Thursday, November 21, 2024
spot_img

महाराणा अमरसिंह का जहांगीर से संघर्ष एवं सुलह – 2

खुर्रम ने अपनी सेना के चार विभाग किये तथा प्रत्येक विभाग को अलग-अलग दिशाओं से मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेश में घुसकर गांवों को लूटने, जलाने तथा लोगों को बंदी बनाने के आदेश दिये। अब्दुल्लाखां ने मार्च 1614 में चावण्ड पर अधिकार कर लिया। इससे महाराणा को छप्पन के पहाड़ों में चले जाना पड़ा। महाराणा ने अपने पुत्र भीमसिंह से कहा कि मुझे उदयपुर छूटने का इतना दुःख नहीं हुआ जितना दुःख चावण्ड के छूटने से हुआ है।

इस पर भीमसिंह ने उसी रात उस महल पर आक्रमण किया जिसमें अब्दुल्लाखां रह रहा था। भीमसिंह महल की ड्यौढ़ी तक पहुंचा गया किंतु घोड़े का पैर कट जाने से और स्वयं भी घायल हो जाने से ड्यौढ़ी से आगे न बढ़ सका और लौटकर महाराणा के पास छप्पन के पहाड़ों में चला आया। महाराणा ने उसकी वीरता की बहुत सराहना की। इसके बाद 4 माह तक अब्दुल्लाखां, मेवाड़ियों से लड़ने का साहस नहीं कर सका।

खुर्रम ने कुंभलगढ़, आंजणा, बीजापुर, गोगूंदा, सादड़ी, झाड़ौल, पानड़वा, औगणा, मादड़ी, चावण्ड, जावर और केवड़ा में मुगल थाने बैठा दिये तथा प्रत्येक थाने पर एक बड़े सेनापति, सूबेदार या राजा को नियुक्त किया। प्रत्येक थाने पर इतनी संख्या में सेना नियत की कि दूसरे थाने की सेना की आवश्यकता न पड़े। इस प्रकार उत्तरी मेवाड़, अमरसिंह के हाथ से निकल गया तथा महाराणा अपनी सेना सहित दक्षिणी मेवाड़ में सीमित हो गया।

इस पर भी महाराणा के सामंत अवसर पाते ही मुगल सेना पर आक्रमण करके उसे नष्ट करने में लगे रहे। इस पर मुगलों ने नागरिकों पर अत्याचार आरम्भ कर दिये। मुगल सेना गांवों को लूटकर उनमें आग लगा देती और बच्चों एवं स्त्रियों को पकड़ लेती थी।

मुगल सेना द्वारा मेवाड़ की जनता के साथ बरती जा रही क्रूरता के कारण महाराणा अमरसिंह के समक्ष विकट समस्या खड़ी हो गई। उसके समक्ष दो ही विकल्प बचे थे या तो वह मुगलों से संधि कर ले अथवा मेवाड़ की सम्पूर्ण प्रजा को मृत्यु और विनाश के मुख में जाते हुए देखता रहे। महाराणा को मुगलों की अधीनता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं थी। मुगल दरबार में हिन्दू राजाओं की जैसी बेज्जती होती थी, उस बेज्जती को महाराणा कैसे स्वीकार कर सकता था?

To purchase this book, please click on photo.

बादशाह अपने महल के झरोखे में बैठ जाता था तथा हिन्दू राजाओं को झरोखे के नीचे जाकर मुजरा करना पड़ता था। बादशाह के चोबदार जोर-जोर से चिल्लाते थे कि अमुक जमींदार मुजरा करता है। दरबार के समय बादशाह ऊंचे सिंहासन पर बैठता था और उसके दोनों तरफ राजा लोग, मनसब के अनुसार पंक्तिबद्ध होकर खड़े रहते थे। शहजादों के अतिरिक्त किसी राजा या अमीर को दरबार में बैठने की अनुमति नहीं थी। यदि कोई राजा खड़े-खड़े थक जाता था तो सहारा लेने के लिये पीछे लकड़ी की बल्ली बंधी होती थी जिस पर कुछ क्षणों के लिये राजा, अपनी पीठ टिका सकता था। राजाओं को वर्षों तक अपने राज्य में नहीं जाने दिया जाता था और वे पीढ़ी दर पीढ़ी, मोर्चे पर लड़ते रहते थे। महाराणा के लिये यह सब करना संभव नहीं था।

