Saturday, November 2, 2024
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9. जोधपुर राज्य और सवाई जयसिंह

आम्बेर के राजा सवाई जयसिंह और जोधपुर के राजा अजीतसिंह युवावस्था में ही मित्र बन गये थे। दोनों ने साथ मिलकर ही बहादुरशाह की दाढ़ में से अपने-अपने राज्य वापस छीने थे। बाद में दोनों ही मुगलों के नौकर हो गये थे। जयसिंह मालवा की सूबेदारी पर चला गया और अजीतसिंह गुजरात की सूबेदारी पर। जयसिंह लगातार मुगल बादशाह के लिये कार्य करता रहा किंतु अजीतसिंह, मुगल राजनीति से संतुष्ट नहीं होकर बादशाह की इच्छा के प्रतिकूल आचरण करता रहा।

जयसिंह का अजीतसिंह की पुत्री से विवाह

जिस समय मेवाड़ के महाराणा ने अपनी पुत्री चंद्र कुंवरि का विवाह जयसिंह से किया उसी समय अजीतसिंह ने भी अपनी पुत्री सूरज कुंवरि का विवाह जयसिंह से किया था।

अजीतसिंह द्वारा फर्रूखसीयर की हत्या

नवम्बर 1720 में अजीतसिंह ने लाल किले पर अधिकार कर लिया तथा बादशाह फर्रूखसीयर की हत्या कर दी। फर्रूखसीयर जयसिंह का अच्छा मित्र था। इसलिये जयसिंह की स्थिति मुगल दरबार में कमजोर हो गई। जयसिंह यह नहीं चाहता था कि अजीतसिंह मुगल राजनीति पर हावी हो जाये किंतु अजीतसिंह का सैयद बंधुओं पर अच्छा प्रभाव था। इसलिये अजीतसिंह के माध्यम से जयसिंह, नये बादशाह से सम्बन्ध सुधार सकता था। इसलिये जयसिंह चुप रहा। अजीतसिंह ने सैयद बंधुओं के माध्यम से जयसिंह की नये बादशाह जहांदारशाह से दोस्ती करवा दी।

जयसिंह द्वारा अजीतसिंह की सहायता

1721 ई. में जब बादशाह मुहम्मदशाह ने अजीतसिंह को गुजरात और अजमेर की सूबेदारी से हटा दिया तो अजीतसिंह विद्रोह पर उतर आया और उसने शाही इलाकों में भारी लूट-मार की। 1721-22 ई. में अजीतसिंह ने सांभर पर आक्रमण किया तथा मुगल अधिकारियों को भगाकर सांभर झील पर अधिकार कर लिया। उसने नारनोल में भी भारी लूट मचाई तथा मेवात में दिल्ली के निकट 16 मील तक घुस आया। इस पर 1722 ई. में इरादतमंद खाँ के नेतृत्व में अजीतसिंह के विरुद्ध सेनाएं भेजी गईं। अजीतसिंह ने 1723 ई. में अजमेर के दीवान तथा उसके 25 अधिकारियों की हत्या करके शाही कोष को लूट लिया तथा अजमेर पर अधिकार कर लिया। दिल्ली से आई सेना ने अजीतसिंह पर दबाव बनाकर उससे अजमेर वापस खाली करवाया तथा 13 परगने भी छीन लिये। सवाई जयसिंह ने मध्यस्थता करके बादशाह और अजीतसिंह में समझौता कराया। अजीतसिंह को विवश होकर अपने पुत्र अभयसिंह को कई हाथियों और बहुमूल्य उपहारों के साथ दिल्ली भेजना पड़ा।

जयसिंह द्वारा अजीतसिंह की हत्या की योजना

अजीतसिंह लगातार अजमेर और उसके निकटवर्ती परगनों को अपने अधीन करने का प्रयास कर रहा था जबकि जयसिंह की भी इन परगनों पर दृष्टि थी। इसलिये जयसिंह ने अजीतसिंह को निबटाने का निश्चय किया। अजीतसिंह का पुत्र अभयसिंह एक साल से दिल्ली में रह रहा था। जयसिंह ने अभयसिंह को इस बात के लिये तैयार कर लिया कि वह महाराजा अजीतसिंह की हत्या कर दे। अन्यथा बादशाह, अजीतसिंह की हत्या करके जोधपुर राज्य को खालसा कर लेगा और हजारों राठौड़ मारे जायेंगे। अभयसिंह, जयसिंह की बातों में आ गया। उसने अपने छोटे भाई बख्तसिंह को पत्र लिखकर पिता की हत्या करने को कहा और इसके बदले में उसे नागौर का परगना देने का प्रलोभन दिया। 23 जून 1724 ई. की रात्रि में बख्तसिंह ने, महाराजा अजीतसिंह की हत्या कर दी। बादशाह मुहम्मदशाह ने तत्काल अभयसिंह को जोधपुर का राजा स्वीकार कर लिया। इस घटना के बाद अभयसिंह, सवाई जयसिंह का समर्थक बन गया। अजीतसिंह की मृत्यु के बाद बख्तसिंह को नागौर का परगना मिल गया।

