23 सितम्बर 1698 को महाराणा जयसिंह का निधन हो गया और उसका पुत्र अमरसिंह (द्वितीय) महाराणा हुआ। उसके शासन काल में 21 फरवरी 1707 को दक्षिण के मोर्चे पर बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हो गई तथा औरंगजेब के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ गया। इस समय तक मुगल सल्तनत राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक दृष्टि से काफी कमजोर हो गई थी।
अपने अंतिम दिनों में औरंगजेब इस बात को लेकर चिंतित था कि उसके शहजादों में उत्तराधिकार के लिए खूनी संघर्ष होगा। इसलिये उसने शहजादा मुअज्जम को राज्यधर्म की शिक्षा दी तथा एक वसीयतनामा तैयार करवाया जिसमें उसने अपनी सल्तनत को अपने तीनों जीवित पुत्रों में विभाजित कर दिया। औरंगजेब की मृत्यु के समय मुअज्जम काबुल में था। उसने तेजी से आगे बढ़कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुरशाह के नाम से तख्त पर बैठ गया।
इसे शाहआलम (प्रथम) के नाम से भी जाना जाता है। उसके पुत्र अजीम-उस-शान ने अपने पिता की आज्ञा से आगरा पर अधिकार कर लिया। जून 1707 में बहादुरशाह भी आगरा पहुंच गया। इस प्रकार राजधानी, खजाना तथा उत्तर भारत के प्रमुख शहर बहादुरशाह के अधिकार में आ गये। उधर दक्षिण भारत में आजम ने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया तथा आगरा की ओर बढ़ना आरंभ किया। बहादुरशाह ने आजम के समक्ष सल्तनत विभाजन का प्रस्ताव रखा किंतु आजम ने सल्तनत का विभाजन स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। आगरा के निकट जाजऊ के मैदान में दोनो भाइयों के मध्य युद्ध हुआ जिसमें आजम परास्त हुआ और मारा गया।
महाराणा द्वारा मुअज्जम का पक्ष
दोनों भाइयों के बीच हुए झगडे़ में महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) ने मुअज्जम का पक्ष लिया था। जब मुअज्जम आगरा के तख्त पर बैठ गया तो महाराणा ने अपने भाई बख्तसिंह को बधाई का संदेश एवं उपहार देकर भेजा। बहादुरशाह ने भी महाराणा के लिये उपहार भिजवाये। आजम तथा मुअज्जम के बीच हुए युद्ध में आंबेर नरेश जयसिंह ने आजम का साथ दिया था।
इसलिये मुअज्जम ने बादशाह बनने के बाद, जनवरी 1708 में जयसिंह से आंबेर का राज्य तथा मिर्जाराजा की उपाधि छीनकर उसके छोटे भाई विजयसिंह को दे दिये। जब बहादुरशाह, कामबख्श के विरुद्ध अभियान पर आगरा, आंबेर और मेड़ता होता हुआ अजमेर की तरफ बढ़ा तब मार्ग में महाराणा ने फिर से अपने भाई को बादशाह की सेवा में भेजकर उपहार भेंट किये। 24 मार्च 1708 को बहादुरशाह अजमेर आया और उसने शुजात खां को अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया।
जयपुर और जोधपुर के राजाओं का मेवाड़ आगमन
औरंगजेब की मृत्यु का सामचार सुनकर महाराजा अजीतसिंह ने अपने पैतृक राज्य जोधपुर पर धिकार कर लिया था। इसलिये बहादुरशाह ने अजीतसिंह को मिलने के लिये अजमेर बुलवाया। अजीतसिंह, कालू गांव में नये बादशाह से मिला। इसके बाद 20 मार्च 1708 को बादशाह, अजीतसिंह को लेकर अजमेर आ गया। अजीतसिंह ने नरेली गांव में अपना शिविर स्थापित किया। इसी बीच आम्बेर नरेश जयसिंह भी अजमेर आ गया।
जनवरी 1708 में बहादुरशाह ने उसका राज्य तथा मिर्जाराजा की उपाधि छीनकर उसके छोटे भाई विजयसिंह को दे दिये थे। इसलिये जयसिंह बहादुरशाह से राज्य पाने की आशा में बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ। कुछ दिन बाद बहादुरशाह, अजीतसिंह तथा जयसिंह को लेकर 2 अप्रेल 1708 को अजमेर से उज्जैन के लिये रवाना हो गया।