इसलिये मेवाड़ के सरदारों ने महाराणा से छिपकर एक योजना बनाई। उन्होंने महाराणा के स्थान पर कुंवर कर्णसिंह को बादशाह के पास भेजकर संधि करने का प्रस्ताव तैयार किया। कुंवर कर्णसिंह ने इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी। सरदारों ने जहांगीर के पांच हजारी मनसबदार राय सुंदरदास ब्राह्मण से सम्पर्क किया और खुर्रम के पास संदेश भिजवाया कि यदि बादशाह संधि करना चाहता है तो कुंवर कर्णसिंह, बादशाह की सेवा में उपस्थित हो सकता है। खुर्रम ने यह बात जहांगीर तक पहुंचाई। जहागीर ने संधि के इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया। जहांगीर ने लिखा है- ‘मेरा मुख्य उद्देश्य यही था कि राणा अमरसिंह और उसके बाप-दादों ने अपने विकट पहाड़ों और सुदृढ़ स्थानों के गर्व से न तो हिन्दुस्तान के किसी बादशाह को देखा है और न उसकी सेवा की है। मेरे राज्य में उसकी वह बात न रहे। इसी उद्देश्य से मैंने शहजादे की प्रार्थना से राणा के अपराध क्षमा कर दिये और उसकी शांति के लिये अपनी हथेली की छाप लगाकर फरमान भी भेजा। साथ में खुर्रम को इस आशय की सूचना द कि यदि तुम राणा के साथ मामला तय कर सको तो मुझे खुशी होगी।  उस फरमान को ढाका की मलमल में लपेटकर भेजा गया जिस पर जहांगीर के पंजे का केसर की रंगत लगा हुआ निशान था।  जब यह फरमान आ गया तब कुंवर कर्णसिंह वह फरमान लेकर महाराणा के पास गया। इस पर अमरसिंह ने शोक व्यक्त करते हुए कहा कि अपने पिता का ताना सहन करने की मेरी कदापि इच्छा न थी किंतु आज ईश्वर ने वैसा समय भी उपस्थित कर दिया। जब तुम सबकी यही इच्छा है तो मैं अकेला क्या कर सकता हूँ। 5 फरवरी 1615 को कर्णसिंह मेवाड़ी सरदारों को साथ लेकर, खुर्रम से मिला तथा संधि की शर्तें निश्चित हुईं। इस प्रकार गुहिल के लगभग 1050 वर्ष पश्चात्, मेवाड़ की स्वतंत्रता संकुचित हुई। इस संधि की मुख्य शर्तें इस प्रकार से थीं-

1. महाराणा बादशाह के दरबार में कभी उपस्थित नहीं होगा।

2. महाराणा का ज्येष्ठ कुंवर शाही दरबार में उपस्थित होगा।

3. महाराणा शाही सेना में 1000 सवार रखेगा।

4. महाराणा को चित्तौड़ का दुर्ग मिल जायेगा किंतु उसकी मरम्मत नहीं करवाई जायेगी।

19 फरवरी 1615 को कुंअर कर्णसिंह, अजमेर में जहांगीर के समक्ष उपस्थित हुआ। बादशाह ने कर्णसिंह को अपने दाहिनी ओर सबसे पहले स्थान पर खड़ा किया तथा उसे खिलअत एवं जड़ाऊ तलवार दी।  इस अवसर पर सर टॉमस रो भी जहांगीर के दरबार में उपस्थित था।

