हिन्दू राज्यों में परम्परागत रूप से राजा का बड़ा पुत्र ही राजा बनता आया था किंतु मुगलों में उत्तराधिकार निश्चित नहीं था। बादशाह की मृत्यु के बाद शहजादों में खूनी संघर्ष होता था। उनमें से जो भी शहजादा विजयी रहता था, वही अगला बादशाह होता था। मुगलों के सम्पर्क के कारण हिन्दू राज्यों में भी इस बुराई ने प्रवेश कर लिया था।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि देशी राज्यों में मची इस कलह की चर्चा करने की आवश्यकता क्या है, जबकि इस काल में जोधपुर के राजा विजयसिंह एवं मानसिंह, बीकानेर का राजा गजसिंह, जयपुर का राजा सवाई जयसिंह तथा उदयपुर का महाराणा भीमसिंह ऐसे महान राजा थे जो धरती पर कम ही देखने को मिलते हैं। इन्हें अठारहवीं सदी में भारत की राजनीति के निर्माताओं की श्रेणी में रखा जा सकता है।
इस चर्चा का उद्देश्य केवल यह बताना है कि भारत के लगभग साढ़े पांच सौ देशी राज्यों ने मुगलों के चुंगल से छूटने के बाद किन परिस्थितियों के वशीभूत होकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चंगुल में फंस गईं।
अठारहवीं शताब्दी के मध्य में एक तरफ तो बंगाल की तरफ से अंग्रेज शक्ति उत्तरी भारत को दबाती हुई चली आ रही थी तथा दूसरी ओर पिण्डारी एवं मराठे नर्बदा नदी की तरफ से उत्तरी भारत को रौंदने में लगे हुए थे।
यह भारतीय इतिहास के मध्यकाल का अवसान था किंतु अफगानिस्तान की ओर से विगत कई शताब्दियों से आ रही मुस्लिम आक्रमणों की आंधी अभी थमी नहीं थी। ई.1757 में अफगान सरदार अहमदशाह दुर्रानी ने भारत पर चौथा आक्रमण किया। वह इतिहास में अहमदशाह अब्दाली के नाम से भी जाना जाता है।
अहमदशाह अब्दाली ने सुन रखा था कि भारत में दो ही व्यक्ति धनाढ्य हैं- एक तो अवध का नवाब शुजाउद्दौला तथा दूसरा भरतपुर का राजा सूरजमल। अतः वह भरतपुर के खजाने को लूटने के लिए बड़ा व्याकुल था।
अहमदशाह अब्दाली ने बल्लभगढ़, कुम्हेर, डीग, भरतपुर तथा मथुरा पर आक्रमण कर दिया। उसने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि मथुरा में एक भी आदमी जीवित न रहे तथा जो मुसलमान किसी विधर्मी का सिर काटकर लाए उसे पाँच रुपया प्रति सिर के हिसाब से ईनाम दिया जाए।
अहमदशाह अब्दाली की घुड़सवार सेना ने अर्ध-रात्रि में बल्लभगढ़ पर आक्रमण किया। प्रातःकाल होने पर लोगों ने देखा कि प्रत्येक घुड़सवार एक घोड़े पर चढ़ा हुआ था। उसने उस घोड़े की पूंछ के साथ दस से बीस घोड़ों की पूंछों को बांध रखा था। सभी घोड़ों पर लूट का सामान लदा हुआ था तथा बल्लभगढ़ से पकड़े गए स्त्री-पुरुष बंधे हुए थे।
प्रत्येक आदमी के सिर पर उन लोगों के कटे हुए सिरों की गठरियां रखी हुई थीं जिन्हें अहमदशाह अब्दाली विधर्मी कहता था। अहमदशाह के सामने कटे हुए सिरों की मीनार बनाई गई। जो लोग इन सिरों को अपने सिरों पर रख कर लाए थे, उनसे चक्की पिसवाई गई तथा उसके बाद उनके भी सिर काटकर उसी मीनार में चिन दिए गए।
इसके बाद अहमदशाह अब्दाली ने मथुरा पर आक्रमण किया। मथुरा से आठ मील पहले चौमुहा में जाट राजा सूरजमल के पुत्र जवाहरसिंह ने दस हजार जाट सैनिकों को लेकर अब्दाली का मार्ग रोका। नौ घण्टे तक दोनों पक्षों में भीषण लड़ाई हुई जिसमें जाट सैनिक परास्त हो गये। जाटों को भारी क्षति उठानी पड़ी।
