Thursday, December 26, 2024
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अजमेर का इतिहास भारत का इतिहास है!

अजमेर का इतिहास भारत के इतिहास में क्या महत्व रखता है, इसे ब्रिटिश शासन काल में कही जाने वाली कहावत- ‘वन हू रूल्स अजमेर, रूल्स इण्डिया’ से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है।

भारत के इतिहास में अजमेर का इतिहास इसलिए महत्वपूर्ण बन गया क्योंकिअजमेर न केवल राजस्थान के मध्य में स्थित है अपितु उत्तर भारत के भी लगभग मध्य में है। अरावली की सुरम्य पहाड़ियों के बीच बसी हुई यह नगरी एक हजार साल से भी अधिक पुरानी है। हसन निजामी ने इसकी तुलना स्वर्ग से की है।

अजमेर का इतिहास पृथ्वीराज चैहान के काल में अपने चरम पर पहुंचा। पृथ्वीराज चौहान दिल्ली पर अपना शासन इसीलिये स्थापित कर सका क्योंकि वह अजमेर का शासक था।

भारत पर मुस्लिम आधिपत्य स्थापित करने से पहले ही मुहम्मद गौरी ने अजमेर के राजनीतिक महत्त्व को भलीभांति समझ लिया था। इसीलिए मुहम्मद गौरी से लेकर दिल्ली सल्तनत के अधिकांश बादशाहों ने अजमेर पर अपना नियंत्रण कड़ाई से बनाये रखा। जब मुस्लिम शासकों ने अजमेर पर नियंत्रण खो दिया, वे दिल्ली की सत्ता से भी हाथ धो बैठे।

मुहम्मद बिन तुगलक ने कभी भी दिल्ली को भारत की राजधानी के लिये उपयुक्त नहीं समझा, इसलिये वह अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर दौलताबाद ले गया किंतु उसे भी राजधानी के रूप में अनुपयुक्त पाकर पुनः अपनी राजधानी को दिल्ली ले आया। राजधानियों की इस उठापटक में भी उसने अजमेर पर कड़ाई से अपना नियंत्रण रखा।

दिल्ली सल्तनत के पराभव के बाद शेरशाह सूरी ने अजमेर को अपने अधीन करने के लिये अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर मारवाड़ के राठौड़ों पर आक्रमण किया तथा अजमेर को अपने अधीन किया।

शेरशाह सूरी के उदय से पहले, मारवाड़ के राठौड़ शासक उत्तर भारत की राजनीति में इसीलिये गहरी पकड़ बनाये रख सके क्योंकि अजमेर उनके अधीन रहा। जैसे ही शेरशाह सूरी ने राठौड़ों से अजमेर छीना, राठौड़ों की शक्ति बहुत सीमित हो गई।

मुगल शासक हुमायूं ने अपना राज्य इसलिए खो दिया क्योंकि वह अजमेर को अपने नियंत्रण में नहीं रख सका। जब हुमायूं ने शेरशाह सूरी से परास्त होकर राजपूत राजाओं की मित्रता प्राप्त करनी चाही थी, तब वह अपना हरम लेकर आगरा से अजमेर आया किंतु जोधपुर के राजा मालदेव द्वारा शरण देने से मना करने पर वह अमरकोट होता हुआ ईरान भाग गया।

अकबर ने बाबर तथा हुमायूं की तरह आगरा को अपनी राजधानी बनाया किंतु वह शीघ्र ही अजमेर के महत्व को समझ गया। ई.1570 में वह अपना हरम लेकर पैदल ही आगरा से अजमेर आया तथा लगभग 10 साल तक वह निरंतर पैदल चलकर अजमेर आता रहा। जब उसे लगा कि अजमेर पूरी तरह मुगलों की दूसरी राजधानी बन चुका है तो उसने अजमेर आना बंद किया।

जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि राजपूत राज्यों की लड़कियों से विवाह करने के लिए अकबर ई.1570 में अजमेर से सीधा नागौर गया जहां इन राज्यों के राजाओं ने अपनी राजकुमारियों के विवाह अकबर से कर दिए। आमेर अपनी राजकुमारी का विवाह पहले ही अकबर से कर चुका था।

अकबर की तरह शाहजहां और जहांगीर ने भी आगरा के साथ-साथ अजमेर को अपनी दूसरी राजधानी बनाया तथा अपने जीवन के कई साल अजमेर में व्यतीत किए।

ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दूत सर टामस रो ने अजमेर में ही जहांगीर से भारत में व्यापार करने की अनुमति प्राप्त की थी।
दाराशिकोह एवं औरंगजेब के भाग्य का फैसला अजमेर में तारागढ़ की तलहटी में हुए भयानक युद्ध में हुआ था जिसमें परास्त होकर दाराशिकोह ईरान की तरफ भाग खड़ा हुआ था किंतु बीच मार्ग में से पकड़ लिया गया था।

औरंगजेब ने आगरा की जगह दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया किंतु उसने भी अजमेर को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। चाहे जोधपुर का राज्य खालसा करना हो, मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से युद्ध करना हो, छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध अभियान चलाना हो, औरंगजेब अजमेर में आकर ही डेरा डालता था।

औरंगजेब के पुत्र अकबर ने जब अपने बाप के विरुद्ध विद्रोह किया था तब उसने दौराई के मैदान को ही युद्ध के लिए चुना था किंतु वह भी अपने ताउ दाराशिकोह की तरह हारकर ईरान की तरफ भाग गया था।

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से लेकर फर्रूखसीयर तक अजमेर, मुगलों की सैनिक छावनी बना रहा किंतु जब जोधपुर नरेश अजीतसिंह ने फर्रूखसीयर की हत्या करके अजमेर पर पुनः राठौड़ सत्ता स्थापित की तो राठौड़ों की तूती फिर से दिल्ली दरबार में बोलने लगी और वे भारत के बादशाहों के भाग्य का फैसला करने लगे।

यही कारण था कि आम्बेर नरेश जयसिंह ने अजमेर पर नियंत्रण पाने के लिए अपने पुराने मित्र जोधपुर नरेश अजीतसिंह की हत्या करवा दी किंतु वह कभी भी अजमेर पर स्वतंत्र रूप से अधिकार नहीं कर सका।

मुगलों के कमजोर पड़ जाने पर जयपुर के कच्छवाहों ने अजमेर पर अधिकार करने के लिये अपने स्वाभाविक मित्रों अर्थात् राठौड़ शासकों से विश्वासघात किया और उनकी हत्याएं करवाईं।

जोधपुर नरेश विजयसिंह तो अजमेर पर अधिकार बनाए रखने के लिए जयपुर के कच्छवाहों, मेवाड़ के राणााओं और नर्बदा पार से आए मराठों से चालीस साल तक युद्ध करता रहा। उसका राज्य जर्जर होता चला गया किंतु वह अजमेर पर अधिकार रखने का लालच कभी नहीं त्याग सका।

मेवाड़ के राणाओं ने अजमेर प्राप्त करने के लिये अपने स्वाभाविक मित्र राठौड़ों से शत्रुता मोल लेने में परहेज नहीं किया।
मराठों ने भी अजमेर पर अधिकार जमाने के लिये ई.1737 से ई.1800 तक राठौड़ों से लम्बा संघर्ष किया। उस काल में दक्षिणी भारत की महान शक्ति- महादजी सिंधिया तथा उत्तर भारत की महान शक्ति- मारवाड़ नरेश महाराजा विजयसिंह तब तक लड़ते रहे, जब तक कि दोनों ही लड़कर नष्ट नहीं हो गये।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जब व्यापारिक कम्पनी का चोला उतारकर भारत सरकार के रूप में अवतार लिया तो कम्पनी ने मराठों से अजमेर प्राप्त करने की योजना बनाई तथा 25 जून 1818 को दौलतराव सिंधिया के साथ एक संधि की। इस सन्धि के अनुसार दौलतराव सिंधिया ने अजमेर, ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बेच दिया।