जयसिंह की पुत्री का अभयसिंह से विवाह

अगस्त 1724 में मथुरा में जयपुर नरेश जयसिंह की पुत्री विचित्र कुंवरी का जोधपुर नरेश अभयसिंह के साथ विवाह किया गया। इस विवाह ने जोधपुर राज्य के सामंतों को भड़का दिया। उन्हें विश्वास हो गया कि महाराजा अजीतसिंह की हत्या में न केवल बख्तसिंह का अपितु अभयसिंह और जयसिंह का भी हाथ है। अभयसिंह के दो छोटे भाइयों आनंदसिंह तथा राजसिंह ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया तथा तीसरे भाई ने जालोर पर अधिकार कर लिया। पूरे मारवाड़ में अराजकता फैल गई। इस पर अभयसिंह ने बादशाह से सहायता मांगी। बादशाह ने जयसिंह को अभयसिंह की सहायता करने के निर्देश दिये। जयसिंह ने अपनी एक सेना अभयसिंह के पास भेज दी। इस सेना ने अभयसिंह की सहायता की जिससे विद्रोही ठाकुरों पर नियंत्रण पाया गया। इसके बाद जयसिंह को मालवा में मराठों के विरुद्ध एवं अभयसिंह को गुजरात की सूबेदारी पर भेज दिया गया।

जयसिंह का जोधपुर पर आक्रमण

नागौर का राजाधिराज बख्तसिंह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था और अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इसी कारण बीकानेर के साथ उसका सीमा सम्बन्धी विवाद उठ खड़ा हुआ। नादिरशाह के भारत से लौट जाने के बाद बख्तसिंह और अभयसिंह ने मिलकर बीकानेर पर आक्रमण कर दिया। बीकानेर का राजा जोरावरसिंह बुरी तरह से पराजित हुआ और उसके कई गाँवों पर जोधपुर का अधिकार हो गया। जोरावरसिंह ने सहायता के लिये जयपुर नरेश सवाई जयसिंह से याचना की। जयसिंह ने अभयसिंह को संदेश भेजा कि वह जोरावरसिंह पर दया करे किंतु अभयसिंह ने अपने श्वसुर को प्रत्युत्तर भिजवाया कि वह राठौड़ों के परस्पर मामले में न बोले। इस पर सवाई जयसिंह, अपने जामाता से क्रुद्ध हो गया और उसने जोधपुर पर आक्रमण करने के लिये बीस हजार सैनिक भेज दिये। अभयसिंह ने अपनी राजधानी की रक्षा के लिये बीकानेर का घेरा उठा लिया किंतु जयसिंह की सेनाएं जोधपुर से घेरा हटाने को तैयार नहीं हुईं।

जोधपुर से ऐतिहासिक संधि

25 जुलाई 1740 को अभयसिंह ने जयसिंह से सन्धि के लिये प्रार्थना पत्र भेजा। निम्नलिखित शर्तों पर दोनों पक्षों में समझौता हुआ-

1. अभयसिंह, जयपुर को 1 लाख रुपये नगद, 25 हजार रुपये के आभूषण एवं जवाहरात और तीन हाथी देगा।

2. जोधपुर राज्य जयपुर को युद्ध व्यय के रूप में 20 हजार रुपये प्रतिदिन की दर से कुल 20 लाख रुपये देगा।

3. चार दिन में इस राशि की हुण्डियां जयसिंह को मिल जायेंगी और हुण्डियां सिकराने तक भण्डारी रघुनाथ और पांच सामंत बंधक के रूप में जयपुर के पास रहेंगे।

4. अभयसिंह बीकानेर से जीते हुए क्षेत्र, बीकानेर को वापस कर देगा।

5. जयपुर राज्य द्वारा मेड़ता की जागीर बखतसिंह को लौटा दी जायेगी।

6. जयसिंह के पास अजमेर के जो क्षेत्र हैं, उनमें अभयसिंह हस्तक्षेप नहीं करेगा।

7. मारवाड़ राजपरिवार का कोई भी सदस्य अथवा सामन्त, बिना जयसिंह की मध्यस्थता के दिल्ली दरबार से सम्बन्ध नहीं बना सकेगा।

8. मराठों के साथ सम्बन्ध भी जयपुर के निर्देशानुसार उसकी मध्यस्थता से ही बन सकेंगे।

