Tuesday, December 3, 2024
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किराडू का परमार राज्य

किराडू का परमार राज्य काल के नेपथ्य में चला गया है किंतु इसकी कुछ ध्वनियां शिलालेखों एवं परमार शासकों द्वारा बनवाए गए मंदिरों में सुनाई देती हैं।

ई.648 में हर्षवर्द्धन की मृत्यु के बाद भारत से प्राचीन क्षत्रियों के राज्य कमजोर हो गए तथा उनका स्थान विदेशी शासक लेने लगे। तब समाज की रक्षा करने के लिए आबू पर्वत पर कोई यज्ञ किया गया तथा चार वीरों को समाज की रक्षा का कार्य सौंपा गया। इस यज्ञ से चौहान, चौलुक्य, परमार एवं प्रतिहार नामक चार वीर प्रकट हुए जिन्होंने राजपूत वंशों की स्थापना की।

भारतीय इतिहासकार इन्हें प्राचीन क्षत्रियों का वंशज मानते हैं किंतु विदेशी विद्वानों ने इन्हें प्राचीन क्षत्रियों एवं विदेशी सीथियनों के रक्त-मिश्रण से उत्पन्न माना है। डॉ. दशरथ शर्मा ने इन चारों राजपूत वंशों को ब्राह्मणों से उत्पन्न हुआ माना है।
परमारों के पूर्व पुरुष का नाम धूमराज बताया जाता है। परमार वंश आरम्भ में आबू पर्वत के आसपास दक्षिण के राष्ट्रकूटों के सामंतों के रूप में शासन करता था। बाद में यह यह राजवंश कन्नौज के प्रतिहारों का सामंत हो गया।

आठवीं शताब्दी ईस्वी में जब प्रतिहार अपने शत्रुओं से उलझ गए तब परमार सामंत अपना प्रभाव बढ़ाने लगे। धीरे-धीरे इन्होंने आबू, मारवाड़, सिंध, गुजरात, वागड़ तथा मालवा आदि प्रदेशों पर अपने राज्य स्थापित कर लिये। इनमें से आबू, जालोर, किराडू, मालवा तथा वागड़ के परमार अधिक प्रसिद्ध हुए।

समय के साथ परमारों की शाखाओं की संख्या भी बढ़ती चली गई। मूथा नैणसी की ख्यात में परमारों की 36 शाखाओं के नाम दिए गए हैं। कर्नल टॉड ने एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज में परमारों की 35 शाखाओं के नाम दिए हैं।

ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में किराडू भी परमारों का स्वतंत्र राज्य था किंतु किराडू को किसी भी इतिहासकार ने अलग राज्य नहीं माना है। कुछ इतिहासकारों ने पूर्णपाल के वि.सं.1099 के शिलालेख और किराडू के वि.सं.1218 के शिलालेख को एक ही राज्य के परमारों का मान कर दोनों जगह के नामों को लेकर एक वंशावली तैयार कर दी है जो कि सही नहीं है। क्योंकि पूर्णपाल का शिलालेख चन्द्रावती के परमार राज्य का है और किराडू का शिलालेख किराडू के परमार राज्य से सम्बन्धित है जो कि एक अलग राज्य था।

चन्द्रावती के राजा पूर्णपाल की प्रशस्ति से जो वंशावली बनती है वह इस प्रकार है। 1. उत्पल राज, 2. अरण्य राज, 3. कृष्ण राज, 4. महिपाल, 5. धनरुक, 6. पूर्णपाल। अब इस वंशावली में कुछ इतिहासकारों ने किराडू शिलालेख के धरणीवराह को भी नं. 3 व 4 के बीच में रखा है, इसे सही नहीं माना जा सकता।

यदि धरणीवराह को चंद्रावती की परमार वंशावली में रखा जाए तो किस औचित्य से किराडू शिलालेख के अन्य परमार राजाओं के नामों को छोड़ दिया गया है? इसी प्रकार चंद्रावती के शिलालेख के चौथे राजा महिपाल को किराडू शिलालेख के देवराज का उपनाम माना गया है, यह भी गलत है क्योंकि देवराज के प्रपौत्र कृष्णराज के शिलालेख से जो वंशावली बनती है उससे पूर्णपाल की इस वंशावली का कोई सम्बन्ध नहीं है।