जब बादशाह अजमेर से चित्तौड़ के रास्ते मालवे की तरफ चला तब भी महाराणा अमरसिंह ने अपने प्रतिनिधि के द्वारा बहादुरशाह को 27 मोहरें नजर करवाईं। 14 अप्रेल 1708 को ये लोग मंदसौर पहुंचे। बादशाह ने अब तक इन दोनों राजाओं को उनके राज्य बहाल किये जाने के सम्बन्ध में कोई बात नहीं की। अतः जयसिंह और अजीतसिंह, बहादुरशाह से अलग होकर, चुपचाप उदयपुर के लिये रवाना हो गये ताकि महाराणा से सहायता प्राप्त की जा सके।
हिन्दू राजाओं का संघ
29 अप्रेल 1708 को महाराणा अमरसिंह, जोधपुर एवं आंबेर के राजाओं की अगवानी करने के लिये उदयसागर की पाल पर आया। अगले दिन वह उनके स्वागत के लिये गाडवा गांव तक गया जहाँ महाराजा अजीतसिंह, जयसिंह, दुर्गादास तथा मुकुंददास भी पहुंचे। महाराणा पहले अजीतसिंह से मिला। फिर जयसिंह के पास गया। जयसिंह ने महाराणा के पांव छुए। महाराणा ने उसे छाती से लगाकर कहा कि आपके आने से मैं पावन हो गया। इसके बाद महाराणा अमरसिंह, राठौड़ सरदार दुर्गादास और खींची मुकुन्ददास से मिला और सबको लेकर उदयपुर आ गया।
जब शहजादे जहांदारशाह को इन दोनों राजाओं के, उदयपुर पहुंचने के समाचार मिले तो उसने महाराणा अमरसिंह को पत्र लिखा- ‘अजीतसिंह, जयसिंह और दुर्गादास जागीर और तन्खाह नहीं मिलने से भाग गये हैं। तुम्हें चाहिये कि उन्हें अपने पास नौकर न रखो और उन्हें समझा दो कि बादशाह के पास अर्जियां भेजें, मैं उन्हें समझा दूंगा और जागीरें दिलवा दूंगा।
महाराणा ने उन दोनों से माफी की अर्जियां लिखवाकर बादशाह को भिजवा दीं और उन्हें उदयपुर में ही रक्खा। महाराणा ने अपनी पुत्री का विवाह राजा जयसिंह से कर दिया। इस अवसर पर तीनों राजाओं के बीच एक संधिपत्र लिखा गया। इसकी मुख्य शर्तें इस प्रकार से थीं-
1. उदयपुर की राजपुत्री, छोटी होने पर भी सब राणियों में प्रमुख समझी जायेगी।
2. उदयपुर की राजकुमारी से उत्पन्न कन्या का विवाह मुसलमानों से नहीं होगा।
तीनों राजाओं ने यह निश्चय किया कि बादशाह से राज्य मिलने की आशा नहीं है, अतः बाहुबल से ही राज्य प्राप्ति का प्रयास किया जाए। महाराणा ने अपनी कुछ सेना इन दोनों राजाओं के साथ कर दी। इसके बाद अजीतसिंह और जयसिंह पुष्कर चले आये। जब अजमेर के सूबेदार शुजातखां को यह ज्ञात हुआ तो उसने दोनों राजाओं के साथ छल करने के विचार से उन्हें विश्वास दिलाया कि वह बादशाह से कहकर उन दोनों को उनके राज्य फिर से दिलवा देगा तथा अपने आदमी, सेना लेने के लिये बादशाह के पास भेजे।
दोनों राजाओं ने दो माह तक पुष्कर में रहकर बादशाह के आदेश की प्रतीक्षा की किंतु जब वहाँ से आदेश नहीं आया तो ये दोनों राजा, जयपुर के लिये चल दिये। तब तक इन दोनों राजाओं को नष्ट करने के लिये दिल्ली, आगरा, मथुरा तथा करनाल से शाही सेनाएं आ गईं। आम्बेर से भी तोपखाना शाही सेना की सहायता के लिये आ गया। सांभर के पास दोनों पक्षों की सेनाओं का सामना हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना की करारी हार हुई।
मुगलों के दो हजार सिपाही और चार हाथी मार डाले गये। मुगल सेना को परास्त करने के बाद अजीतसिंह तथा जयसिंह की सेनाओं ने पहले जोधपुर पर अधिकार किया। उसके बाद अजीतसिंह, जयसिंह को लेकर आम्बेर पहुंचा, जहाँ उसने विजयसिंह को मार भगाया तथा जयसिंह को आम्बेर की गद्दी पर बैठा दिया।
इस प्रकार जब बहादुरशाह दक्षिण की तरफ चला गया तो मेवाड़, मारवाड़ तथा जयपुर के हिन्दू राजाओं ने संघ बना लिया और अपने-अपने क्षेत्र मुगल साम्राज्य से विमुक्त कर लिये। हिन्दू राजाओं की इस कार्यवाही से मुगलों की प्रांतीय राजधानी अर्थात् अजमेर सूबा बिखर गया और इस क्षेत्र में मुगलों का नियन्त्रण नाम मात्र का रह गया।
संग्रामसिंह (द्वितीय) द्वारा मुगलों से संघर्ष की नीति
