कोषवर्द्धन दुर्ग को शेरगढ़ दुर्ग भी कहते हैं। यह जिला मुख्यालय बारां से 65 किलोमीटर दूर, अटरू तहसील में परवन नदी के बायें किनारे की पहाड़ी चोटी पर निर्मित है।
दुर्ग की स्थापना
कोषवर्द्धन दुर्ग की स्थापना कब हुई, इस सम्बन्ध में अब कुछ भी तथ्य ज्ञात नहीं हैं किंतु दुर्ग की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मूलतः यह एक परवर्ती र्मार्य कालीन दुर्ग था। सातवीं शताब्दी ईस्वी में इस दुर्ग के होने के प्राचीनतम प्रमाण मिलते हैं।
दुर्ग का नामकरण
सातवीं शताब्दी में यह कोषवर्द्धन दुर्ग के नाम से विख्यात था। इस दुर्ग को अब शेरगढ़ के नाम से जाना जाता है।
दुर्ग की श्रेणी
कोषवर्द्धन दुर्ग, गिरि दुर्ग तथा एरण दुर्ग की श्रेणी में आता है।
दुर्ग का स्थापत्य
सम्पूर्ण कोषवर्द्धन दुर्ग मोटी प्राचीर से घिरा हुआ है। इसमें प्रवेश करने के लिये बरखेड़ी का दरवाजा बना हुआ है। इसी दरवाजे की बाईं ओर की ताक में नौवीं शताब्दी का शिलालेख लगा हुआ है।
किसी समय इस दुर्ग में पाटनवालों की हवेली, पिण्डारी अमीर खां की हवेली (बाद में इसे टोंक नवाब की हवेली कहने लगे), अमीर खां की बेगमों की हवेलियां, ब्राह्मणों के रामद्वारे और ब्रह्मपुरियां स्थित थीं। ये सब इमारतें अब नष्ट हो चुकी हैं।
दुर्ग परिसर में बहुत सारे मंदिर स्थित हैं जिनमें से अब केवल आठ मंदिरों में सेवा-पूजा होती है। एक दर्जन मंदिरों में देव विग्रह नहीं हैं। चार जैन मंदिर भी विग्रह विहीन हैं। सात छतरियां सही स्थिति में हैं। लक्ष्मीनाथ मंदिर (तेलियों का मंदिर) एवं त्रिमूर्ति जैन मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं। कल्याणरायजी का मंदिर, गोपाल मंदिर, चतुर्भुज मंदिर तथा जोहरा-बोहरा मंदिर आज भी जीवन्त अवस्था में हैं।
नागवंशी राजाओं के अधिकार में
इस दुर्ग के निर्माताओं की जानकारी नहीं है किंतु नौवीं शताब्दी ईस्वी में इस दुर्ग पर नागवंशी राजाओं का अधिकार था जो संभवतः मेवाड़ के गुहिलों के अधीन रहकर शासन कर रहे थे। कोषवर्द्धन दुर्ग के बरखेड़ी दरवाजे के बाईं ओर की सीढ़ियों के नीचे की एक ताक में देवदत्त नामक बौद्ध मतानुयायी नागवंशी राजा का विक्रम 870 (ई.817) माघ सुदि 6 का शिलालेख लगा हुआ है। यह शिलालेख संस्कृत भाषा एवं सुन्दर लिपि में है। इसमें बौद्ध विहार के निर्माण का उल्लेख है।
परमारों के अधिकार में
शेरगढ़ में स्थित लक्ष्मी नारायण मंदिर में विक्रम संवत की ग्यारहवीं शताब्दी के दो शिलालेख लगे हुए हैं। इन शिलालेखों से अनुमान होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में यह दुर्ग परमारों के अधिकार में था।
मंदिर में प्राप्त शिलोलेखों में से एक में धार के परमार राजाओं की वाक्पति देव से महाराज उदयादित्य देव तक की वंशावली दी गई है। शेरगढ़ में ग्यारहवीं शताब्दी की तीन खण्डित जैन प्रतिमाएं भी हैं जो एक राजपूत सरदार की बनवाई हुई हैं। यहाँ से प्राप्त ग्यारहवीं शताब्दी के शिलालेखों में इस नगर का नाम कोषवर्द्धन लिखा हुआ है।
खीची चौहानों के अधिकार में
परमारों की डोड शाखा के बाद, यह दुर्ग चौहानों की खीची शाखा के अधीन हुआ।
मुसलमानों के अधिकार में
दिल्ली सल्तनत के काल में मालवा के सुल्तान ने इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ई.1542 में शेरशाह सूरी ने मालवा अभियान किया। मालवा विजय के बाद वह गागरोन होता हुआ रणथंभौर के लिये रवाना हुआ। मार्ग में उसने कोषवर्द्धन दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। शेरशाह ने यहाँ एक सैनिक छावनी स्थापित की तथा दुर्ग की मरम्मत भी करवाई। शेरशाह ने दुर्ग का नाम बदलकर शेगढ़ रख दिया। शेरशाह की मृत्यु के बाद इस दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हुआ।
हाड़ा चौहानों के अधिकार में
मुगल शासकों ने यह दुर्ग कोटा के शासकों को दे दिया। इस प्रकार यह चौहानों की हाड़ा शाखा के अधीन हुआ। कोटा महाराव भीमसिंह (प्रथम) (ई.1764-77) ने इस दुर्ग का नाम बरसाना रखा। उसके बाद से यह एक तीर्थ के रूप में विकसित हुआ। कोटा रियासत के फौजदार झाला जालिमसिंह ने इस दुर्ग में एक हवेली बनवाई जिसमें कोटा के शासक ठहरा करते थे। जब कोटा रियासत में पिण्डारियों का आतंक बढ़ गया, तब झाला जालिमसिंह ने पिण्डारियों से समझौता किया तथा उन्हें शेरगढ़ दुर्ग में रहने की अनुमति प्रदान की।
दुर्ग की वर्तमान स्थिति
इस दुर्ग की तीन दीवारें अब भी दिखाई देती हैं। सबसे बाहर की दीवार तथा प्राचीर एक साथ ही झाला जालिमसिंह द्वारा बनवाई गई थीं। बीच की दीवार शेरशाह की बनवाई गई अनुमानित होती है।
इस दीवार में लगे पत्थर में ग्यारहवीं शताब्दी की लिपि में एक वाक्यांश खुदा हुआ है। अनुमान होता है कि यह पत्थर किसी अन्य स्थान से उखाड़ कर यहाँ लाया गया है। अन्दर की दीवार के कुछ भग्नावशेष ही विद्यमान हैं। यह दीवार मिट्टी से बनी हुई थी तथा बाद में जीर्णोद्धर के समय कुछ पत्थर भी लगवा दिये गए थे। यह दीवार परमारों द्वारा बनवाये गये दुर्ग की मूल दीवार है।