अहमदशाह अब्दाली तब तक मथुरा में प्रवेश नहीं कर सकता जब तक कि जवाहरसिंह के एक भी जाट सैनिक के कंधे पर उसका सिर मौजूद था। समस्त जाट सेना का सफाया करने के बाद ही अब्दाली की सेना ने मथुरा में प्रवेश किया।
उस दिन होली के त्यौहार को बीते हुए दो ही दिन हुए थे। अहमदशाह ने माताओं की छाती से दूध पीते बच्चों को छीनकर मार डाला तथा हिन्दू सन्यासियों के गले काटकर उनके साथ गौओं के कटे हुए गले बांध दिए। मथुरा के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को नंगा किया गया। जो पुरुष मुसलमान निकले उन्हें छोड़ दिया गया, शेष को मार दिया गया। जो औरतें मुसलमान थीं उनकी इज्जत लूटकर उन्हें जीवित छोड़ दिया गया तथा हिन्दू औरतों को इज्जत लूटकर मार दिया गया।
उस दिन मथुरा और वंृदावन में इतना रक्त बहा कि यमुनाजी का पानी लाल हो गया। अब्दाली के आदमियों को वही पानी पीना पड़ा। इस जल से फौज में हैजा फैल गया और सौ-डेढ़ सौ आदमी प्रतिदिन मरने लगे। अनाज की कमी के कारण अब्दाली की सेना घोड़ों का मांस खाने लगी। इससे अब्दाली के पास घोड़ों की कमी हो गई। बचे हुए सैनिक विद्रोह पर उतारू हो गए। इस कारण अहमदशाह को भरतपुर लूटे बिना ही अफगानिस्तान लौट जाना पड़ा।
चार साल बाद अब्दाली वापस भारत आया। इस बार मराठों और जाटों ने मिलकर उसका सामना करने की योजना बनाई। उन्होंने अब्दाली का मार्ग रोकने के लिए आगे बढ़कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। दिल्ली हाथ में आते ही मराठों ने दिल्ली के महलों एवं लालकिले को लूटने की योजना बनाई।
महाराजा सूरजमल के लाख मना करने पर भी मराठों ने लाल किले के दीवाने खास की छतों से चांदी के पतरे उतार लिए और नौ लाख रुपयों के सिक्के ढलवा लिए। सूरजमल स्वयं दिल्ली का शासक बनना चाहता था इसलिए उसे यह बात बुरी लगी और उसने मराठों का विरोध किया।
महाराजा सूरजमल चाहता था कि दिल्ली के बादशाह आलमगीर (द्वितीय) को मार डाला जाए किंतु बादशाह आलमगीर, मराठा सेनापति कुशाभाऊ ठाकरे को अपना धर्म-पिता कहकर उसके पांव पकड़ लेता था। सूरजमल आलमगीर से इसलिए नाराज था क्योंकि इस बार अब्दाली को भारत आने का निमंत्रण आलमगीर ने ही भेजा था ताकि सूरजमल को कुचला जा सके। कुशाभाऊ का आलमगीर के प्रति अनुराग देखकर महाराजा सूरजमल नाराज होकर दिल्ली से भरतपुर लौट आया।
इसके बाद पानीपत के मैदान में इतिहास-प्रसिद्ध पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई। इस युद्ध में अहमदशाह अब्दाली ने लगभग एक लाख मराठा सैनिकों को काट डाला। कुशाभाऊ ठाकरे युद्ध के मैदान में ही मारा गया। बचे हुए मराठा सैनिक प्राण लेकर भरतपुर की तरफ भागे।
उत्तर भारत के किसान मराठा सैनिकों से बुरी तरह नाराज थे क्योंकि मराठा सेनाएं कई दशकों से उत्तर भारत के किसानों से अनाज छीन रही थी। इसलिए किसानों ने, भागते हुए मराठा सैनिकों के हथियार, सम्पत्ति और वस्त्र छीन लिए।
युद्ध की मार से त्रस्त भूखे और नंगे मराठा सैनिक महाराजा सूरजमल के राज्य में प्रविष्ठ हुए। महाराजा सूरजमल ने मराठा सैनिकों की रक्षा के लिए अपनी सेना भेजी। उन्हें भोजन, वस्त्र और शरण प्रदान की।
