छत्रपति शिवाजी ने मराठों के स्वतंत्र राज्य की स्थापना औरंगजेब के जीवन काल में ही कर दी थी। शिवाजी की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी शम्भाजी को समाप्त करके महाराष्ट्र पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की किन्तु यह सफलता स्थायी नहीं रही। शम्भाजी की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र को स्वतंत्र करवाने के लिए मराठों का स्वतंत्रता संग्राम आरम्भ हुआ जो औरंगजेब की मृत्यु तक चला। औरंगजेब अपने जीवनकाल में मराठों का दमन नहीं कर सका।
शम्भाजी के बाद शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम ने और तत्पश्चात् राजाराम की पत्नी ताराबाई ने संघर्ष जारी रखा। मराठों ने न केवल महाराष्ट्र को ही स्वतंत्र करा लिया, अपितु मुगल-छावनियों पर भी धावे मारने आरम्भ कर दिये। ई.1707 में शम्भाजी का पुत्र शाहूजी छत्रपति बना। उसके शासनकाल में पेशवा की शक्ति का उत्कर्ष हुआ, जो बाद में छत्रपति से भी ऊपर उठ गया। मुगल सत्ता के कमजोर पड़ जाने पर मराठे, नर्मदा नदी को पार करके उत्तर भारत की ओर बढ़ने लगे। सबसे पहले गुजरात तथा मालवा उनके निशाने पर आये।
ई.1724 के बाद पेशवा के तीन सेनानायकों- होल्कर, सिन्धिया और पंवार ने क्रमशः इन्दौर, ग्वालियर और धार में मराठा शक्ति का विस्तार किया। शिवाजी के वंशज सतारा में निवास करने लगे। अब वे मराठा संघ के नाम मात्र के मुखिया थे। राज्य का संचालन पेशवा द्वारा किया जाता था जो पुणे में रहता था। मराठा राज्य के महत्वपूर्ण सूबेदारों में से सिंधिया ग्वालियर में, भौंसले नागपुर में, होल्कर इन्दौर में तथा गायकवाड़ बड़ौदा में नियुक्त थे।
बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला (ई.1719-48) के समय में मराठों ने मालवा पर हमले तेज कर दिये। ई.1728 में पेशवा बाजीराव ने पालखेद में निजाम को चारों ओर से घेरकर सन्धि करने के लिये विवश कर दिया। इस सन्धि से मराठों को बरार और खानदेश होकर, उत्तर की ओर जाने का मार्ग मिल गया। नवम्बर 1728 में मालवा में मुगलों की तरफ से नियुक्त सूबेदार गिरधर बहादुर अपने अनेक बंधु-बांधवों सहित मारा गया तथा मराठों ने मालवा के दक्षिणी भाग में अपनी छावनियाँ जमा लीं, जहाँ से वे मालवा में घुसकर लूट-खसोट करते थे।
अक्टूबर 1729 में मुहम्मदशाह ने सवाई जयसिंह को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया तथा जयसिंह के नेतृत्व में जो सेना मराठों से लड़ने गई उसमें मेवाड़ की सेना को भी सम्मिलित करने के आदेश दिये। मेवाड़ की सेना बादशाह की तरफ से मराठों के विरुद्ध लड़ने गई या नहीं, इस बात के प्रमाण नहीं मिलते।
सवाई जयसिंह, मुहम्मदशाह रंगीला तथा मराठों के बीच संधि करवाना चाहता था किंतु मुगल दरबार की राजनीति के कारण जयसिंह के प्रयास सफल नहीं हुए। बादशाह मुहम्मदशाह ने जयसिंह पर काहिली और दगाबाजी का आरोप लगाते हुए सितम्बर 1730 में मालवा से वापिस बुला लिया और उसके स्थान पर मुहम्मद बंगश को मालवा का सूबेदार बनाया। मुहम्मद बंगश को भी मराठों के विरुद्ध कोई सफलता नहीं मिली।
परिणामस्वरूप ई.1732 में उसे वापस बुला लिया गया और सवाई जयसिंह को तीसरी बार मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया। जयसिंह ने मराठों को मालवा में रोकने के लिये मेवाड़ राज्य से भी सैनिक सहयोग लेने का निश्चय किया। इस सम्बन्ध में दोनों शक्तियों (आम्बेर तथा मेवाड़) के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार इस अभियान के लिये मेवाड़ राज्य 9 हजार घुड़सवार तथा 9 हजार पैदल सिपाही और जयपुर राज्य 15 हजार घुड़सवार और 15 हजार पैदल सैनिक देगा। मालवा से मिलने वाली मालगुजारी और पेशकश से होने वाली आय का एक तिहाई हिस्सा मेवाड़ को तथा दो तिहाई हिस्सा जयपुर को मिलेगा।
मनसबदारों से इजारे पर लिए हुए परगनों की आय में से इजारे की रकम चुकाने के बाद इसी प्रकार एक तिहाई और दो तिहाई का बंटवारा होगा। जयपुर की सेना की तरह मेवाड़ की सेना भी अपने लिए खाद्य सामग्री और पशुओं के लिये दाना स्वयं जुटायेगी।
