Saturday, July 27, 2024
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गोरा हट जा-चार: कोई तो बताए मेरी गुलाब को किसने मारा?

ई.1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल कमजोर पड़ गस तथा भारत में केन्द्रीय शक्ति का अभाव हो गया। इस अभाव को भरने के लिए मराठे सामने आए तथा उन्होंने ई.1719 में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला से मुगलों के अधीन करद राज्यों से कर वसूली के अधिकार प्राप्त किए तथा राजपूताना की उन सभी रियासतों से चौथ मांगी जो रियासतें मुगल बादशाह को कर दिया करती थीं।

मौर्यों एवं गुप्तों के काल में भारतीय राजा अपनी प्रजा से उनकी उपज का छठा हिस्सा कर के रूप में लिया करते थे। दिल्ली सल्तनत के तुर्क बादशाहों के काल में किसानों से लिया जाने वाला कर पचास से पिचहत्तर प्रतिशत तक होता था। मुगलों के काल में भी किसानों से उनकी उपज का लगभग पचास प्रतिशत कर लिया जाता था। मराठे अपनी कृषक प्रजा से उनकी उपज का चौथाई हिस्सा अर्थात् 25 प्रतिशत कर लिया करते थे जिसे वे चौथ कहते थे।

मराठा सरदार राजपूताना रियासतों से इसी चौथे हिस्से की मांग कर रहे थे किंतु मुगलों के चुंगल से मुक्त हुए राजपूताना के राज्य, मराठों को मुगलों का स्थानापन्न नहीं मानते थे, इसलिए राजपूताना रियासतें मराठों को कर नहीं देना चाहती थीं। जब मराठों ने राजपूताना की रियासतों से बलपूर्वक चौथ वसूलनी आरम्भ की तो चौथ शब्द हमेशा के लिए बदनाम हो गया।  

भारत में लगभग 100 वर्षों से व्यापार कर रही अंग्रेज शक्ति, भारतीय राजनीति में आए परिवर्तनों को बड़े ध्यान से देख रही थी क्योंकि भारत में राजनीतिक अशांति होने से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यपारिक हित प्रभावित होते थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों का विचार था कि यदि कम्पनी को भारत में दीर्घकाल तक व्यापार करना है तो कम्पनी मराठों को कुचलकर, मुगल बादशाह को अपने अधीन करे तथा उससे, भारतीय राज्यों से कर वसूली के अधिकार प्राप्त करे।

चूंकि ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने दम पर न तो मराठों को कुचल सकती थी, न मुगल बादशाह को दबाकर भारतीय राज्यों से कर वसूली के अधिकार प्राप्त कर सकती थी, इसलिए कम्पनी के अधिकारियों ने परस्पर लड़ रहे देशी राज्यों की घेराबंदी करने की योजना बनाई।

 जिस समय अंग्रेज शक्ति भारत के देशी राज्यों की घेराबंदी करने की योजना बना रही थी, उस समय राजपूताना के देशी राज्य अनेक आंतरिक एवं बाह्य समस्यओं से जूझ रहे थे जिनमें से सबसे बड़ी और अंतहीन दिखाई देने वाली समस्या थी, राज्यों के सामंतों तथा जागीरदारों की अनुशासनहीनता और लूट-खसोट की प्रवृत्ति। सामंतों तथा जागीरदारों ने राजाओं की नाक में दम कर रखा था तथा अधिकांश राजा अपने सरदारों के उन्मुक्त आचरण का दमन करने में सक्षम नहीं थे।

परम्परागत रूप से राजपूताने के राजा उच्च आदर्शों का पालन करते थे, वे प्रजावत्सल एवं धर्मनिष्ठ थे। इस काल के अनेक राजा अपने युग के बड़े लेखक एवं तत्वचिंतक भी हुए हैं। वे गाय, स्त्री, शरणागत एवं धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर करने वाले थे किंतु कुछ स्वार्थी तत्व पूरे राज्य का वातावरण खराब कर देते थे जिनके कारण राजा को अपने ही सामंतों को दबाने के लिए विदेशी शक्तियों की सहायता लेनी पड़ती थी। इस कारण परिस्थितियों में सुधार होने की बजाय और अधिक विकृति उत्पन्न हो जाती थी।   

देशी राज्यों में राजा के उत्तराधिकारी को लेकर खूनी संघर्ष होते रहते थे जिनके कारण राजवंश के सदस्य, राज्य के अधिकारी एवं जागीरदार दो या दो से अधिक गुटों में बंटे रहते थे। इन सब कारणों से राजपूताना के देशी राज्यों की आर्थिक, राजनैतिक एवं सामरिक दशा अत्यंत शोचनीय हो गई थी। राजपूताना के रजवाड़े और उनके अधीनस्थ जागीरदारों में विगत एक शताब्दी से भी अधिक समय से जबर्दस्त संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी। 

