खींची चौहानों के ठिकाणे पूरे उत्तर भारत में बिखरे हुए थे जिनसे ज्ञात होता है कि यह एक वीर वंश था जो शस्त्रों के बल पर पूरे देश में अपनी धाक रखता था।
चौहानों की उत्पत्ति छठी शताब्दी ईस्वी में सांभर झील के आसपास मानी जाती है। इस कारण सांभर, नागौर एवं अजमेर में चौहानों के बड़े राज्य स्थापित हुए। जब ई.1192 में अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का पतन हो गया, तब चौहानों की शक्ति को बड़ा धक्का लगा किंतु अगले कई सौ साल तक चौहानों की शक्ति मुसलमानों को चुनौती देती रही। दिल्ली सल्तनत के काल में रणथंभौर, नाडौल तथा जालोर आदि में चौहानों के बड़े राज्य अस्तित्व में थे।
लाखनराव के पुत्र खींवराज के वंशज खींची चौहान कहलाए। राजस्थान और मध्यप्रदेश के बीच का क्षेत्र जिसकी सीमाएं हाड़ौती से लगती हैं, खींचीवाड़ा कहलाता था क्योंकि खींचियों का बड़ा राज्य उसी क्षेत्र में स्थापित हुआ। खींची चौहानों की राजधानी गढ़ गागरौन थी जिसे गुग्गर तथा गुगोर भी कहते थे।
तुर्कों के काल में सांभर, अजमेर, नाडौल एवं जालोर के चौहान राज्यों का तथा मुगलों के काल में रणथम्भौर के चौहान राज्य का पतन हो जाने के पश्चात् भी सांचौर, गुजरात, मालवा एवं उत्तर प्रदेश में चौहानों के बहुत से छोटे-छोटे ठिकाने अस्तित्व बनाए रखने में सफल रहे। इनमें से बहुत से खींची चौहानों के ठिकाणे थे।
मुगलों के समय में गागरौन के खींची शासक पीपाजी गागरौन दुर्ग के राजा थे। उन्होंने अपना राज्य अपने भाई अचलदास खींची को देकर संन्यास ग्रहण कर लिया था। इस काल में गागरौन, राघवगढ़, धरानावदा, गढ़ा, नया किला, मकसूदनगढ़, मावागढ़, अशोधर (जिला फतहपुर) आदि स्थानों पर खींचियों के राज्य अस्तित्व में थे। मध्यपप्रदेश के खिलचीपुर में भी इनका बड़ा राज्य था। अकबर से लेकर अंग्रेजों के आममन तक बूंदी, कोटा, झालावाड़ आदि में भी खींचियों के राज्य रहे। अकबर के शासन काल तक खींची शक्तिशाली थे किन्तु अकबर के बाद खीचियों का राजनैतिक प्रभुत्व कम होने लगा।
17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में खीचियों के चांपानेर (पावागढ़) मांडवा-सणोरगढ़ बोरियाद, देवगढ़ बारीया, छोटा उदयपुर, गागरोन, राघोगढ़ (खींचीवाड़ा) मकसूदनगढ़, चोंचोड़ा, खिलचीपुर, गाजीपुर-आसोथर आदि खींची चौहानों के ठिकाणे विद्यमान थे।
मुगलों के पतन के साथ-साथ मराठों का उत्थान हुआ। उस समय खीचियों ने कभी मराठों का पक्ष लेकर तथा कभी उनका विरोध करके अपनी राजनीतिक शक्ति को बनाए रखा। खींची-मराठा संघर्ष के फलस्वरूप इन दोनों का ही ह्रास हुआ तथा अंग्रेजों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला।
ब्रिटिश शासन के अधीन कोटा, बूंदी तथा सिरोही आदि में चौहानों के राज्य अस्तित्व में थे।
इस काल में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर एवं बीकानेर आदि रियासतों में खींची सरदार एवं सामंत विद्यमान रहे। जोधपुर नरेश अजीतसिंह की रक्षा करने में मुकन्ददास खींची का विशेष योगदान रहा।
राघोगढ़ के खींची राजा बलभद्र सिंह ने पेशवा बाजीराव के साथ रहकर लगभग दो दशक से भी अधिक समय तक मराठों की सेवा की। नागौर दुर्ग के घेरे के समय जयअप्पा सिंधिया की सेना में खींची सरदार भी उपस्थित थे। मारवाड़ के महाराजा विजयसिंह के काल में गोवर्धन खींची ने मारवाड़ राजवंश की अनुपम सेवा की।
महादजी सिंधिया और राघोगढ़ के खींची सरदार बलवन्तसिंह एवं जयपुर के कच्छवाहा राजकुमार जयसिंह के मध्य संघर्ष हुआ। प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध में राघोगढ़ के राजा बलवन्तसिह खींची ने अंग्रेजों की सहायता की। खीचियों ने द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध में भी मराठों के विरुद्ध अग्रेजों की मदद की थी। तत्पश्चात् मराठों का पतन हो गया और अंग्रेजों की सत्ता सर्वत्र स्थापित हो गई।