तब महाराणा प्रताप गोगूंदा के दुर्ग में रहने लगे।
जब अकबर स्वयं सेना लेकर गोगून्दा के लिये रवाना हुआ तो महाराणा प्रताप गोगून्दा का दुर्ग छोड़कर घने पहाड़ों में चले गये। अकबर ने गोगूंदा पहुँचकर कुतुबुद्दीन खाँ, राजा भगवंतदास और कुंवर मानसिंह को राणा के पीछे पहाड़ों में भेजा। जहाँ-जहाँ वे गये, वहाँ-वहाँ महाराणा उन पर हमला करता रहा। अंत में उन्हें परास्त होकर अकबर के पास लौटना पड़ा। अकबर ने गोगूंदा पर शाही थाना बैठा दिया। कुछ ही दिनों बाद प्रताप ने शाही थाना उठा दिया।
अकबर ने शाहबाज खाँ को महाराणा की तलाश में कुंभलगढ़ पर आक्रमण करने भेजा किंतु महाराणा वहाँ भी नहीं मिला तो शाहबाज खाँ ने अगले दिन दोपहर में गोगूंदा पर आक्रमण किया। महाराणा को वहाँ भी न पाकर शाहबाज खाँ आधी रात को उदयपुर में घुस गया और वहाँ भारी लूटपाट मचाई किंतु महाराणा वहाँ भी नहीं था।
महाराणा इस दौरान गोड़वाड़ क्षेत्र में स्थित सूंधा के पहाड़ों में चला गया। कुछ दिन बार गोगूंदा लौटकर आया और गोगूंदा से 16 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित ढोल गांव में रहा। तत्पश्चात् महाराणा, तीन वर्ष तक गोगूंदा से पांच किलोमीटर दूर बांसड़ा गांव में रहा। इस प्रकार महाराणा प्रताप के समय गोगूंदा मेवाड़ की राजनीति का प्रमुख केन्द्र बन गया।
महाराणा प्रताप के पुत्र महाराणा अमरसिंह (प्रथम) ने कुछ समय के लिये गोगून्दा दुर्ग को अपनी राजधानी बनाया। बाद में जब अमरसिंह के पुत्र कर्णसिंह तथा जहांगीर के पुत्र खुर्रम में मित्रता हो गई तब खुर्रम अपना जन्मदिन मनाने के लिये कुछ समय गोगूंदा आकर रहा। इस संधि के बाद महाराणा अमरसिंह ने यह दुर्ग एवं जागीर देलवाड़ा के पूर्व झाला जागीरदार शत्रुशाल के वंशज कान्हसिंह को प्रदान की। महाराणा राजसिंह (प्रथम) भी कुछ काल के लिये गोगून्दा दुर्ग में रहे।
-डॉ. मोहन लाल गुप्ता