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जोधपुर नरेश विजयसिंह की अधिकांश शक्ति अपने जागीरदारों को दबा कर रखने में व्यय हुई थी। ई.1786 में उसने अपने जागीरदारों को मराठों से निबटने में असमर्थ जानकर नागाओं और दादूपंथियों की एक सेना तैयार की। ये लोग ‘बाण’ चलाने में बड़े दक्ष थे। नागाओं और दादूपंथियों की सहायता से महाराजा विजयसिंह को काफी बल मिला किन्तु विदेशी सेनाओं को मारवाड़ में आया देखकर हिन्दू सरदार बिगड़ गए और उन्होंने इकट्ठे होकर अपने ही राजा के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा कर दी।

महाराजा विजयसिंह उस समय तो किसी प्रकार सरदारों को मना लाया किन्तु बाद में उसने सरदारों को धोखे से कैद कर लिया। इनमें से दो सरदारों की कैद में मृत्यु हो गई और एक को सामंत को बालक जानकर छोड़ दिया गया। राजा द्वारा अपने ही सामंतों को कैद करने एवं कैद में ही उनकी मृत्यु हो जाने से मारवाड़ राज्य के सामंतों में सनसनी फैल गई और उन्होंने मारवाड़ में लूटमार मचा दी।

बड़ी कठिनाई से महाराजा विजयसिंह स्थिति पर काबू पा सका। कुछ दिनों बाद राजा ने अपने राज्य में पशुवध निषेध की आज्ञा दी। आउवा के ठाकुर जैतसिंह ने इस आज्ञा का पालन नहीं किया। इस पर महाराजा विजयसिंह ने किले में बुलाकर ठाकुर जैतसिंह की हत्या कर दी।

कुछ ही दिनों बाद जोधपुर राज्य के जागीरदारों ने षड़यंत्रपूर्वक राजा विजयसिंह की पासवान गुलाबराय की हत्या कर दी। उस काल में पासवान का अर्थ राजा की प्रीतपात्री दासी अथवा उपपत्नी से होता था।

अपनी प्रीतपात्री दासी की हत्या से महाराजा विजयसिंह को इतना आघात पहुँचा कि वह पागलों की तरह जोधपुर की गलियों में भटकने लगा और मार्ग में मिलने वाले प्रत्येक आदमी से कहता- कोई तो बताए मेरी गुलाब को किसने मारा? पासवान के वियोग में महाराजा विजयसिंह कुछ ही दिनों में मृत्यु को प्राप्त हुआ।

महाराजा विजयसिंह अपने युग के राजाओं में सबसे महान था। वह भगवान विषणु का परम भक्त, प्रजावत्सल एवं दयालु राजा था। वह चालीस साल तक शत्रुओं से लड़ता हुआ। उसने उन मुसलमान आक्रांताओं के विरुद्ध हिन्दू राजाओं का एक मोर्चा बनाया जो सिंध की तरफ से हिन्दू राज्यों पर आक्रमण करते थे। इतना होने पर भी तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों ने उसे अपने ही सामंतों तथा मराठों से लड़ते रहने के लिए विवश कर दिया। विजयसिंह के बाद उसका पौत्र भीमसिंह जोधपुर का राजा हुआ। भीमसिंह के 10 साल के शासन के बाद भीमसिंह का चचेरा भाई मानसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा।

कुछ सामंतों ने महाराजा मानसिंह को अपना राजा मानने से मना कर दिया तथा राजा के विरुद्ध सशस्त्र लड़ाई आंरभ कर दी। जोधपुर नरेश मानसिंह को अपने सरदारों को दबाने के लिए पिण्डारी नेता अमीर खाँ की सेवाएं लेनी पड़ीं। अमीर खाँ के साथी मुहम्मद खाँ ने जोधपुर राज्य के विद्रोही सामंतों को बातचीत के लिए बुलाया और एक शामियाने में बैठाकर धोखे से शामियाने की रस्स्यिां काट दीं तथा चारों तरफ से तोप के गोले बरसा दिए। उसने मृत ठाकुरों के सिर काटकर राजा मानसिंह को भिजवाए। इस घटना से, बाकी के ठाकुर डर गए और उन्होंने महाराजा से माफी मांग ली।