सर टॉमस रो ने लिखा है- ‘बादशाह ने कुंवर कर्णसिंह को कटहरे के भीतर बुलाया तथा उसे छाती से लगाया।’  जहांगीर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘दूसरे दिन मैंने उसे जड़ाऊ कटार, तीसरे दिन जड़ाऊ जीनवाला खासा इराकी घोड़ा दिया। जिस दिन वह जनाना दरबार में गया, नूरजहां ने उसे कीमती खिलअत, जड़ाऊ तलवार, जीन सहित घोड़ा और हाथी दिये। इसके बाद मैंने उसे मोतियों की एक बहुमूल्य माला दी। अगले दिन उसे खास सजाया हुआ हाथी दिया गया। मेरी इच्छा थी कि सब प्रकार की वस्तुओं में से एक-एक उसे दे दी जाए। इसलिये उसे तीन बाज, तीन जुर्रे, एक खासा तलवार, एक बख्तर, एक चमड़े का खासा कवच, एक पन्ने की अंगूठी, एक लाल की अंगूठी दी। महीने के अंत में मैंने आज्ञा दी कि सब प्रकार के वस्त्र, कालीन, नमदे, तकिये, भिन्न-भिन्न प्रकार के सुगंधित पदार्थ, सोने के बर्तन और दो गुजराती बहलियां मंगवाई जाएं। उन सब पदार्थों को अहदी लोग सौ थालों में रखकर दीवाने आम में ले आये जो मैंने कर्ण को बख्श दिये।  10 मार्च 1615 को जहांगीर ने कर्णसिंह को कुछ खासा घोड़े और अगले दिन पड़तले तथा कमरपेटी सहित एक जड़ाऊ तलवार दी। तीन दिन बाद उसे पांच हजारी जात और पांच हजार सवारों का मनसब देकर हीरों और मोतियों की एक छोटी माला दी जिसमें लाल का सुमेरू बना हुआ था।  एक दिन जहांगीर, कर्णसिंह को शिकार पर ले गया जहाँ उसने कर्णसिंह के कहने पर एक शेरनी की आंख में गोली मारकर दिखाई तथा कर्णसिंह के मांगने पर वह बंदूक कर्णसिंह को दे दी। फिर उसे एक लाख दरब दिये गये।  11 मई 1615 को जहांगीर ने कर्णसिंह को 20 घोडे़, एक कश्मीरी दुशाला, बारह हिरण और 10 अरबी कुत्ते दिये। तारीख 1 खुरदाद को 40 घोड़े, 2 को 41 घोड़े, 3 को 20 घोड़े दिये गये। 5 खुरदाद को 10 पगड़ी, 10 अचकन और 60 कमरपेटियां दी गईं तथा 20 को एक हाथी दिया गया।  5 जून को कर्णसिंह को विदा किया गया। उस दिन मैंने उसे एक खासा हाथी, एक घोड़ा, खिलअत, 50 हजार रुपयों की मोतियों की माला और 2 हजार रुपये का जड़ाऊ कटार विदाई में दिया। उसके अजमेर में आने के दिन से विदा होने तक जो कुछ नगद माल, जवाहिर और जड़ाऊ पदार्थ मैंने उसे दिये वे सब इस प्रकार थे- दो लाख रुपये, पांच हाथी, एक सौ दस घोड़े। खुर्रम द्वारा दिया गया सामान अलग था।’

कर्णसिंह को पांच हजारी मनसब दिया गया था। मनसबदारों को नियमानुसार नियत घोड़े, हाथी एवं अन्य लाव-लश्कर लेकर सेवा में स्वयं उपस्थित रहना पड़ता था परंतु यह पाबंदी कर्णसिंह के लिये नहीं रखी गई। इस प्रकार महाराणा ने सम्मानजनक शर्तों पर संधि की तथा जहांगीर द्वारा मेवाड़ को वास्तव में अधीन न करके प्रतीकात्मक अधीनता स्वीकार कराई गई। फिर भी महाराणा अमरसिंह को राज्य से विरक्ति हो गई तथा वह राजकार्य कुंवर कर्णसिंह को सौंपकर राजमहलों में एकांतवास करने लगा।