चंद्रावती अथवा आबू की परमार वंशावली के लिए दूसरा महत्वपूर्ण लेख आबू पर वास्तुपाल तेजपाल की प्रशस्ति है जो वि.सं.1287 की है। उसमें आबू के मूल पुरुष का नाम धूमराज लिखा है तथा धन्धुक से वंशावली आरम्भ की है जो इस प्रकार है – 1. घन्धुक, 2. ध्रुवभट, 3. रामदेव, 4. यशोधवल, 5. धारावर्ष, 6. धारावर्ष का छोटा भाई पहलादन देव, 7. धारावर्ष का पुत्र सोमदेव 8. कृष्णराज।

आबू के शिलालेखों से अनुमान होता है कि आबू के परमार राजाओं का मूल पुरुष धूमराज था, परन्तु पूर्णपाल की प्रशस्ति में सबसे प्रथम नाम उत्पलराज का है और ऐतिहासिक वंशावली उसी से आरम्भ होती है। इस उत्पलराज को इतिहासकारों ने धार के परमार राज पृथ्वीवल्लभ मुन्ज का दूसरा नाम माना है; उसकी राजधानी धारानगरी में थी।

पृथ्वीवल्लभ मुन्ज की मृत्यु ई.995 से 997 के बीच हुई थी इसलिये इसी तिथि को उत्पलराज की अंतिम तिथि मानकर आबू के परमारों के इतिहास की तिथियाँ स्थिर की जाती हैं, परन्तु यह ठीक नहीं है। न तो उत्पलराज और पृथ्वीवल्लभ मुन्ज एक थे और न उत्पलराज और पृथ्वीवल्लभ मुन्ज एक ही समय में हुए थे।

वि.सं.1218 के सोमेश्वर के शिलालेख के आधार पर इतिहासकारों ने किराडू की वंशावली को आबू के परमारों के साथ मिलाया है, वह सही नहीं है। अब तक किराडू को किसी इतिहासकार ने परमारों की राजधानी नहीं माना है परन्तु किराडू अवश्य ही अलग परमार राज्य की राजधानी रही थी। किराडू को राजधानी मानने के निम्नलिखित आधार हैं-

1. वि.सं.1218 के लेख में सोमेश्वर ने अपनी वंशावली के प्रथम पुरुष सिंधुराज को (शभूंन मरुमन्डले) लिखा है। चन्द्रावती एवं भीनमाल उस समय मरुमण्डल में न होकर गुर्जर भूमि में माने जाते थे।

2. दोहाद में चौलुक्य सिद्धराज जयसिंह के वि.सं.1196 के लेख में भी यह लिखा है कि सिद्धराज ने सहायता दी, फिर भी किराटकूप नृप हार गया। इससे स्पष्ट है कि किराटकूप में कोई अलग नृप था और उसकी अलग राजधानी थी।

3. जालोर के चौहान कीर्तिपाल के लेख से भी ज्ञात होता है कि उसने किराटकूप के परमार आशल राज को हराया। इससे भी पता चलता है कि किराटकूप में परमारों की राजधानी थी।

4. वि.सं.1218 के किराडू के सोमेश्वर के शिलालेख में भी सोमेश्वर ने स्पष्ट लिखा है कि उसने दीर्घकाल तक किराटकूप में राज्य किया और उसके राज्य में शिवकूप और राढहरडा सम्मिलित थे।

5. परमारों की सोढ़ा एवं सांखला शाखाएं स्वयं को किराडू के राजाओं की वंशज मानती हैं।

6. मुहणोत नैणसी की ख्यात में किराडू को परमारों की राजधानी लिखा गया है।

7. मारवाड़ की परम्परा में परमारों का सबसे बड़ा राजा धरणीवराह माना गया है, उसकी राजधानी किराडू थी।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर किराडू परमारों का अलग राज्य होना सिद्ध होता है। इस आधार पर किराडू के परमारों की वंशावली इस प्रकार बनाई जा सकती है-

किराडू के परमारों में सबसे पहला नाम सिंधुराज का है। किराडू का राज्य इसी सिन्धुराज ने स्थापित किया और उससे ही किराडू के परमारों की वंशावली आरम्भ हुई। इस सिन्धुराज को कई इतिहासकारों ने धार के परमार शासक वाक्पतिराज का भाई माना है जो कि गलत है। धार का वाक्पतिराज और किराडू का सिंधुराज अलग-अलग व्यक्ति थे।