9. अभयसिंह के मंत्री आगे से जयपुर के दो विश्वस्त सामन्त ही तय करेंगे।

गंगवाणा का युद्ध

इस संधि से जोधपुर राज्य, जयपुर राज्य का उपनिवेश जैसा बन गया। इस पर जोधपुर के सामन्तों में यह आवाज उठने लगी कि कच्छवाहों ने राठौड़ों की नाक काट ली। इस पर जोधपुर नरेश अभयसिंह जयपुर पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा। जब आगरा में जयसिंह को इसकी जानकारी हुई तो उसने एक शक्तिशाली सेना के साथ जोधपुर राज्य पर पुनः चढाई कर दी। बख्तसिंह भी अपनी सेनाएं लेकर अपने भाई अभयसिंह से आ मिला। इधर जयसिंह के मित्र- करौली का राजा, बुंदेला का राजा और तीन मुसलमान सेनापति अपनी सेनाएं लेकर जयपुर की सहायता के लिये आ गये। पुष्कर से 11 मील दूर गंगवाणा नामक स्थान पर 11 जून 1741 को दोनों पक्षों में युद्ध लड़ा गया।

मारवाड़ की ओर से राजाधिराज बखतसिंह ने इस युद्ध का नेतृत्व किया। वह पांच हजार सैनिकों को लेकर जयसिंह तथा उसके मित्रों की सेना के सामने जा डटा। जयसिंह तथा उसके मित्रों की सेनाओं में सैनिकों की संख्या 40 हजार से 1 लाख अनुमानित की गई। जयपुर की सेनाओं ने अपने सामने तोपों की लम्बी कतार लगा रखी थी। बखतसिंह सिर हथेली पर लेकर, तोपों की कतार को चीरता हुआ कच्छवाहों की सेना में जा धंसा और शत्रुओं को गाजर-मूली की तरह काटने लगा। वह कच्छवाहों की सेना में एक तरफ से दूसरी तरफ ताण्डव करता हुआ घूमता रहा। 14 घण्टे के भीतर युद्ध क्षेत्र में मृतकों और घायलों के अतिरिक्त और कोई शेष नहीं रहा। बचे हुए कच्छवाहे सैनिक भाग छूटे। मुस्लिम सेनापतियों ने अपना मोर्चा थोड़ी दूरी पर जमा रखा था। बखतसिंह उनकी तरफ नहीं गया। इसी बीच बखतसिंह को गोली लग गई किंतु वह लड़ता रहा। जयसिंह युद्ध का मैदान खाली करके दो मील पीछे चला गया था। अंत में बखतसिंह के पास केवल 70 सैनिक शेष बचे किंतु जयसिंह का पाण्डाल रिक्त देखकर बख्तसिंह उधर चला गया। उसने पाण्डाल से सीतारामजी की मूर्ति उठा ली और सवाई जयसिंह का निजी सामान लूटकर पाण्डाल में आग लगा दी। इसके बाद बख्तसिंह तेजी से मेड़ता की ओर भाग छूटा। जब मुसलमानों की सेनाओं ने देखा कि बख्तसिंह भागा जा रहा है तो उन्होंने भागते हुए बख्तसिंह पर गोले दागने आरम्भ कर दिये। बख्तसिंह मेड़ता तक सुरक्षित पहुंच गया। जयसिंह युद्ध के मैदान में लौट आया तथा उसने जीत की बधाई स्वीकार की। इसके बाद जयसिंह ने मृतक सैनिकों के परिवार वालों को सांत्वना दी तथा वीरता के लिये पुरस्कार बांटे।

इष्टदेवों की अदला-बदली

युद्ध की आपाधापी में एक ओर तो बख्तसिंह, जयसिंह के आराध्य सीतारामजी की मूर्ति उठा ले गया था और दूसरी ओर बख्तसिंह के अराध्य गिरधरजी के विग्रह वाला हाथी कच्छवाहों के हाथ लग गया था। संभवतः दो माह बाद बख्तसिंह को ज्ञात हुआ कि गिरधरजी जयसिंह के पास सुरक्षित है। इस पर बख्तसिंह ने अपने दीवान के हाथों सीतारामजी की प्रतिमा तथा उसके गहने जयसिंह के पास भिजवा दिये तथा जयसिंह से प्रार्थना की कि वह गिरधरजी की प्रतिमा लौटा दे क्योंकि उनकी पूजा किये बिना वह अन्न नहीं खा सकता। दो माह से वह केवल फलाहार कर रहा है। जयसिंह ने बखतसिंह की वीरता की प्रशंसा की तथा गिरधरजी का विग्रह तथा उनका  हाथी बख्तसिंह के दीवान को सौंप दिये।

जोधपुर एवं जयपुर में संधि

 उदयपुर के महाराणा ने दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता करके जुलाई 1741 में नई सन्धि करवा दी। नई सन्धि के अनुसार अभयसिंह ने सवाई जयसिंह को 20 लाख रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में देने स्वीकार किये। बीकानेर का राज्य जोरावरसिंह को लौटा दिया गया। जयसिंह ने बख्तसिंह को मेड़ता की जागीर लौटा दी।

जयसिंह का अंतिम युद्ध

गंगवाणा का युद्ध सवाई जयसिंह के जीवन का अंतिम युद्ध था। इस युद्ध के समय उसकी आयु 53 वर्ष थी। इस युद्ध के दो वर्ष बाद 21 सितम्बर 1743 को वह अपनी राजधानी जयपुर में चिर निद्रा में सो गया।

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