उदयपुर में ई.1761 में अरिसिंह मेवाड़ का महाराणा हुआ। महाराणा होने के उपलक्ष्य में वह एकलिंगजी के दर्शनों के लिए गया। वहाँ से लौटते समय जब महाराणा का घोड़ा चीरवा के तंग घाटे तक पहुंचा, उस समय महाराणा के आगे कई सरदार और घुड़सवार चल रहे थे जिससे महाराणा के घोड़े को धीमे हो जाना पड़ा।

 इस पर महाराणा ने छड़ीदारों को आज्ञा दी कि मार्ग खाली करवाओ। छड़ीदारों ने मार्ग खाली करवाने के लिए सरदारों के घोड़ों को भी छड़ियां मारीं। सरदार लोग उस समय तो अपमान को सहन कर गए किंतु उन्होंने महाराणा को हटाकर उसके स्थान पर महाराणा के पिता जगतसिंह की अन्य विधवा, जो कि झाली रानी के नाम से विख्यात थी, उसके गर्भ में पल रहे बालक को महाराणा बनाने का संकल्प किया।

सरदारों के इस आचरण से कुपित होकर महाराणा अरिसिंह ने कई सरदारों की हत्या करवा दी। मेवाड़ी सरदार फ्रांसिसी सेनापति समरू को मेवाड़ पर चढ़ा लाए। तब से महाराणा और उसके सरदारों में आपसी संघर्ष का जो सिलसिला चला वह रजवाड़ों के मिट जाने के बाद ही समाप्त हो सका।

बीकानेर नरेश जोरावरसिंह की मृत्यु ई.1746 में हुई। उसके कोई संतान नहीं थी। उसके मरते ही राज्य का प्रबन्ध भूकरका ठाकुर कुशालसिंह तथा मेहता बख्तावरसिंह ने अपने हाथों में ले लिया। उन दोनों ने राज्य का सारा कोष साफ कर दिया तथा बाद में जोरवारसिंह के चचेरे भाई गजसिंह से यह वचन लेकर कि वह राज्यकोष का हिसाब नहीं मांगेगा, उसे गद्दी पर बैठा दिया। इससे अन्य जागीरदार एवं सरदार, महाराजा गजसिंह के प्रति द्वेषभाव रखने लगे।

बीकानेर नरेश गजसिंह ने अपने बड़े पुत्र राजसिंह को राजद्रोह के अपराध में जेल में डाल दिया। जब ई.1787 में महाराजा गजसिंह मरने लगा तो उसने, राजकुमार राजसिंह को जेल से निकाल कर बीकानेर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। राजसिंह केवल 21 दिन तक राज्य करके मृत्यु को प्राप्त हुआ।

राजसिंह का बड़ा पुत्र प्रतापसिंह उस समय नाबालिग था। अतः बालक प्रतापसिंह को बीकानेर का राजा बनाया गया तथा इसी कुल के एक सामंत सूरतसिंह को राज्य का संरक्षक नियुक्त किया गया। कुछ दिन बाद सूरतसिंह ने अपने हाथों से शिशुराजा प्रतापसिंह का गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी और स्वयं राजा बन गया। इससे बीकानेर राज्य के सारे सरदार सूरतसिंह के शत्रु हो गए और उसे उखाड़ फैंकने का उपक्रम करने लगे।

जयपुर नगर के निर्माता महाराजा सवाई जयसिंह ने उदयपुर के महाराणा से प्रतिज्ञा की थी कि मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न होने वाला पुत्र सवाई जयसिंह के बाद आमेर राज्य का उत्तराधिकारी होगा किंतु जयसिंह की मृत्यु के बाद जयसिंह का सबसे बड़ा पुत्र ईश्वरीसिंह जयपुर राज्य की गद्दी पर बैठा। मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न माधोसिंह को टोंक, टोडा तथा तीन अन्य परगनों की जागीर दे दी गई। इस पर माधोसिंह ने मेवाड़ तथा मराठों का सहयोग प्राप्त कर जयपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। ईश्वरीसिंह को आत्महत्या कर लेनी पड़ी तथा ई.1750 में माधोसिंह जयपुर की गद्दी पर बैठा। इसी प्रकार की बहुत सी घटनाएं बूंदी, कोटा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा अन्य रियासतों में घटित हुईं थीं जिनके चलते राजाओं और उनके सामंतों में संघर्ष की स्थिति चली आ रही थी। विद्रोही राजकुमारों तथा जागीरदारों को अपने ही शासकों का सामना करने की क्षमता राजपूताने में उपस्थित दो बाह्य शक्तियों से प्राप्त हुई थी। इनमें से पहली बाह्य शक्ति मराठों की थी तो दूसरी पिण्डारियों की।

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