10 दिसम्बर 1710 को महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) का निधन हो गया और उसका पुत्र संग्रामसिंह (द्वितीय) महाराणा हुआ। इसके गद्दी पर बैठते ही बहादुरशाह ने पुर एवं मांडल के परगने मेवाड़ से छीनकर रणबाजखां को दे दिये तथा मांडलगढ़ का परगना नागौर के राव इंद्रसिंह को दे दिया। इंद्रसिंह ने महाराणा के भय से परगना लेने से मना कर दिया किंतु रणबाजखां शाही सेना लेकर परगनों पर अधिकार करने के लिये आया।
महाराणा ने भी उसके विरुद्ध सेना भेजी। बांधनवाड़ा के निकट दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें महाराणा की सेना जीत गई। जब यह सूचना बादशाह तक पहुंचाई गई तो महाराणा के टीके का दस्तूर जो तैयार हो चुका था, रोक दिया गया। महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) के शासन काल में मालवा की तरफ के पठानों ने मंदसौर जिले के कई गांवों को लूटा और बहुत से लोगों को कैद कर लिया।
इस पर महाराणा ने अपने सरदारों को उनसे लड़ने के लिये भेजा तथा उन्हें दण्डित किया। रामपुरा का इलाका, अकबर के समय में मेवाड़ से अलग हो गया था, महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) के समय में फिर से मेवाड़ को मिल गया। महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) के समय में ईडर राज्य भी मेवाड़ में सम्मिलित हो गया।
दुर्गादास राठौड़ को जागीर
दुर्गादास राठौड़ ने बीस वर्ष तक कठिन संघर्ष करके अजीतसिंह को जोधपुर दिलवाया था किंतु अजीतसिंह ने दुर्गादास को राज्य से निकाल दिया। इस पर दुर्गादास, मेवाड़ में आ गया। महाराणा ने उसे रामपुरा की जागीर प्रदान की।
मराठों से मेल-जोल
मेवाड़ राज्य आरम्भ से ही मुगलों के प्रति उपेक्षा की दृष्टि रखता था। दिल्ली में तख्त के अधिकार को लेकर क्लेश मच जाने से मेवाड़ को मुगलों की रही-सही परवाह भी जाती रही। दिल्ली राज्य की अवनति और मराठों की उन्नति देखकर महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) ने मराठों से मेलजोल बढ़ाने के लिये पीपलिया के शक्तावत बाघसिंह के पुत्र जयसिंह को अपने वकील के रूप में छत्रपति शाहू के पास भेजा।
शाहू भी मेवाड़ का वंशधर होने से उसके प्रतिनिधि का बहुत सम्मान करता था और उसके काका कहता था। महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) के बारे में कर्नल टॉड ने लिखा है- ‘बापा रावल की गद्दी का गौरव बनाए रखने वाला वह अंतिम राजा हुआ। उसके मरने के पीछे मराठों का जोर बढ़ा।
मुगल सल्तनत के विघटन में मेवाड़ की भूमिका
मुगल सल्तनत के विघटन में यद्यपि भारत में प्रभावी अनेक शक्तियों की भूमिका थी तथापि मेवाड़ का अवदान सर्वाधिक था। मेवाड़ न केवल मंगोलों के भारत आगमन के दिन से ही उन पर प्रत्यक्ष प्रहार करता आ रहा था अपितु वह मंगोलों के विरोध का ऐसा प्रतिमान बन गया जिससे भारत के समस्त राजाओं और जन सामान्य में उत्साह और आत्मगौरव का संचरण होता था।
महारानी पद्मिनी, गोरा, बादल, महाराणा सांगा, महाराणा कुम्भा, जयमल, पत्ता, चित्तौड़ दुर्ग, मीरांबाई, महाराणा प्रताप, चेतक तथा हल्दीघाटी, भारतीय जन मानस में इतने गहरे पैठ गये कि राष्ट्रीय स्वातंत्र्य, जातीय अभिमान और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिये प्राणोत्सर्ग करने की कोई बात इन प्रतीकों के बिना पूरी नहीं होती थी। जो कच्छवाहे, राठौड़, भाटी और हाड़े, मुगलों की सेवा स्वीकार करके सदियों तक युद्धों के मोर्चों पर लड़ते और मरते रहे, उनके मन में भी महाराणा प्रताप और गुहिल वंश ही सर्वोच्च राष्ट्रीय प्रतिमान बने रहे। अकबर के दरबार में बैठे लोग भी महाराणा की प्रशंसा में कविताएं लिखते रहे। अवसर आने पर किसी भी हिन्दू राजा ने, सिसोदियों की अधीनता में लड़ने से संकोच नहीं किया।