मेवाड़ से संधि करने के बाद सवाई जयसिंह, जयपुर से चलकर दिसम्बर 1732 में मालवा पहुंचा। जनवरी 1733 में गुजरात की तरफ से मल्हारराव होल्कर (ई.1720-66) और राणोजी सिन्धिया (ई.1731-45) ने मालवा में प्रवेश किया। आनन्दराव पवार और विठोजी बुले वहाँ पहले से ही मौजूद थे। ऊदाजी पंवार भी इन लोगों से आ मिला। मराठों की इन सेनाओं में छापामार घुड़सवारों की संख्या अत्यधिक थी। इन सेनाओं ने जयसिंह को मंदसौर के निकट, चारों तरफ से घेर लिया।
मेवाड़ से हुई संधि के अनुसार जो घुड़सवार और पैदल सैनिक मराठों के विरुद्ध भेजे जाने थे, वे अब तक नहीं आये थे इसलिये जयसिंह को विवश होकर मराठों से सन्धि करनी पड़ी। उसने मराठों को 6 लाख रुपये नकद देने का प्रस्ताव दिया तथा मुआवजा राशि के बदले में मालवा के 28 परगने होल्कर को सौंप दिये। इस प्रकार मराठे मालवा के स्वामी हो गये।
महाराणा जगतसिंह का राज्यारोहण
11 जनवरी 1734 को महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) का निधन हो गया और उसका ज्येष्ठ पुत्र महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) मेवाड़ का महाराणा हुआ। महाराणा जगतसिंह ने राजनीतिक कौशल से मराठों से अच्छे सम्बन्ध रखे तथा उनके विरुद्ध किसी सैनिक कार्यवाही में भाग नहीं लिया था किंतु परिस्थितियां तेजी से बदल रही थीं। मालवा, गुजरात और बुन्देलखण्ड में मराठों की प्रगति को रोकने में मुगल बादशाह की असफलता तथा बूंदी के मामले में मराठों के हस्तक्षेप ने राजस्थान के राजाओं में बेचैनी उत्पन्न कर दी।
उन्होंने अनुभव किया कि यदि संगठित होकर मराठों को रोकने का प्रयास नहीं किया तो उनके राज्यों की भी वही दशा हो जायेगी जो मालवा और गुजरात की हुई है। अतः मराठों के विरुद्ध प्रभावी कार्यवाही करना आवश्यक हो गया था। निश्चित रूप से महाराणा के योगदान के बिना कुछ भी किया जाना संभव नहीं था।
हुरडा सम्मेलन
मराठों का सफलतापूर्वक सामना कर सकने के लिये उपाय सोचने हेतु आंबेर नरेश सवाई जयसिंह ने लगभग समस्त प्रमुख राजपूत राजाओं को उत्तरी मेवाड़ में अजमेर की सीमा के निकट ‘हुरडा’ नामक स्थान पर एकत्रित होने के लिये आमंत्रित किया। 16 जुलाई 1734 को हुरड़ा सम्मेलन आरम्भ हुआ। मेवाड़ के नये महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) ने सम्मेलन की अध्यक्षता की।
सम्मेलन में सवाई जयसिंह, जोधपुर नरेश अभयसिंह, नागौर का बख्तसिंह, बीकानेर महाराजा जोरावरसिंह, कोटा का दुर्जनसाल, बूंदी का दलेलसिंह, करौली का गोपालदास, किशनगढ़ का राजसिंह आदि कई शासक सम्मिलित हुए। दीर्घ विचार-विमर्श के बाद 17 जुलाई 1734 को सम्मेलन में उपस्थित सभी राजाओं ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये जिसकी मुख्य शर्तें इस प्रकार थीं-
1. सब राजा धर्म की शपथ खाकर एक-दूसरे के सुख और दुःख के साथी रहें।
2. एक के शत्रु को दूसरा अपने पास न रखे।
3. वर्षा ऋतु के बाद कार्य आरम्भ किया जाये, तब सब राजा रामपुरा में एकत्र हों, यदि कोई कारणवश स्वयं न आ सके तो कुंवर को भेज दे।
4. यदि कुंवर अनुभव की कमी से गलती करे तो महाराणा उसे ठीक करें।
5. कोई नया काम भी शुरु हो तो सब एकत्र होकर करें।
हुरडा सम्मेलन में राजपूत राजाओं द्वारा एक स्थान पर बैठकर विचार करना तथा मराठों का संयुक्त रूप से सामना करने का निर्णय लेना, एक महत्त्वपूर्ण बात थी परन्तु दुर्भाग्वश किसी भी निर्णय को कार्यान्वित करने के लिये कुछ भी नहीं किया गया। कोई भी राजपूत शासक अपने व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़ने को तैयार नहीं था।
सवाई जयसिंह, महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) और जोधपुर नरेश अभयसिंह, इन तीन प्रमुख राजाओं में भी एक दूसरे के प्रति सद्भावना का अभाव था। अतः ई.1734 की वर्षा ऋतु के बाद राजपूत राजाओं ने रामपुरा में एकत्र होने की बजाय मुगल बादशाह द्वारा मराठों के विरुद्ध आयोजित अभियान में सम्मिलित होना अधिक श्रेयस्कर समझा।
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