महाराजा सूरजमल की महारानी किशोरी देवी ने देश की जनता का आह्वान किया कि वे भागते हुए मराठा सैनिकों को न लूटें। मराठा सैनिकों को मेरे बच्चे जानकर उनकी रक्षा करें। महारानी किशोरी देवी ने मराठा सैनिकों के लिए भरतपुर में अपना भण्डार खोल दिया। उसने सात दिन तक चालीस हजार मराठों को भोजन करवाया। ब्राह्मणों को दूध, पेड़े और मिठाइयां दीं।
महाराजा सूरजमल ने प्रत्येक मराठा सैनिक को एक-एक रुपया, एक वस्त्र और एक सेर अन्न देकर अपनी सेना के संरक्षण में मराठों की सीमा में ग्वालियर भेज दिया।
अहमदशाह अब्दाली ने ई.1757 से 1761 के बीच महाराजा सूरजमल से कई बार रुपयों की मांग की। अपने राज्य की रक्षा के लिए महाराजा ने अब्दाली को कभी दो करोड़़, कभी 65 लाख, कभी 6 लाख तथा अन्य बड़ी-बड़ी राशि देने के वचन दिए किंतु उसे कभी फूटी कौड़ी नहीं दी।
ई.1761 में अब्दाली अड़ गया कि इस बार तो वह कुछ लेकर ही मानेगा। महाराजा ने कहा कि उसे 6 लाख रुपये दिए जाएंगे किंतु अभी हमारे पास केवल 1 लाख रुपये हैं। अब्दाली एक लाख रुपये लेकर चलता बना। उसके बाद महाराजा ने उसे कभी कुछ नहीं दिया।
एक दिन दिल्ली के अफगान सैनिकों को महाराजा सूरजमल के आगमन की सूचना मिली। वे हिण्डन नदी के कटाव में छिपकर बैठ गए। जब महाराजा वहाँ से होकर निकला तो अफगानियों ने अचानक हमला बोल दिया। सैयद मोहम्मद खाँ बलूच ने महाराजा के पेट में अपना खंजर दो-तीन बार मारा और एक सैनिक ने महाराजा की दांयी भुजा काट दी।
भुजा के गिरते ही महाराजा धराशायी हो गया। उसी समय उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। एक मुस्लिम सैनिक महाराजा सूरजमल की कटी हुई भुजा को अपने भाले की नोक में पताका की भांति उठाकर नजीबुद्दौला के पास ले गया। इस प्रकार 25 दिसम्बर 1763 को हिन्दूकुल गौरव महाराजा सूरजमल का दर्दनाक अंत हो गया।
महाराजा सूरजमल की मृत्यु के बाद मराठों ने आमलगीर (द्वितीय) के साथ मिलकर भरतपुर राज्य समाप्त करने की योजना बनाई किंतु आलमगीर की मृत्यु हो गई और शाहआलम (द्वितीय) दिल्ली का बादशाह हुआ। ई.1784 में शाहआलम की ओर से सिंधिया ने भरतपुर राज्य पर आक्रमण करके राज्य का बहुत बड़ा क्षेत्र दबा लिया। राजमाता किशोरीदेवी ने मराठों से गुहार की कि वे जाट राज्य समाप्त न करें।
इस पर सिंधिया ने भरतपुर का सारा क्षेत्र जाटों को लौटा दिया तथा जाट राजा, मराठों को चौथ के रूप में दो लाख रुपया प्रतिवर्ष देने लगा। ई.1803 में अंग्रेजों ने भरतपुर राज्य के पास प्रस्ताव भिजवाया कि यदि जाट ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि कर लें तो अंग्रेज मराठों के हाथों से जाटों के राज्य की रक्षा करेंगे। इसके बदले में वे जाटों से कोई राशि भी नहीं लेंगे।
इस प्रकार ई.1803 में जनरल लेक और भरतपुर के राजा रणजीतसिंह के बीच संधि हो गई। अंग्रेजों ने मराठों से छीने हुए जाट-क्षेत्र रणजीतसिंह को लौटा दिए। यह संधि अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी। अंग्रेज सिपाही जाटों के राज्य में गाय मारकर खाने लगे। इस पर महाराजा रणजीतसिंह ने अंग्रेजों को भरतपुर राज्य से बाहर जाने के लिए कह दिया।