जिस प्रकार अकबर ने जयमल और पत्ता की मूर्तियां बनवाकर आगरा के महलों में लगवाई थीं, उसी प्रकार जहांगीर ने भी महाराणा अमरसिंह तथा कुंवर कर्णसिंह की पूरे कद की मूर्तियां बनवाकर आगरा के किले में दर्शन के झरोखे के नीचे लगवाईं। इस प्रकार जहांगीर के समय आगरा के दुर्ग में मेवाड़ के चार वीरों की आदमकद मूर्तियां खड़ी थीं। सर टॉमस रो ने लिखा है- बादशाह ने मेवाड़ के राणा को परस्पर समझौते से अधीन किया था न कि बल से। उसने उसको एक प्रकार से बख्शीशों से ही अधीन किया न कि जीतकर। उसको अधीन करने से बादशाह की आय में कोई वृद्धि नहीं हुई किंतु उलटा, बहुत कुछ देना पड़ा था। 

विलियम इरविन ने लिखा है- ‘अतिप्राचीन और महत्त्वपूर्ण सीसोदिया वंश का राज्य मेवाड़ पर था, जिसकी राजधानी उदयपुर थी। उसकी पुरानी राजधानी चित्तौड़ अकबर ने ले ली थी, तो भी जहाँ तक हो सकता, सीसोदिये मुसलमानों के सम्पर्क से दूर ही रहते थे और मुगल बादशाहों को बेटी ब्याहने में वे अपना अपमान समझते थे इसलिये उन्होंने इस अपमान का टीका कभी अपने सिर नहीं लगने दिया।

मेवाड़ के राजा, जोधपुर और आम्बेर के बड़े राजाओं की नाईं मुसलमानों के सैन्य में कभी सेवार्थ नहीं गये। यह रियायत केवल मेवाड़ के राजाओं के लिये ही हुई थी, जिससे अन्य राजाओं के समान न तो उनको बादशाही दरबार में उपस्थित होना पड़ता था और न शाही सेना में नौकरी देना। उनके लिये यह आज्ञा थी कि वे अपने किसी प्रतिनिधि, छोटे भाई, कुंवर या किसी तनख्वाहदार सेवक को भेज दिया करें। मुगल सेना में सीसोदियों की सेना जोधपुर और आंबेरवालों की अपेक्षा बहुत ही थोड़ी रहती थी।

संधि होने के पश्चात् अकबर की चित्तौड़ विजय से लेकर ई.1614 तक मेवाड़ के जितने प्रदेश पर शाही अधिकार हो गया था, वह सब तथा चित्तौड़ का किला भी महाराणा को मिल गया। इसके अतिरिक्त फूलिया, रतलाम, बांसवाड़ा, जीरन, नीमच, अरणोद आदि परगने भी कुंवर कर्णसिंह को जागीर में दिये गये। ई.1615 में कुंवर कर्णसिंह का 7 वर्षीय पुत्र जगतसिंह, अजमेर में जहांगीर के समक्ष उपस्थित हुआ।

जहांगीर ने उसके विषय में लिखा है- ‘उसके चेहरे से कुलीनता और उच्चवंशीय चिह्न स्पष्ट दिखाई देते थे। मैंने उसको सिरोपाव देकर प्रसन्न किया।’

ई.1616 में कर्णसिंह दूसरी बार बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ। कुछ समय पश्चात् शहजादा खुर्रम दक्षिण की चढ़ाई पर जाते समय उदयपुर के पास ठहरा। वहाँ से कर्णसिंह 1500 सवारों सहित उसके साथ हो गया। खुर्रम सात महीने दक्षिण में रहकर आदिलशाह तथा मलिक अम्बर को अपने अधीन करके लौट आया। कुंवर कर्णसिंह भी उदयपुर चलाा आया। ई.1618 में कर्णसिंह ने आगरा जाकर बादशाह को दक्षिण विजय की बधाई दी। 26 जनवरी 1620 को उदयपुर में महाराणा अमरसिंह का निधन हो गया।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source