29 जून 1818 को दिल्ली का रेजीडेण्ट जनरल सर ऑक्टरलोनी तथा कर्नल निक्सन पैदल सेना की आठ रेजीमेंट्स लेकर अजमेर आये। वे मदार पहाड़ी की तलहटी में ठहरे। उन्होंने दौलतराव सिंधिया के गवर्नर बापू सिंधिया को दौलतराव सिंधिया का हुक्मनामा भिजवाया जिसके द्वारा बापू सिंधिया को निर्देश दिया गया था कि वह तुरंत अजमेर खाली करके उसका अधिकार अंग्रेजों को सौंप दे।

बापू सिंधिया ने इस आदेश को मानने से मना कर दिया और विद्रोह करने पर उतारू हो गया। इस पर सर डेविड ऑक्टरलोनी ने अपनी सेनाओं को कार्यवाही करने के लिये तैयार किया। अंत में बड़े रक्तपात की आशंका से बापू सिंधिया, गढ़ बीठली को खाली करके अपने परिवार सहित ग्वालियर के लिये रवाना हो गया।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अजमेर को अपनी प्रादेशिक राजधानी बनाया तथा नसीराबाद में सैनिक छावनी स्थापित की। अजमेर से ही राजपूताने के सारे राजाओं को अधीनस्थ संधि के अधीन लाया गया।

अजमेर में कम्पनी के एजीजी अर्थात् एजेण्ट टू गवर्नर जनरल का कार्यालय खोला गया तथा राजपूताने के प्रत्येक राजा से कहा गया कि वे अपना एक वकील एजीजी कोर्ट में नियुक्त करें।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, अजमेर का महत्व बढ़ता गया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भारत में सामाजिक परिवर्तन की आंधी लाने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी अजमेर को अपनी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बनाया।

क्रांतिकारी विजयसिंह पथिक ने अजमेर को ही अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। रास बिहारी बोस, सुभाषचंद्र बोस तथा अन्य क्रांतिकारियों ने भी अजमेर की पहाड़ियों में गुप्त प्रशिक्षण शिविर लगाए।

बीसवीं सदी में हर बिलास शारदा की आवाज पूरे भारत में इसलीये ध्यान देकर सुनी गई क्योंकि वे केन्द्रीय विधान सभा में अजमेर सीट से मनोनीत किये जाते थे। उन्होंने पूरे देश के लिये बाल विवाह निषेध का जो कानून बनवाया वह आज भी शारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है।

अंग्रेजों ने अपनी इस दूसरी राजधानी को बड़े सरकारी उपक्रमों से सजाया। उन्होंने अजमेर के निकट नसीराबाद में सैनिक छावनी स्थापित की तथा अजमेर नगर के मध्य में शस्त्रागार अर्थात् मैगजीन स्थापित की।

अंग्रेजों ने अजमेर नगर में विक्टोरिया हॉस्पीटल खोला तथा रेलवे इंजन बनाने का कारखाना, रेलवे वर्कशॉप और रेलवे ट्रेनिंग सेंटर स्थापित किए।

राजस्थान के पत्रकारों ने भारत की आजादी की लड़ाई के लिए अजमेर को अपना केन्द्र बनाया। अजमेर से ही विभिन्न रियासतों के समाचार पत्र प्रकाशित किए जाते थे। अर्जुनलाल सेठी एवं हरिभाउ उपाध्याय जैसे कर्मठ कार्यकर्ता अजमेर आकर रहे। हरिभाऊ उपाध्याय ने अजमेर में सस्ता साहित्य मण्डल की स्थापना की जिसने भारत भर के शिक्षित युवकों का मार्गदर्शन किया।

मेवाड़ के महाराणाओं ने प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा को अजमेर में एक हवेली दी जो आज भी अजमेर के गौरवशाली अतीत का स्मरण करवाती है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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