किराडू का सिंधुराज ई.940 से पहले का है जबकि धार का सिंधुराज ई.1000 के आसपास का है। किराडू के सिंधुराज के तीसरे वंशज धरणीवराह का समय भी धार के सिंधुराज से पहले का है। धरणीवराह का समय ई.996 के आस-पास है। इस प्रकार किराडू का सिंधुराज स्वतन्त्र किराडू का प्रथम राजा था।

किराडू के परमारों की सूची में दूसरा नाम दूशल है। कई इतिहासकारों ने इसको उशल पढ़ा है। सही नाम दूशल ही होना चाहिए क्योंकि इतिहास में दूशल, दूशलराज आदि नाम मिलते हैं, उशल नाम नहीं मिलते।

किराडू के परमारों की सूची में तीसरा नाम धरण्ीवराह एवं चौथा नाम देवराज है। देवराज के पुत्र का नाम नहीं पढ़ा जाता क्योंकि खण्डित है। देवराज के पोते का नाम कृष्णराज था। कृष्णराज का स्वयं का एक लेख वि.सं.1117 व 1123 (ई.1060 एवं 1066) का मिला है। उससे ज्ञात होता है कि उसके बड़े भाई दन्तीवर्मा ने भी राज्य किया था। दन्तीवर्मा के बाद, उसके पुत्र योगराज के जीवित होते हुए भी कृष्णराज को राज्य मिला, ऐसा कृष्णराज के शिलालेख से ज्ञात होता है।

कृष्णराज के पुत्र का नाम सोढराज था। शिलालेख में सोढराज के बाद उदयराज का नाम है। उदयराज के पुत्र का नाम सिंधुराज था। कुछ इतिहासकार इस सिंधुराज के नाम को आबू की वंशावली से मिलाते हैं परन्तु ऐसा करना सही नहीं है। श्लोक के आरम्भ में सिंधुराज भूपाल लिखा हुआ है। यह नाम सिद्धराज जयसिंह के दोहाद के वि.सं.1196 से भी ज्ञात होता है।

दोहाद शिलालेख के अनुसार किराडू के राजा सिंधुराज को सिद्धराज जयसिंह ने हराकर अपने कारागृह में बन्द कर दिया था। वास्तव में यह सिंधुराज किराडू की वंशावली का सिंधुराज द्वितीय है। सिंधुराज द्वितीय के बाद उदयराज द्वितीय किराडू का राजा हुआ। किराडू से मिली वंशावली के अनुसार उदयराज का पुत्र सोमेश्वर था।

जालोर के सोनगरा चौहान राज्य के संस्थापक कीर्तिपाल के लेख से ज्ञात होता है कि उसने किराटकूप के राजा आशलराज को हराया। यह घटना वि.सं.1230 से 1240 के बीच में घटी थी। इससे अनुमान होता है कि आशलराज सोमेश्वर का पुत्र या पौत्र रहा होगा। इसी आशलराज का एक शिलालेख कोटड़े के किले में देखा गया था जिसमें उत्कीर्ण वि.सं.123 के बाद का इकाई का अंक पढ़ने में नहीं आता। अतः इस शिलालेख को वि.सं.1230 से 1239 के बीच का माना जा सकता है। इस शिलालेख में ‘महामण्डलीक किराट कूप नृप श्री आशलदेव’ लिखा हुआ था।

इसी आशलदेव के समय वि.सं.1230 से 1240 (ई.1173 से 1183) के बीच किराडू पर चार आक्रमण हुए जिससे किराडू का परमार राज्य समाप्त हो गया। ई.1178 में मोहमद गौरी ने गुजरात की तरफ जाते समय किराडू पर हमला किया था। गुजरात के सोलंकियों के इतिहास से ज्ञात होता है कि इसी कालावधि में भीम सोलंकी (द्वितीय) ने भी किराडू पर हमला किया था।

जैसलमेर की ख्यातों से ज्ञात होता है कि इसी कालावधि में भाटियों ने भी किराडू पर हमला किया था। जालोर के चौहान राजा कीर्तिपाल ने भी किराडू पर हमला किया जिससे किराडू का परमार राज्य सदैव के लिए समाप्त हो गया।

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